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Editorial

इतिहास बड़ा निर्मम होता है-2

मेरी बात
 

न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ के प्रगतिशील विचारों और उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश रहते उनके द्वारा दिए गए कुछ फैसलों चलते आमजन से लेकर खासजन तक उनके प्रति भारी सम्मान और 2022 में उनके भारत का मुख्य न्यायाधीश बनने पर पहाड़ सरीखी जनअपेक्षाऐ उनसे होनी स्वभाविक थीं। माना जा रहा था कि चन्द्रचूड़ अपने कार्यकाल के दौरान खतरे की जद् में जा पहुंची न्यायपालिका की स्वतंत्रता, तेजी से गिर रही गरिमा और लोकतांत्रिक मूल्यों के अवमूल्यन, तीनों को ही रोकने और उन्हें पुनर्स्थापित करने का काम करेंगे। उनके कार्यकाल का बारीक विश्लेषण लेकिन ऐसा कुछ भी न कर पाने की तस्वीर सामने रखता है। वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे का एक साक्षात्कार अंग्रेजी पत्रिका ‘द वायर’ में प्रकाशित हुआ है। साक्षात्कारकर्ता ख्याति प्राप्त पत्रकार करण थापर हैं। यह साक्षात्कार न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ के कार्यकाल की पड़ताल कर यह प्रमाणित करने का काम करता है कि चन्द्रचूड़ बतौर मुख्य न्यायाधीश ऐसा कुछ भी कर पाने में विफल रहे जिस चलते इतिहास उन्हें न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना समान सम्मानपूर्वक याद कर पाएगा। दवे के शब्दों में -Well, I must say that he has disappointed me very deeply and I must tell you that I did write to Chief Justice Chandrachud a congratulatory letter on his appointment in 2022 and did say that he has great qualities and abilities which he must exploit to really made his tenure  successful… I even suggested some pointers to him. I mean, with my experience as a lawyer for almost 44 years then and I thought that perhaps Chief Justice would end up really making an extremely successtul tenare as the Chief Justice of India. But I must say that my expectations have been seriously belied and as I had in fact told you in an interview before he took over the office, I did express same apprehensions that he may not be able to really fulfil his task successfully so, I think in posterity I have been proved to be right (मैं स्वीकारता हूं कि उन्होंने मुझे बेहद निराश किया है। मैं आपको बताना चाहूंगा कि मैंने मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ को 2022 में उनकी नियुक्ति पर एक बधाई पत्र लिखा था और मैंने उनसे कहा था कि उनमें विलक्षण गुण और क्षमताएं हैं जिनका उन्हें फाइदा उठाना चाहिए जिससे उनका कार्यकाल सफल रहे…मैंने उन्हें कुछ सुझाव भी दिए थे। मेरा मतलब है। एक वकील के रूप में लगभग 44 वर्षों के अनुभव के आधार पर मुझे लगा था कि मुख्य न्यायाधीश वास्तव में भारत के मुख्य न्यायाधीश बतौर एक अत्यंत सफल कार्यकाल पूरा करेंगे। लेकिन मुझे कहना होगा कि मेरी अपेक्षाएं गलत सिद्ध हुई। जैसा मैंने उनके कार्यभार संभालने से पहले आपको दिए एक साक्षात्कार में कुछ आशंकाएं व्यक्त की थीं कि वास्तव में वे अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक करने में सक्षम नहीं होंगे, मेरी आशंकाएं सही साबित हुईं।)

दुष्यंत दवे सरीखे वकील का कथन कि न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने उन्हें बेहद निराश किया, खासा महत्वपूर्ण कथन है। दवे ने करण थापर संग अपने पहले साक्षात्कार में आशंका व्यक्त की थी कि चन्द्रचूड़ राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मामलों में निराश करेंगे। बतौर मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ द्वारा राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मामलों में दिए गए फैसले दुष्यंत दवे को सही प्रमाणित करते हैं। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ उच्चतम् न्यायालय की उस पांच सदस्यीय पीठ के अध्यक्ष थे जिसने जम्मू-कश्मीर राज्य से धारा 370 हटाए जाने को सही माना था। यह सर्वविदित है कि भारतीय जनता पार्टी धारा 370 का हमेशा विरोध करती आई है और 2014 में उसके चुनावी घोषणा पत्र में इस धारा को सत्ता में आने पर हटाए जाना का वायदा किया गया था। यह भी लेकिन स्थापित तथ्य है कि जम्मू-कश्मीर का भारत में जिन शर्तों के आधार पर विलय किया गया था उसमें धारा 370 शामिल थी। जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह के साथ हुए इस समझौते के अनुसार भारत की संसद अथवा भारत के राष्ट्रपति तक को यह अधिकार नहीं है कि वह इन शर्तों संग कोई छेड़छाड़ कर सके। केंद्र सरकार ने राजनीतिक दृष्टि से अति संवेदनशील इस मुद्दे पर लेकिन फैसला लिया जिसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने लेकिन इस पर याचिकाकर्ताओं की एक नहीं सुनी और केंद्र सरकार के फैसले पर अपनी मोहर लगा राजा हरि सिंह संग हुए समझौते को दरकिनार कर दिया जो मेरी दृष्टि से न्यायसंगत फैसला नहीं कहा जा सकता है। एक अन्य मामला भी वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान के लिए बेहद कष्टदायी था जिसमें उच्चतम् न्यायालय ने सरकार को, भाजपा को भारी राहत पहुंचाई। यह मामला महाराष्ट्र के एक न्यायाधीश बृजगोपाल हरकिशन लोया की रहस्यमयी परिस्थितियों में हुई मौत से जुड़ा है। लोया एक अति संवेदनशील मामले पर फैसला सुनाने वाले थे। मामला सोहराबुद्दीन शेख नामक एक अपराधी की कथित पुलिस एनकाउंटर में हुई मौत का था। इस एनकाउंटर के तार गुजरात के बड़े राजनेताओं जिनमें अमित शाह (वर्तमान गृह मंत्री) से जुड़े थे और इन सभी पर मुकद्दमा चल रहा था। 15 दिसंबर, 2014 के दिन इस मुकदमें में लोया फैसला सुनाने वाले थे। 1 दिसंबर को लेकिन नागपुर में वे मृत पाए गए। उनके परिवार ने इसे हत्या तब करार दिया था। एक विशेष जांच दल गठित करने की मांग तब उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई थी। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायूमर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खण्ड पीठ जिसमें न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ भी शामिल थे, ने इस याचिका को खारिज कर दिया था। लोया की मृत्यु का राज इस तरह से दफन कर दिया गया। बतौर मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने चुनावी बांड मामले में फैसला सुनाते हुए केंद्र सरकार की इस स्कीम को रद्द कर भारी वाहवाही बटोरी जरूर लेकिन यहां पर भी वह पूरे मामले की तह में गए नहीं। उन्होंने चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए इसे रद्द कर दिया था। इतना ही नहीं केंद्र सरकार की सारी दलीलों को एक सिरे से खारिज करते हुए न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने चुनावी बांड खरीदने वालों और चुनावी बांड पाने वाली राजनीतिक पार्टियों के नाम भी सार्वजनिक करने का आदेश दिया था। 2024 के आम चुनाव से ठीक पहले इस आदेश चलते जब चंदा देने वालों और लेने वालों की सूची सामने आई तो भाजपा की खासी फजीहत हुई थी। वकील प्रशांत भूषण ने इस फैसले के बाद न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ के समक्ष एक जनहित याचिका में यह मांग की थी कि पूरे प्रकरण की जांच करने के लिए एक विशेष जांच दल उच्चतम न्यायालय की देख-रेख में गठित होना चाहिए ताकि इस योजना का सच सामने आ सके। यहां पर न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ कठोर और न्यायसंगत फैसला लेने से चूक गए। उन्होंने प्रशांत भूषण को सुने बगैर ही यह याचिका खारिज कर एक बार फिर से सत्तारूढ़ पार्टी को बड़ी राहत देने का काम किया। ऐसे ही कई मामले और भी हैं जहां न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ कमजोर पड़ते नजर आते हैं। 2017 में ‘लव जेहाद’ के नाम से प्रचारित किया गया एक मामला न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ के उन फैसलों में शुमार किया जाएगा जिनके चलते इतिहास उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करेगा। यह मामला केरल की एक हिंदू लड़की अखिला अशोकन और एक मुस्लिम लड़के के प्रेम विवाह का है जिसे लेकर तब बहुत हो हल्ला मचा था। मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ उस दो सदस्यीय पीठ में शामिल थे जिसने इस प्रेम विवाह की जांच नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) से करा डाली। हालांकि बाद में उच्चतम न्यायालय ने इस विवाह को सही करार दिया था लेकिन एक हिंदू लड़की और मुसलमान लड़के के प्रेम विवाह की जांच एनआईए से कराए जाने का औचित्य समझ से परे है। हां चूंकि यह केंद्र में सत्तारूढ़ दल के एजेंडे को सुहाने वाला मामला है इसलिए इस पर उच्चतम न्यायालय का फैसला शक्तिशाली विधायकी के दबाव में लिया फैसला स्पष्ट नजर आता है। न्यायिक कार्यों से इतर यदि नजर डालें तो भी न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ से जो अपेक्षाएं थी उन पर वे खरा नहीं उतरे हैं। अक्टूबर, 2022 में जब वे भारत के प्रधान न्यायाधीश बने थे तब लगभग साढ़े चार करोड़ मामले देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित थे। 2024 में जब वे सेवानिवृत्त हुए, लम्बित मामलों की संख्या घटने के बजाए पांच करोड़ दस लाख जा पहुंची है। इसी प्रकार न्यायकूर्ति चन्द्रचूड़ उच्च एवं उच्चतम न्यायालयों में न्यायधीशों की नियुक्ति के मामले में केंद्र सरकार द्वारा देरी किए जाने प्रकरण को भी सुलझा पाने में विफल रहे। कुल मिलाकर मेरी नजर और समझ में इतिहास न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ के कार्यकाल को औसत करार देगा और चन्द्रचूड़ ऐसे मुख्य न्यायधीश बतौर याद रखे जाएंगे जो शक्तिशाली सत्ता के समक्ष कमजोर साबित हुए। लेखक और कवि अशोक कुमार पाण्डेय की चंद पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करता हूं कि ‘जिसके हाथों में न्याय का कसम है उसे भी कहीं से लेनी होती है पगार वह सबसे अधिक आजाद लगता हुआ सबसे अधिक गुलाफ हो सकता है साथी।’

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