जो कफ़न भी दे न सके गरीबों की लाश को।
-डॉ. हरिओम पवार
आर्थिक असमानता का आलम यह है कि 10 प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्र की 77 प्रतिशत सम्पत्ति है। वर्ष 2022 में जारी आंकड़ों के अनुसार भारत के 1 प्रतिशत सबसे धनी व्यक्ति देश की कुल आय का सबसे बड़े हिस्से पर काबिज थे। इतना ही नहीं देश के इन शीर्ष व्यक्तियों की सम्पत्ति इस दौरान 280 प्रतिशत बढ़ी है जबकि इसी अवधि में देश की औसत आय में मात्र 27 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई हे। वर्ष 2023-24 में भारत की प्रति व्यक्ति औसत आय मात्र 1,06,134 रुपए लगभग 1,295 अमेरिकी डॉलर थी जो विकसित देशों की तुलना में कहीं नहीं ठहरती। विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय 40,000-50,000 अमेरिकी डॉलर है। इसके बावजूद चौतरफा शोर ‘विकास’ का है। डंका बजाया जा रहा है कि हम विश्वगुरु बनने की राह पकड़ चुके हैं। फरवरी, 1971 में यानी आज से लगभग 54 बरस पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मध्यावधि चुनाव कराए जाने का फैसला लिया था। यह चुनाव उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे सहारे लड़ा और भारी बहुमत से जीत दर्ज कराई थी। 54 बरस बीतने के बाद भी यदि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं तो विकास का सच सामने आ जाता है।
2014 में गाजे-बाजे के साथ केंद्र की सत्ता में काबिज हुए वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘सबका साथ -सबका विकास’ की बात कही थी। दस बरस बाद आज कहां है ‘सबका साथ – सबका विकास’? विकास यदि हो रहा है तो वह है कठमुल्लई का विकास, साम्प्रदायिकता का विकास, पाखंडवाद का विकास, भ्रष्टाचार का विकास, फिरकापरस्ती का विकास, धर्म के नाम पर दंगों को भड़काने की प्रवृत्ति का विकास। और भला किस का विकास हो रहा है? धर्म को हथियार बना समाज को इस कदर हिंसक बना दिया गया है कि अब दीपावली और ईद जैसे हर्षोल्लास के त्यौहार डराने लगे हैं। हमारी संस्कृति में हमेशा से ही दो प्रकार की संस्कृतियों का प्रभाव और इन दोनों के मध्य टकराव रहा है। यह हैं विष्णु संस्कृति और शिव-संस्कृति। विष्णु-संस्कृति वैभवशाली वर्ग की, शासक वर्ग की संस्कृति है। ऐसी संस्कृति जहां लक्ष्मी का पूजन होता है। यह वह संस्कृति है जिसका प्रतिनिधित्व क्षीर सागर में एकांत वास करने वाले विष्णु हैं जो कमल के फूल को हाथ में धारण करते हैं। वह कमल जो पैदा तो कीचड़ में होता है लेकिन कीचड़ से अलिप्त रहता है। विष्णु संस्कृति के पास प्रचार माध्यम बतौर शंख है और हिंसा के लिए गदा है। दूसरी तरफ है शिव-संस्कृति जो औघड़ है, करुणा से ओत- प्रोत है। इतनी ओत-प्रोत कि किसी की रक्षा के लिए विष तक पी जाए। वर्तमान समय में हम चौतरफा विष्णु संस्कृति का विस्तार होते देख रहे हैं प्रचार माध्यमों पर कब्जा रखने वाली यह संस्कृति ढोल पीट रही है कि हम विश्वगुरु बनने जा रहे हैं कि हम विश्व की पांचवी बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुके हैं, सत्य लेकिन इसके ठीक विपरीत है। हम कीचड़ का ऐसा तालाब बन चुके हैं कुछ जगहों पर ऐय्याशी के महल बने खड़े हैं लेकिन इन महलों के चारों तरफ कीचड़ का गहरा दलदल है। ऐसा दलदल जो कभी न कभी इन महलों को निगलेगा ही निगलेगा। बहुतों को, सम्भवतः अधिकांशों को मेरी बात से इत्तेफाक आज भले ही न हो, मेरा मानना है कि हमारे जीवनकाल में ही ‘विकास’ नाम के सपने का टूटना तय है। डरता हूं कि जब यह सपना टूटेगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। इतनी देर कि फिर हालात सम्भाले नहीं सम्भलेंगे। वर्ग संघर्ष रौद्र रूप धारण कर कहीं इस राष्ट्र को ही न निगल ले। यदि ऐसा कुछ हुआ तो इसके जिम्मेदार हमारे हुक्मरानों के साथ-साथ आप आप और हम सभी होंगे क्योंकि अंधा तमाशबीन बनने से बड़ा अपराध और कुछ नहीं।
डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि ‘हिंदुस्तान की गाड़ी बेतहाशा बढ़ती जा रही है, किसी गड्डे की तरफ या फिर चट्टान से चकनाचूर होने। इस गाड़ी को चलाने की जिन पर जिम्मेवारी है उन्होंने इसे चलाना छोड़ दिया है। गाड़ी अपने आप बढ़ती जा रही है। मैं भी इस गाड़ी में बैठा हूं। यह बेतहाशा बढ़ती जा रही है। इसके बारे में मैं सिर्फ एक ही काम कर सकताा हूं कि चिल्लाऊं और कहूं कि रोको। अगर मेरी आवाज और ज्यादा तेज नहीं होती तो कम से कम माननीय सदस्य इस बात को, मेरे दिल की, मेरी आत्मा की पुकार को समझे कि मैं चिल्लाना चाहता हूं कि इस गाड़ी को रोको, यह चकनाचूर होने जा रही है।’