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Editorial

धिक्कारता हूं मैं ऐसे विकास को

मेरी बात
भूखा बच्चा सो रहा है आसमान ओढ़कर
मां रोटी कमा रही है पत्थरों को तोड़कर
जिनके पांव नंगे हैं लिबास तार-तार हैं
जिनकी सांस-सांस साहूकारों की उधार है
जिनके प्राण बिन दवाई मृत्यु की कगार हैं
आत्महत्या कर रहे भूख के शिकार हैं
थूक कर धिक्कारता हूं मैं ऐसे विकास को

जो कफ़न भी दे न सके गरीबों की लाश को।

-डॉ. हरिओम पवार

‘विकास’ शब्द बीते कई दशकों से हमारे चौतरफा शोर मचाए हुए है। ईश्वर की माफिक यह विकास भी लेकिन मृगतृष्णा समान है। जन्म लेने से मृत्यु तक हम जिस प्रकार हर क्षण ईश्वर का स्मरण करते रहते हैं, अपनी हर समस्या का समाधान उसके आसरे छोड़ देते हैं, विकास भी जैसे-तैसे हम बड़े होते जाते हैं, हमारे साथ चिपक जाता है। यहां विकास से मेरा तात्पर्य अंग्रेजों की दास्ता से मुक्ति पाए राष्ट्र भारत के विकास से है। बीते पिचहत्तर वर्षों में अजीबो-गरीब तरीके से इस विकास का का विकास होते हम देख रहे हैं। आजादी उपरांत जिस विकास का सपना देखा गया था, वह साकार नहीं हो पाया है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में- ‘कहां तो तय था चिरांगा हर एक घर के लिए, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।’ विकास हुआ जरूर लेकिन कतार में खड़े अंतिम आदमी तक पहुंच नहीं पाया। 15 अगस्त 1947 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विश्व प्रसिद्ध भाषण को जरा याद कीजिए। नेहरू ने कहा था- ‘… यह भविष्य आराम करने और दम लेने के लिए नहीं है, बल्कि निरंतर प्रयत्न करने के लिए है ताकि हम उन प्रतिज्ञाओं को, जो हमने इतनी बार ली हैं और जो आज कर रहे हैं, पूरा कर सकें। भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की सेवा है। इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञानता और अवसर की विषमता का अंत करना है। हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी (गांधी जी) की यह आकांक्षा रही है कि प्रत्येक आंख के प्रत्येक आंसू को पोंछ दिया जाए। ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है लेकिन जब तक आंसू है, पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा।’
नेहरू की आशंका सही निकली। आजाद भारत के कर्णधार गांधी की इच्छा को पूरा नहीं कर पाए। विकास हुआ जरूर लेकिन इसका लाभ कतार में खड़े अंतिम आदमी तक नहीं पहुंच पाया। इस विकास का लाभ चंद पूंजीपतियों तक सिमट कर रह गया। ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ के ताजातरीन आंकड़े मेरे इस कथन की पुष्टि करते हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स एक वार्षिक सूचकांक है जो विश्वभर में भूख और कुपोषण का आकलन करता है। वर्ष 2024 की रिपोर्ट के अनुसार भारत 127 देशों में से 105वें स्थान पर है और इसे ‘गम्भीर’ श्रेणी में रखा गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 13.7 प्रतिशत आबादी अल्पपोषित है। स्मरण रहे आजादी के समय भूखमरी और खाद्य सुरक्षा एक गम्भीर समस्या थी। देश में अनाज का उत्पादन आवश्यकता की बनिस्पत बेहद कम था और अनाज की बड़ी मात्रा में हमें आयात करना पड़ता था। हरित क्रांति के जरिए नेहरू और शास्त्री के कार्यकाल में इस समस्या का निदान अवश्य हुआ लेकिन भूखमरी आज भी, 21वीं सदी में भी, हमारे लिए बड़ी चुनौती बनी हुई है। अनुमान अनुसार लगभग 19 करोड़ लोग भूख से प्रभावित हैं जो विश्व में सबसे अधिक है।

आर्थिक असमानता का आलम यह है कि 10 प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्र की 77 प्रतिशत सम्पत्ति है। वर्ष 2022 में जारी आंकड़ों के अनुसार भारत के 1 प्रतिशत सबसे धनी व्यक्ति देश की कुल आय का सबसे बड़े हिस्से पर काबिज थे। इतना ही नहीं देश के इन शीर्ष व्यक्तियों की सम्पत्ति इस दौरान 280 प्रतिशत बढ़ी है जबकि इसी अवधि में देश की औसत आय में मात्र 27 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई हे। वर्ष 2023-24 में भारत की प्रति व्यक्ति औसत आय मात्र 1,06,134 रुपए लगभग 1,295 अमेरिकी डॉलर थी जो विकसित देशों की तुलना में कहीं नहीं ठहरती। विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय 40,000-50,000 अमेरिकी डॉलर है। इसके बावजूद चौतरफा शोर ‘विकास’ का है। डंका बजाया जा रहा है कि हम विश्वगुरु बनने की राह पकड़ चुके हैं। फरवरी, 1971 में यानी आज से लगभग 54 बरस पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मध्यावधि चुनाव कराए जाने का फैसला लिया था। यह चुनाव उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे सहारे  लड़ा और भारी बहुमत से जीत दर्ज कराई थी। 54 बरस बीतने के बाद भी यदि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं तो विकास का सच सामने आ जाता है।

2014 में गाजे-बाजे के साथ केंद्र की सत्ता में काबिज हुए वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘सबका साथ -सबका विकास’ की बात कही थी। दस बरस बाद आज कहां है ‘सबका साथ – सबका विकास’? विकास यदि हो रहा है तो वह है कठमुल्लई का विकास, साम्प्रदायिकता का विकास, पाखंडवाद का विकास, भ्रष्टाचार का विकास, फिरकापरस्ती का विकास, धर्म के नाम पर दंगों को भड़काने की प्रवृत्ति का विकास। और भला किस का विकास हो रहा है? धर्म को हथियार बना समाज को इस कदर हिंसक बना दिया गया है कि अब दीपावली और ईद जैसे हर्षोल्लास के त्यौहार डराने लगे हैं। हमारी संस्कृति में हमेशा से ही दो प्रकार की संस्कृतियों का प्रभाव और इन दोनों के मध्य टकराव रहा है। यह हैं विष्णु संस्कृति और शिव-संस्कृति। विष्णु-संस्कृति वैभवशाली वर्ग की, शासक वर्ग की संस्कृति है। ऐसी संस्कृति जहां लक्ष्मी का पूजन होता है। यह वह संस्कृति है जिसका प्रतिनिधित्व क्षीर सागर में एकांत वास करने वाले विष्णु हैं जो कमल के फूल को हाथ में धारण करते हैं। वह कमल जो पैदा तो कीचड़ में होता है लेकिन कीचड़ से अलिप्त रहता है। विष्णु संस्कृति के पास प्रचार माध्यम बतौर शंख है और हिंसा के लिए गदा है। दूसरी तरफ है शिव-संस्कृति जो औघड़ है, करुणा से ओत- प्रोत है। इतनी ओत-प्रोत कि किसी की रक्षा के लिए विष तक पी जाए। वर्तमान समय में हम चौतरफा विष्णु संस्कृति का विस्तार होते देख रहे हैं प्रचार माध्यमों पर कब्जा रखने वाली यह संस्कृति ढोल पीट रही है कि हम विश्वगुरु बनने जा रहे हैं कि हम विश्व की पांचवी बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुके हैं, सत्य लेकिन इसके ठीक विपरीत है। हम कीचड़ का ऐसा तालाब बन चुके हैं कुछ जगहों पर ऐय्याशी के महल बने खड़े हैं लेकिन इन महलों के चारों तरफ कीचड़ का गहरा दलदल है। ऐसा दलदल जो कभी न कभी इन महलों को निगलेगा ही निगलेगा। बहुतों को, सम्भवतः अधिकांशों को मेरी बात से इत्तेफाक आज भले ही न  हो, मेरा मानना है कि हमारे जीवनकाल में ही ‘विकास’ नाम के सपने का टूटना तय है। डरता हूं कि जब यह सपना टूटेगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। इतनी देर कि फिर हालात सम्भाले नहीं सम्भलेंगे। वर्ग संघर्ष रौद्र रूप धारण कर कहीं इस राष्ट्र को ही न निगल ले। यदि ऐसा कुछ हुआ तो इसके जिम्मेदार हमारे हुक्मरानों के साथ-साथ आप आप और हम सभी होंगे क्योंकि अंधा तमाशबीन बनने से बड़ा अपराध और कुछ नहीं।

डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि ‘हिंदुस्तान की गाड़ी बेतहाशा बढ़ती जा रही है, किसी गड्डे की तरफ या फिर चट्टान से चकनाचूर होने। इस गाड़ी को चलाने की जिन पर जिम्मेवारी है उन्होंने इसे चलाना छोड़ दिया है। गाड़ी अपने आप बढ़ती जा रही है। मैं भी इस गाड़ी में बैठा हूं। यह बेतहाशा बढ़ती जा रही है। इसके बारे में मैं सिर्फ एक ही काम कर सकताा हूं कि चिल्लाऊं और कहूं कि रोको। अगर मेरी आवाज और ज्यादा तेज नहीं होती तो कम से कम माननीय सदस्य इस बात को, मेरे दिल की, मेरी आत्मा की पुकार को समझे कि मैं चिल्लाना चाहता हूं कि इस गाड़ी को रोको, यह चकनाचूर होने जा रही है।’

लोहिया जी की पुकार लेकिन किसी ने नहीं सुनी। नतीजा सबके सामने हैं। ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ हमें आईना दिखा रहा है कि बीते 77 बरसों में विकास के नाम पर आम जनता को मात्र छला गयाा है। और इस छलावे को जनता जनार्दन समझे नहीं, सच को समझ बगावत की राह न पकड़े, इसके लिए राष्ट्रवाद को, धर्म को और लोकलुभावने नारों को आगे कर जनता को बरगलाने का काम आजादी बाद से बदस्तूर जारी है। जनता कब जागेगी कहना कठिन है। इतना लेकिन तय है कि सच आज नहीं तो कल सामने आएगा ही आएगा। जब भ्रमजाल टूटेंगे तब क्रांति ज्वार के मोती लहलहाने लगेंगे। क्रांति रक्त रंजित भी हो सकती है। जब कभी भी ऐसा होगा, बतौर राष्ट्र हमारी बुनियाद हिल उठेगी। यह होना तय है। कब? यह यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर मेरे पास नहीं।

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