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Editorial

कैसे इतना बदल गए केजरीवाल?

मेरी बात

आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सार्वजनिक जीवन में सादगी और सुचिता की बात कभी किया करते थे। वे तड़क -भड़क से कोसो दूर भी रहते थे। अन्ना आंदोलन के दौरान उन्हें नजदीक से देखने-परखने का अवसर जिस किसी को भी मिला, सभी ने पाया कि वे ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ के सिद्धांत पर चलने वाले व्यक्ति हैं। इस आंदोलन के दौरान मेरी अरविंद केजरीवाल और उनकी कोर टीम साथ निकटता रही। इस निकटता की बिना पर मैं कह सकता हूं कि या तो तब ‘असली’ अरविंद को पहचानने में मैंने और मुझ सरीखे उनके कई अन्य साथियों ने भूल करी, या फिर सत्ता पाने के बाद केजरीवाल में बदलाव आना शुरू हुआ जिसके चलते उनका व्यक्तित्व बीते 8 सालों में पूरी तरह परिवर्तित हो गया। अरविंद केजरीवाल मुझे आज यूं ही नहीं याद आ गए। बीते कुछ अर्से से उनके सरकारी आवास के पुनर्निर्माण और उसकी साज सज्जा पर 52 करोड़ खर्च किए जाने की बात सुर्खियों में छाई हुई है। आम आदमी के सपनों को धरातल पर उतारने के उद्देश्य से गठित राजनीतिक दल ‘आम आदमी पार्टी’ सरकारी धन के इस अपव्यय को सही ठहराने का हर प्रयास करती नजर आ रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पानी पी-पी कर कोसने वाले, उद्योगपति गौतम अडानी संग मोदी के रिश्तों को लेकर, प्रधानमंत्री की कथित शाही जीवन शैली को लेकर संसद से सड़क तक धुआंधार भाषण देने वाले मेरे अभिन्न मित्र संजय सिंह तक इस 52 करोड़ की लूट को सही ठहराने का हर संभव प्रयास करते जब मुझे नजर आए तो लगा इन ‘क्रांतिवीरों’ का पुराना साथी होने के नाते इस पर अपनी बात मुझे सार्वजनिक पटल पर रखनी चाहिए। 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनावों से ठीक पहले भारतीय राजनीति से भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने का संकल्प लिए गठित हुई ‘आम आदमी पार्टी’ ने जनता जनार्दन को पार्टी से जोड़ने के लिए एक अभियान चलाया था। इस अभियान के दौरान पार्टी का सदस्य बनने के इच्छुक लोगों से एक संकल्प पत्र भरवाया गया था। केजरीवाल एंड टीम शायद अब इस संकल्प पत्र को भूल चुके होंगे। मुझे लेकिन याद है। इसमें लिखा था- ‘आम आदमी पार्टी कोई पार्टी नहीं है, इस देश की राजनीति को पारदर्शक और स्वच्छ करने के लिए एक राजनीतिक क्रांति है। यह आजादी की दूसरी लड़ाई है। यह भ्रष्टाचार, घरानेशाही और आपराधिक जैसी बातों से राजनीति को आजाद करने की लड़ाई है। इसलिए इसमें किसी भी प्रकार का निजी स्वार्थ बहुत बड़ी बाधा बन सकता है। इसलिए अपने मन को अच्छी तरह टटोलकर देख लें कि मन के किसी कोने में कोई पद पाने की लालसा या किसी कमेटी का सदस्य बनने या चुनाव में टिकट पाने की तमन्ना तो नहीं है? ऐसे में आप देशभक्ति का काम नहीं कर पाएंगे और कल आपकी इच्छापूर्ति नहीं हुई तो आप दुखी होंगे। दुखी होकर आप पार्टी में तनाव निर्माण करोगे जो देशद्रोह जैसा ही होगा। क्या आप निःस्वार्थ भाव से देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तैयार हैं?

यदि हां, तभी संकल्प पत्र भरें।’ दिल्ली की जनता को सरल भाषा में लिखा गया यह संकल्प पत्र लुभाने में कामयाब रहा और केजरीवाल कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनाने में सफल रहे। उसी कांग्रेस के समर्थन से जिसके राज में हुए कथित भ्रष्टाचार की मुखालफत करने के लिए अन्ना हजारे ने 2011 में अपना आंदोलन शुरू किया था। केजरीवाल के चरित्र में विचलन की शुरुआत यहीं से होती है। भले ही उनके नेतृत्व वाली पहली सरकार का पतन मात्र 49 दिनों में हो गया, इन 49 दिनों के सत्ता सुख ने आंदोलनकारी केजरीवाल को पूरी तरह बदलने का काम कर दिखाया। अब शुचिता, साध्य पाने के लिए साधनों की पवित्रता, भ्रष्टाचार, आपराधिक छवि के नेताओं से परहेज आदि सभी आदर्शवादी बातों को त्याग केजरीवाल हर कीमत पर सत्ता पाने और उसमें बने रहने की उस राह पर चल पड़े जिसमें उनके हमराहगीर बतौर पहले से ही स्थापित राजनीतिक दलों के नेता शामिल थे। 52 करोड़ के महल में अब निवास कर रहे अरविंद और उस अरविंद में जमीन-आसमान का अंतर है जिसने अपने पहले शपथ ग्रहण के समय अपनी छोटी-सी मारुति वैगनआर कार में सफर किया था। केजरीवाल राजनीति में आने से पूर्व भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी थे। प्रथम श्रेणी की इस प्रतिष्ठित सरकारी सेवा में रहने वाले केजरीवाल का घर तब गाजियाबाद के वैशाली इलाके में बनी एक बहुमंजिला सोसाइटी में था। तीन कमरां का एक छोटा-सा फ्लैट। मुझे याद है जब एक बार मैं किसी बैठक के सिलसिले में उनके घर गया था तो मुझे पानी पीने का सौभाग्य उनकी मां के हाथों प्राप्त हुआ था। तब मैं एक आईआरएस अफसर की सादगी देख भाव-विभोर हो गया था। संभवतः उनके यहां कोई घरेलू सहायक तक तब नहीं था। बेहद सादगीभरा जीवन बिताने वाला व्यक्ति का 52 करोड़ अपने सरकारी आवास पर खर्च करना उसकी उस नई मानसिकता का परिचय देता है जो उसे आमजन से, नैतिक मूल्यों से और हर उस आदर्श से दूर ले जाती है जिनको आगे कर, जिनकी भारतीय राजनीति में पुनर्स्थापना का संकल्प लेकर वे राजनीति में आए थे। अपने गठन के बाद से ही ‘आम आदमी पार्टी’ को नाना प्रकार के विचलनों का शिकार होते हम सभी ने देखा। चाहे वह दागी चरित्र के व्यक्तियों को चुनाव में प्रत्याशी बनाना रहा हो या फिर एनआरसी और सीएए जैसे संवेदनशील मुद्दों पर खामोशी अख्तियार करना रहा हो, ‘आप’ ने बीते आठ वर्षों के दौरान समझौते दर समझौते कर यह तो स्पष्ट कर ही दिया था कि अब उसमें और अन्य राजनीतिक दलों में कोई विशेष अंतर रह नहीं गया है। इन विचलनों के बावजूद निजी तौर पर मेरा मोह इस पार्टी और अपने पुराने साथियों संग बना रहा तो इसका एक बड़ा कारण दिल्ली में ‘आप’ सरकार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी जैसे बुनियादी महत्व के मुद्दों पर बेहतर काम करना और एक ईमानदार सरकार देने का प्रयास करना रहा। दिल्ली के सरकारी स्कूलों का कायाकल्प इन बीते आठ वर्षों के दौरान होते हमने देखा। मोहल्ला क्लीनिकों के जरिए आमजन को बड़ी राहत मिलना। पेयजल को झुग्गी-झोपड़ियों तक पहुंचाना। बड़े सरकारी अस्पतालों का निर्माण इत्यादि कई ऐसे कार्य ‘आप’ सरकार ने किए हैं जिनकी प्रशंसा मुक्तकंठ से की जानी चाहिए। सच लेकिन यह भी है कि यही सब कुछ करने के लिए जनता ने ‘आप’ को दो बार प्रचंड बहुमत से चुना। तमिलनाडु में डीएमके सरकार, आंध्र प्रदेश में वाईएस
जगनमोहन रेड्डी सरकार और तेलंगाना की केसीआर सरकार भी ऐसा ही सब कुछ कर रही है।

ओड़िशा में बीते 23 वर्षों से नवीन पटनायक सत्ता में काबिज हैं। उन्हें बार-बार जनता यदि सत्ता सौंप रही है तो जाहिर है उन्होंने भी आमजन को राहत पहुंचाने वाले कार्य किए ही होंगे। यहां प्रश्न उन नैतिक मूल्यों का है जिनकी बात केजरीवाल किया करते थे। क्या उच्च आदर्शवाद की बातें छलावा मात्र थीं? सत्ता पाने का हथियार थीं? शायद ऐसा ही था। अरविंद के साथ जुड़े बहुत से स्वप्नजीवियों का अब यही मानना है। केजरीवाल भीतर तानाशाही प्रवृत्ति तो निश्चित तौर पर अन्ना आंदोलन के दौरान ही हमें देखने को मिलने लगी थी लेकिन तब अरविंद मुझ सरीखे अपने हर साथी के हीरो थे। हीरो के अवगुणों को पहचानने से उसके प्रशंसक हमेशा बचा करते हैं, नजरअंदाज करने का प्रयास करते हैं। आज समझ में आता है कि बदले केजरीवाल नहीं हैं, वे तो शुरुआती दिनों से ही ऐसे थे। उन्हें देखने का हमारा दृष्टिकोण, हमारी समझ अब बदल गई है। केजरीवाल के करीबी और अन्ना आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे मयंक गांधी के शब्दों में- ‘How did a Man-A man who was once my Hero-suddenly become the most disliked Indian? How did a protagonist steering national-change become apeople’s antagonist?… Having closely observed Arvind, I think that some of his biggest failures have been his insecurity, impatience, anger, lack of faith in others and most importantly the arrogant belief that he knows best, and worse, that no one else does.'(एक आदमी जो कभी मेरा हीरो था-अचानक सबसे नापंसद किया जाने वाला भारतीय कैसे बन गया? राष्ट्रीय परिवर्तन का नेतृत्व करने वाला एक नायक लोगों का विरोधी कैसे बन गया?…अरविंद को करीब से देखने के बाद, मुझे लगता है कि उनकी कुछ सबसे बड़ी असफलताएं उनकी असुरक्षा, अधीरता, क्रोध, दूसरों में विश्वास की कमी और सबसे महत्वपूर्ण अहंकारी विश्वास है कि वही सब कुछ जानते हैं, इससे भी ज्यादा घातक यह कि वह मानते हैं कि दूसरा कोई कुछ नहीं जानता।) आम आदमी पार्टी, उसके नेतागण, भले ही कुछ कहें, सरकारी धन के इस कदर दुरुपयोग को वे कहीं से जायज नहीं ठहरा सकते। इस अकेले एक प्रकरण ने केजरीवाल और उनकी सरकार द्वारा किए गए हर अच्छे काम को मटियामेट कर डाला है।

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