युद्ध मेरी समझ से किसी समस्या का हल नहीं हो सकता। भारत-पाकिस्तान के विषय में तो यह शत-प्रतिशत सत्य है। भले ही हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री कितना क्यों ना दहाड़ लें, भले ही उनके अंध भक्त और पुलवामा की आतंकी घटना के बाद भारतीय वायुसेना के हवाई हमलों से प्रभावित मेरे पत्रकार मित्र क्यों ना प्रधानमंत्री को साधुवाद के ट्वीट करें, फेसबुक में उनका स्तुति गान करें, अपन तो मोदी सरकार की इस ‘जाबांजी’ को एकतरफा सलाम नहीं कर सकते। भारतीय वायुसेना ने निश्चय ही पराक्रम का परिचय दिया है। सीमा पार स्थापित आतंकी ठिकानों को नेस्तानाबूद करने का मिशन हर दृष्टि से स्वागत, सलाम योग्य है, लेकिन इसका श्रेय वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान को मैं तो कम से कम नहीं दे सकता। मेरी दृष्टि बहुत संभव है कि बाधित हो चली हो। शायद मोदी जी का अद्भुत पराक्रम मैं देख न पा रहा हूं या फिर उनके इस साहस को सही तरह से समझ नहीं पाया हूं। बहुत संभव है कि मेरा मोदी सरकार के प्रति दुराग्रह मुझे इस ‘महाकामयाब’, ‘महापराक्रमी’ कदम की प्रशंसा करने और मोदी साहब की स्तुति करने से रोक रहा हो। तर्क लेकिन मेरे पास, मेरी इस सोच के हैं जो शायद कुछ हद तक इस मुद्दे पर मेरी राय के पक्ष में पैरोकारी कर सकते हैं। तो चलिए कुछ इस पूरे प्रकरण पर मेरी बात आप तक पहुंचे, इसका प्रयास मैं करता हूं।
कश्मीर हमारे लिए आजादी के तुरंत बाद से ही समस्या रहा है। प्रश्न यह कि समस्या बना क्यों और आजादी के सत्तर बरस बाद तक इसका निस्तारण क्यों नहीं हो पाया? इतिहास समझने के लिए हमें इतिहासकारों की शरण में जाना पड़ता है। इतिहास लेखन भी बहुत हद तक दुराग्रहों से भरा होता है। कश्मीर के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही है। पर यक्ष प्रश्न यह कि कौन समझना चाहता है कश्मीर को, कशमीरियत को और उसके दर्द को। बहरहाल 1947 में ब्रिटिश शासन की समाप्ति के साथ ही श्प्दकपंद प्दकमचमदकमदज ।बज 1947श् लागू हो गया जिसने 562 भारतीय राजे-रजवाड़ों और रियासतों को स्वतंत्रता दी कि वे अपनी इच्छानुसार भारत, पाकिस्तान अथवा स्वतंत्र इकाई होने का निर्णय ले सकते हैं। जम्मू-कश्मीर एक मुस्लिम बाहुल्य किंतु हिंदू राजा के अधीन था। तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने स्वतंत्र देश का विकल्प चुना। पाकिस्तान की बदनीयत के चलते अंततः राजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय की सशर्त सहमति दे डाली। 26 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया।
पाकिस्तानी सेना समर्थित पठान कबिलाइयों ने इससे पूर्व ही कश्मीर घाटी के एक हिस्से पर कब्जा जमा लिया था जो आज भी भारत के पास नहीं है। कश्मीर ही पहले भारत-पाक युद्ध का कारण 1947 में बना। बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ का इसमें हस्तक्षेप हुआ। युद्ध विराम अवश्य हुआ लेकिन तब से अब तक समस्या यथावत बरकरार है और समय-समय पर विकराल रूप ले लेती है। इसमें अब न तो किसी प्रकार की चर्चा संभव है, न ही ऐसा कोई प्रयास भारत को स्वीकार होगा कि आखिर कश्मीर क्या चाहता है। आजादी के बाद से झेलम में इतना पानी, इतना खून बह चुका है कि अब इस मुद्दे को उठाना निजी मूर्खता होगी। इसलिए अब चर्चा का फोकस कश्मीर को अपना अभिन्न अंग बनाए रखने के प्रयासों में आई कमी और भविष्य में उन्हें कैसे सुधारा जाए, इस पर होनी जरूरी है। यहां यह समझा जाना परम आवश्यक है कि ना तो सैन्य बलों के सहारे और ना ही आर्थिक मदद के जरिए कश्मीर में अमन चैन की बहाली संभव है। वहां के हालात इस समय पूरी तरह बेकाबू हो चले हैं। सबसे बड़ी पहल कश्मीर की अवाम का विश्वास वापस जीतने से करनी होगी। पहल करनी होगी ऐसे प्रयासों की जिसके जरिए उनके घावों पर मरहम लगाया जा सके। उन्हें विश्वास दिलाया सके कि इस मुल्क पर उनका भी उतना ही हक है जितना किसी अन्य प्रांत के नागरिक का। उन्हें विश्वास में लेना होगा कि जिन शर्तों पर कश्मीर का भारत में विलय हुआ था, उनका सम्मान किया जाएगा, बशर्ते वे भी भारत के नागरिक होने का अपना दायित्व पूरी ईमानदारी से निभाएं। यहां मैं लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेहरू जी को लिखे एक पत्र का उल्लेख करना चाहता हूं। एक मई, 1956 को जेपी ने अपने पत्र में लिखा ‘From all the information I have, 95% of the kashmiri muslim do not wish to be or remain Indian citizens. I doubt therefore the wisdom of trying to keep people by force where they do not wish to stay. This cannot but have serious long term political consequences, through immediately it may help policy and please public opinion’ जेपी ने आजादी के मात्र नौ बरस बाद ही जो समझा वह आज का सबसे बड़ा सच है। अंध और उग्र राष्ट्रवाद का सहारा लेकर हमारे हरेक राजनीतिक दल ने इस समस्या को अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति का साधन मात्र बनाए रखा, नतीजा आज यह हमारे लिए नासूर बन चुका है। मैंने एक समय में कांची के शंकराचार्य स्व ़ जयेंद्र सरस्वती के निर्देश पर कश्मीरी विस्थापितों यानी कश्मीरी पंडितों के संगठन ‘पनुन कश्मीर’ और कश्मीर मामलों में मध्यस्थ नियुक्त किए गए स्व ़ केसी पंत के संग काम किया था। इस पृष्ठभूमि के चलते मुझे थोड़ी बहुत जानकारी इस विषय पर है। बहरहाल कश्मीर के विलय-समय जो करार नेहरू सरकार और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के मध्य हुआ, वह समय की विषम परिस्थितियों के अनुसार था। चूंकि स्वयं हिंदू राजा भारत संग विलय के पक्षधर ना थे, इसलिए नेहरू-पटेल ने उन्हें जो बेस्ट विकल्प हो सकता था, उसे लागू करने के लिए तैयार किया। अब लेकिन हालात उलट हैं। कश्मीर को भारत से अलग करने का सोचा भी नहीं जा सकता। ऐसे में प्रश्न उठता है कश्मीरी विलय के उस समझौते की शर्तों का क्या हो जिनके चलते भारत का अभिन्न हिस्सा होते हुए भी वह हमसे पृथक है। धारा 370 जो केंद्र सरकार को केवल रक्षा, वित्त और विदेशी मामलों में हस्तक्षेप करने, कानून बनाने का अधिकार देती है और धारा 35ए जो कश्मीरी नागरिकों को नौकरी, जायदाद, संपत्ति और रिहाईश के विशेष अधिकार देती है, साथ ही अन्य भारतीय संघ के नागरिकों को इससे वंचित करती है। विभाजन के समय जो भी हालात रहे हों, अब जो माहौल है उसमें यदि कश्मीर घाटी को भारत का अभिन्न हिस्सा बनाए रखना है तो इन दो धाराओं का कुछ ना कुछ करना आवश्यक है। हालांकि यह बेहद जटिल प्रक्रिया है। इसमें पहल करने से हर सरकार डरती आई है क्योंकि इसका भारी प्रतिरोध न केवल घाटी, पाकिस्तान बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी होना तय है। कठोर निर्णय लेने लेकिन वक्त अनुसार जरूरी हैं। ठीक इसी प्रकार घाटी में विस्थापित कश्मीरी पंडितों की भी वापसी बेहद जरूरी है। घाटी जितनी कश्मीरी मुस्लिमों की है, उतनी ही पंडितों की है। दशकों से जलावतनी के शिकार इन पंडित परिवारों का दर्द भी महसूसा जाना जरूरी है। कश्मीरी कवि डॉ ़ अग्नि शेखर का एक शेर इस प्रसंग पर है ‘जिन हालात में हम जिए, आप होते तो खुदकुशी कर लेते।’
अब बात युद्ध की। भारतीय सेना ने आतंकी संगठन जैश के ठिकानों पर हमला किया। उन्हें नेस्तानाबूद किया। यह परम आवश्यक था। हमारी सेना के साहस, शौर्य और पराक्रम को सलाम। लेकिन मुझे घोर आपत्ति है सोशल, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ में पढ़े जा रहे कसीदों पर। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो कोई युद्ध हमने जीत लिया हो। मानो इससे पहले ऐसा कभी हुआ ना हो। कमाल है विनोद अग्निहोत्री जी, अजीत अंजुम जी, आप जैसे विद्वान, देश के हालात को बारीकी से समझने वाले, इस पूरे घटनाक्रम के पीछे लोकसभा चुनाव की आहट को सुन सकने वाले, महबूबा मुफ्ती की सरकार में साझेदार रहे प्रधानमंत्री की प्रशंसा में अर्णव गोस्वामी बन गए हैं। मीडिया चैनलों के एंकर स्वयं योद्धा बन गए। चारण-भाट भी शायद ऐसा राजे-महाराजों की वंदना के दौरान न करते हों जैसा हमारे इन महारथियों ने कर दिखाया। बहरहाल यह तो पिछले कई बरसों से हम सभी देख-महसूस रहे हैं। आश्चर्य मिश्रित दुख मुझे अपने अजीज मित्रों के ट्वीट पर हुआ। अब यदि अजीत भाई, विनोद भाई भी अंध राष्ट्रवाद के वशीभूत हो ‘साधुवाद-साधुवाद’ कह उठेंगे तो फिर बचता क्या है?
बहुत बकैती हो ली, चलते-चलते सभी सुधीजनों से कुछ प्रश्न। भला मोदी जी को साढ़े चार साल पाकिस्तान को अपना छप्पन इंची सीना दिखाने में क्यों लग गए? महबूबा मुफ्ती संग सरकार क्यों बनाई और उससे क्या पाया? नवजोत सिद्धू के पाकिस्तान जाने में आपत्ति करने वाले मोदी जी के बगैर न्यौता नवाज शरीफ का मेहमान बनने पर कुछ बोलने से कतराते क्यों हैं? और भी बहुत प्रश्न हैं, जवाब लेकिन भक्त दे ना सकेंगे। अटल जी के लिखे से कुछ समझिएः-
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिल्सिम आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं।