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Editorial

यदि आज कांशीराम होते तो …1

मेरी बात


जल्दी जल्दी पैर बढ़ाओ, आओ आओ
आज अमीरों की हवेली किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, तेली खोलेंगे अंधेरों का ताला,
एक पाठ पढ़ेंगे, टाट बिछाओ।

-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

आजादी पूर्व की इस कविता को मूर्त रूप देने का प्रयास करने और कुछ हद तक दलितों को संगठित करने में सफल रहने वाले मास्टर कांशीराम अपनी सबसे करीबी शिष्या के हाथों ही मात खा गए प्रतीत होते हैं। कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख बहिन मायावती ने गत् पखवाड़े यकायक ही अपने घोषित उत्तराधिकारी आकाश आनंद को पार्टी के समस्त पदों से हटा यह स्पष्ट कर दिया कि उनमें न तो कांशीराम समान संघर्ष करने की क्षमता है आौर न ही वे दलित समाज के हितों की रक्षा करने और उनमें कांशीराम द्वारा पैदा की गई राजनीतिक चेतना को जिलाए रखने, दिशा देने, गति देने की समझ रखती हैं। उनके इस अप्रत्याक्षित कदम ने यह भी साफ कर दिया कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते उन पर और उनके परिजनों पर अकूत संपदा अर्जित करने के आरोपों में दम जरूर है जिसके चलते बसपा प्रमुख पर विपक्षी दल भाजपा के दबाव में आ इंडिया गठबंधन का हिस्सा नहीं बनने सरीखे आरोप लगा रहे हैं।

दलितों में राजनीतिक चेतना विकसित करने का पहला गंभीर प्रयास डॉ. भीमराव अंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से त्याग पत्र देने बाद 1952 में स्वयं की पार्टी ‘शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ का गठन कर किया था। डॉ. अंबेडकर लेकिन दलितों को एक सूत्र में बांधने में विफल रहे। वह दौर नेहरू के नायकत्व का दौर था। कांग्रेस को देश के पहले आम चुनाव में अभूतपूर्व जनादेश मिला और वह 364 सीटों में विजयी रही थी। डॉ. अंबेडकर की पार्टी मात्र 2 सीटें जीत पाई और स्वयं अंबेडकर बॉम्बे सीट से पराजित हो गए थे। कांशीराम अंबेडकर की इस विफलता को हर कीमत सफलता में बदलना चाहते थे। डॉ. अंबेडकर की भांति उनका भी मानना था कि हिंदू धर्म के मूल में शोषण का बीज है जिसके चलते वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान में खड़े दलितों का उत्पीड़न ब्राह्माणवादी व्यवस्था करती आई है। कांशीराम कहते थे कि ऊपरी जातियां जो देश की जनसंख्या का मात्र 15 प्रतिशत हैं, बहुसंख्यक जनता को दरिद्रता और दासता के कुचक्र में बांधे हुए हैं। इस कुचक्र को तोड़ने के लिए बहुसंख्यक के आत्मस्वाभिमान को जगाना होगा ताकि वह संगठित हो इस ब्राह्माणवादी व्यवस्था से टक्कर ले सके। उन्होंने यही किया भी। उन्होंने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे अपने मिशन को साकार रूप देने के उद्देश्य से बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटिज एप्लाई फेडरेशन (बामसेफ) का गठन 1971 में किया। 1981 में उन्होंने दलित-शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) का गठन किया और अंततः 1984 में राष्ट्रीय राजनीति दल बहुजन समाज पार्टी बना सीधे सत्ता संघर्ष के मैदान में उतर गए। यह आजाद भारत में पहली बार संगठित तौर पर बहुजन राजनीति की शुरुआत थी। कांशीराम 1932 में गांधी और अंबेडकर के मध्य हुए पूना पैक्ट (समझोता) का हश्र देख चुके थे। इस समझोते के अनुसार अंग्रेज शासित भारत में प्रांतीय सरकारों के गठन हेतु हुए विधानसभा चुनावों में दलितों के लिए सीटे आरक्षित की गईं थी। कांशीराम ने पाया कि इस आरक्षण का लाभ और आजादी बाद दलितों को दिए गए संविधान प्रदत्त आरक्षण का लाभ दलितों के एक छोटे से गर्व तक सीमित हो गया है और वह वर्ग इन सुविधाओं के मायाजाल में फंस ब्राह्माणवादी व्यवस्था का ही अंग बन चुका है। उन्होंने इस मकड़जाल को ध्वस्त करने के लिए विभिन्न जातियों में बंटे दलित समाज को एकजुट करने का प्रयास शुरु किया। ‘बामसेफ’ का गठन इसकी शुरुआत भर थी। इस संगठन का नारा था ‘शिक्षित बनो, संगठित होओ और संघर्ष करो।’ 1981 में उन्होंने गैर सरकारी दलितों के लिए ‘डीएस-4’ गठित किया जिसका नारा था ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ कांशीराम का संघर्ष अब रंग दिखाने लगा था। 1983-84 में ‘डीएस-4’ ने अखिल भारतीय स्तर पर साइकिल रैली निकाली। कन्याकुमारी, कश्मीर, कोहिमा, जगन्नाथपुरी और पोरबंदर से गुजरी इन साइकिल रैलियों का समापन 15 मार्च, 1984 के दिन दिल्ली के ऐतिहासिक बोट क्लब मैदान में एक विशाल जनसभा के रूप में हुआ था। इन रैलियों में ‘वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ और ‘बाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशीराम करेगा पूरा’, सरीखे नारे लगते थे।

इसी समयकाल में 1977 के आस-पास कांशीराम की मुलाकात मायावती से हुई। मायावती सरकारी सेवा में थीं। हजारों अन्य दलित युवाओं की तरह ही मायावती ने भी खुद को कांशीराम के मिशन के लिए समर्पित कर दिया था। कांशीराम पंजाब के रहने वाले थे लेकिन उन्होंने अपने राजनीतिक प्रयोग के लिए उत्तर प्रदेश को सबसे मुफीद पाया था। उनका मानना था कि इस विशाल प्रदेश में रहने वाली बहुसंख्यक दलित आबादी घोर सामंतवादी व्यवस्था की शिकार है और यदि इनके आक्रोश को संगठित कर दिया जाए तो पूरे देश भर के दलितों और शोषितों को एक सूत्र में बांधने की उनकी रणनीति परवान चढ़ जाएगी। पंजाबी होने के नाते कांशीराम को उत्तर प्रदेश में बाहरी होने का नुकसान था। मायावती चमार उपजाति से थीं और महिला होने का भी उनको राजनीतिक लाभ मिलने की पूरी संभावना कांशीराम को नजर आई। इस तरह मायावती कांशीराम के राजनीतिक प्रयोग का चेहरा बन उभरीं और 1993 में पहली बार घोर सामंती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन उन्होंने इतिहास रच दिया।

उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मभूमि अथवा अपने मिशन की प्रयोगशाला बनाने और चमार जाति की मायावती को उसका चेहरा बनाने की रणनीति कांशीराम ने ‘नाड़ा मवेश आंदोलन’ की सफलता और व्यापकता को समझ तैयार की थी। 1950 से 1980 के शुरुआती बरसों में बिहार तथा उत्तर प्रदेश के गांवों में सफाई इत्यादि का काम करने वाले चमारों ने मृत जानवरों के शवों को ठिकाने लगाने और नवजात शिशुओं की जन्मनाल काटने से इंकार कर उच्च जातियों के शोषण का  प्रतिकार अनूठे तरीके से करना शुरू किया था। हालांकि अन्य दलित जातियां जो स्वयं को चमारों से ऊपर मानती थी, ने इस आंदोलन को अलग-थलग कर दिया था लेकिन इस आंदोलन का असर लंबे समय तक रहा। दलित जातियों को एकसूत्र में बांधने की जरूरत और समझ कांशीराम को इस आंदोलन की विफलता ने ही दी थी।

कांशीराम ने अपने मिशन को सफलतापूर्वक इस मुकाम तक ला दिया कि बगैर उनके उत्तर प्रदेश में किसी भी दल के लिए सरकार गठन कर पाना संभव नहीं रह गया था। वह खुलकर कहते थे कि हम एक मजबूत नहीं, बल्कि कमजोर सरकार चाहते हैं ताकि हमारे समर्थन से बनी ऐसी सरकार दलितों की सुने और उनके हितों के लिए काम करे। यही कारण है कि उनकी और उनके राजनीतिक वारिस मायावती की राजनीति को अवसरवादी राजनीति कह आरोपित किया जाता रहा है। 1992 में जब राम के नाम पर भाजपा हिंदी पट्टी, विशेषकर उत्तर प्रदेश में अपना तेजी से विस्तार कर रही थी और 6 दिसंबर 1992 की दुर्घटना बाद चौतरफा उसका प्रभाव स्पष्ट रूप से नजर आने लगा था, मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने गठबंधन कर भाजपा के रथ को रोकने का काम कर दिखाया था। तब उत्तर प्रदेश की गली-गली नारा गूंजा था – ‘मिले मुलायम- कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम।’ लेकिन सपा संग मात्र कुछ ही समय में गठबंधन तोड़ कांशीराम ने भाजपा संग हाथ मिला भारतीय राजनीति में अवसरवादिता को नई ऊंचाई देने का रिकॉर्ड बनाने से परहेज नहीं किया।

इतिहास लेकिन इतना भर नहीं है। कांशीराम भारतीय राजनीति में आजादी उपरांत दलित समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं से गहरी वितृष्णा रखते थे। उनका मानना था कि बाबू जगजीवन राम और रामविलास पासवान सरीखे नेताओं ने निज् स्वार्थ चलते दलित मुद्दों का समाधान कभी तलाशने का प्रयास नहीं किया। कांशीराम द्वारा लिखी गई एक मात्र पुस्तक ‘दि चमचा एजःएन एरा ऑफ स्टूजस्’ (चमचा युगः कतपुतलियों का दौर) ऐसे ही राजनेताओं के खिलाफ लिखी गई पुस्तक है जिसमें कांशीराम ने इन दलित नेताओं को कांग्रेस व अन्य मुख्यधारा की ब्राह्माणवादी पार्टियों का चमचा करार देते हुए ऐसी ‘कठपुतलियों’ से बहुसंख्यक समाज को चेताने और बचाने की कार्ययोजना बनाने पर जोर दिया है। यह पुस्तक 1982 में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में उन्होंने विस्तार से दलित नेताओं की कमियों को चिन्ह्ति करते हुए ऐसे नेताओं को ही दलितों के दारूण स्थिति और शोषण का जिम्मेदार ठहराया क्योंकि कांशीराम के नजर में ऐसे सभी दलित नेता कांग्रेस के हाथों की कठपुतली बन चुके थे और ब्राह्माणवादी व्यवस्था का अंग बन चुके थे। आज दशकों बाद ठीक ऐसा ही कांशीराम की राजनीतिक विरासत को संभाल रही मायावती के लिए कहा जाने लगा है।

क्रमशः

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