पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-9
इतिहास के जरिए वर्तमान को समझा जा सकता है, यहां तक की भविष्य की घटनाओं का शर्तिया अनुमान तक लगाया जा सकता है। यह स्थापित सत्य है, तथ्य है कि बीते हुए समय को वापस नहीं लाया जा सकता है लेकिन इस बीते हुए समय यानी अतीत के निष्पक्ष, गहन अध्ययन के जरिए वर्तमान संग संवाद और भविष्य का अनुमान निश्चित ही स्थापित किया जा सकता है। इतिहास कभी भी संपूर्ण सत्य नहीं होता, आंशिक सत्य होता है। इतिहासकार संपूर्ण अतीत को समेट नहीं सकता है। वह केवल एक कालखण्ड की घटनाओं का अध्ययन कर उसका विश्लेषण अपनी समझ और अधिकांश समय अपनी विचारधारा से प्रभावित हो करता है इसलिए कई ऐसे तथ्य उसके विश्लेषण से छूट जाते हैं, छोड़ दिए जाते हैं, जो उसकी समझ अथवा उसकी विचारधारा संग मेल नहीं खाते हैं। इतिहास की यात्रा (March of History) के साथ तालमेल न बैठा पाने वाली कई महत्वपूर्ण घटनाओं को, अपने समय के महत्वपूर्ण किरदारों को, इतिहासकार नजरअंदाज करते आए हैं। इसे हम समानांतर इतिहास कह सकते हैं जो मुख्यधारा के इतिहास संग अपना गठजोड़ न बना पाया, इसलिए उपेक्षित रह गया। अमेरिकी पत्रकार, इतिहासकार जान नोबल विल्फोर्ड का कथन है ‘The Columbus story surely confirms the axiom that all work of history are interim reports. What people did in the past is not preserved in amber, a moment captured and immutable through the ages. Each generation looks back and, drawing from its own experiences, presumes to find patterns that illuminate both past and present. This is natural and proper. A succeeding generation can ask questions of past that those in the past never asked themselves. Columbus could not know that he had ushered in what we call the ‘Age of discovery, with all its implications, any more than we can know what two world wars, nuclear weapens, the collapse of colonial empires, the end of cold wars, and the begining of space travel will mean for people centuries from now. Perceptions change, and so does our understanding of the past’ (कोलंबस की कहानी निश्चित रूप से इस स्वयं सिद्ध को प्रमाणित करती है कि इतिहास पर लिखा गया सभी कुछ अंतरिम है, अंतिम नहीं। अतीत संरक्षित नहीं होता है कि उसे जब चाहा देख लिया जाए। हर नई पीढ़ी उसे पीछे मुड़कर इतिहास के जरिए देखती है और अपने अनुभवों और समझ के अनुसार उसका आकलन करती है जिससे की वह अतीत के सहारे वर्तमान को समझ सके। वह अतीत से जुड़े ऐसे सवाल पूछ सकती है जो पहले कभी नहीं पूछे गए। ठीक वैसे ही जैसे दुनिया की तलाश में निकले कोलंबस यह नहीं जानता था कि वह ‘खोज के युग’ की शुरुआत कर रहा है। इसी प्रकार हम आज नहीं जानते कि दो विश्व युद्ध, परमाणु हथियार, साम्राज्यों का पतन, शीत युद्ध की समाप्ति, अंतरिक्ष की यात्राएं आदि का अर्थ सदियों बाद की पीढ़ियों के लिए क्या होगा? धारणाएं बदलती रहती हैं और उसके साथ ही अतीत को लेकर नई पीढ़ी की समझ भी)।
1857 के गदर बाद ठीक ऐसा ही बहुत कुछ हुआ। इस ‘बहुत कुछ’ का बहुत कुछ इतिहास की यात्रा में दर्ज हुआ तो ‘काफी कुछ’ उपेक्षित रह गया। ‘लोकमान्य’ की उपाधि पाए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाल गंगाधर तिलक की कार्यशैली का बड़ा प्रभाव विनायक दामोदर सावरकर नाम के एक बालक पर उस दौर में पड़ा जब अपने उग्र विचारों और उससे भी कहीं उग्र लेखनी के जरिए तिलक ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ भारतीय जनमानस को तैयार करने का काम कर रहे थे। तिलक और सावरकर के रिश्तों और स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर की भूमिका का निष्पक्ष आकलन करने के लिए हमें इन दोनों के मध्य के ‘पुल’ को समझना होगा। यह ‘पुल’ था भारतीय जातीय व्यवस्था।
बाल गंगाधर तिलक (केशव गंगाधर तिलक) चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। ‘चितपावन’ ब्राह्मण समाज को अट्ठारहवीं शताब्दी तक महाराष्ट्र की ब्राह्मण व्यवस्था में ‘देशहस्त’ ब्राह्मणों की तुलना में दोयम दर्जे का माना जाता था। परशुराम द्वारा दीक्षित कहलाए जाने वाले चितपावन ब्राह्मणों का स्तर छत्रपति शिवाजी की 1680 में मृत्यु पश्चात तब खासा बढ़ गया था जब मराठा सत्ता पर शिवाजी के प्रधानमंत्री रहे पेशवाओं का अधिकार हो गया। पेशवा भी चितपावन ब्राह्मण थे। शिवाजी की मृत्यु पश्चात मराठा सत्ता के सिंहासन पर उनके पौत्र साहू जी महाराज की ताजपोशी अवश्य हुई लेकिन सत्ता की असल कमान पेशवाओं के हाथों चली गई। 1680 से 1818 तक महाराष्ट्र की सत्ता में चितपावन ब्राह्मणों का वर्चस्व बना रहा। ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तार चलते 1818 में पेशवा की सत्ता और चितपावन ब्राह्मणों का वर्चस्व समाप्त हो गया। लगभग डेढ़ सौ बरस तक सत्ता में साझेदारी चलते चितपावन ब्राह्मण समाज न केवल आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से मजबूत हुआ बल्कि शिक्षा का भी इस समाज में विस्तार हुआ जिसका लाभ अंग्रेज सत्ता के दौरान इस समाज को मिला था।
ब्रिटिश हुकूमत अपने साथ नई शिक्षा प्रणाली लेकर आई। चितपावन ब्राह्मणों ने इसे स्वीकार कर अपने लिए ब्रिटिश सत्ता में विशेष जगह बना डाली। बॉम्बे प्रेसिडेंसी (आज का महाराष्ट्र) के सरकारी पदों में सबसे अधिक चितपावन ब्राह्मण नौकरी पा गए। चितपावन ब्राह्मणों को ब्रिटिश सत्ता ने हमेशा शंका की दृष्टि से देखा क्योंकि पेशवा राज के दौरान सत्ता संभालने वाले समाज को अंग्रेजों के नीचे रहकर नौकरी करना सहन नहीं हो पा रहा था।
बॉम्बे प्रेसिडेंसी के तत्कालीन गवर्नर सर रिचर्ड टेम्पल ने तत्कालीन वायसराय रॉबर्ट लायटन (Robert Lytton) को लिए एक पत्र में पश्चिम भारत के ब्राह्मणों, विशेषकर चितपावन ब्राह्मणों की बाबत लिखा ‘…On the other hand, education is certainly making their minds restless…They will never be satisfied till they regain their ascendancy in the country, as they had it last century…never have I know in India, a national and political ambition, so continous, so enduring, so far reaching, so utterly impossible for us to satisty, as that of the Brahmins of western india, especially the dominant section of the ‘Concan-ust’ Brahamins.’ (शिक्षित होने के चलते इनका मस्तिष्क आंदोलित होने लगा है…जब तक इनको इनकी खोई हुई सत्ता वापस नहीं मिल जाती, ये संतुष्ट होने वाले नहीं हैं…मुझे पता नहीं था कि भारतीयों के भीतर राष्ट्रवादी और राजनीतिक महत्वाकांक्षा इतनी तेज हो चुकी है जिसे संतुष्ट कर पाना, विशेषकर पश्चिमी ब्राह्मणों और उनमें भी कोंकणी ब्राह्मणों को, हमारे लिए लगभग असंभव है) सर रिचर्ड टेम्पल का यह पत्र उस दौरान का है जब बाल गंगाधर तिलक अपने दोनों समाचार पत्रों ‘मराठा’ और ‘केसरी’ के जरिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वर बुलंद करने लग गए थे।
बॉम्बे प्रेसिडेंसी के तत्कालीन गवर्नर सर रिचर्ड टेम्पल ने तत्कालीन वायसराय रॉबर्ट लायटन (Robert Lytton) को लिए एक पत्र में पश्चिम भारत के ब्राह्मणों, विशेषकर चितपावन ब्राह्मणों की बाबत लिखा ‘…On the other hand, education is certainly making their minds restless…They will never be satisfied till they regain their ascendancy in the country, as they had it last century…never have I know in India, a national and political ambition, so continous, so enduring, so far reaching, so utterly impossible for us to satisty, as that of the Brahmins of western india, especially the dominant section of the ‘Concan-ust’ Brahamins.’ (शिक्षित होने के चलते इनका मस्तिष्क आंदोलित होने लगा है…जब तक इनको इनकी खोई हुई सत्ता वापस नहीं मिल जाती, ये संतुष्ट होने वाले नहीं हैं…मुझे पता नहीं था कि भारतीयों के भीतर राष्ट्रवादी और राजनीतिक महत्वाकांक्षा इतनी तेज हो चुकी है जिसे संतुष्ट कर पाना, विशेषकर पश्चिमी ब्राह्मणों और उनमें भी कोंकणी ब्राह्मणों को, हमारे लिए लगभग असंभव है) सर रिचर्ड टेम्पल का यह पत्र उस दौरान का है जब बाल गंगाधर तिलक अपने दोनों समाचार पत्रों ‘मराठा’ और ‘केसरी’ के जरिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वर बुलंद करने लग गए थे।
1890 में कांग्रेस में शामिल हो चुके 34 वर्षीय तिलक ने जल्द ही स्वराज की अपनी मांग और अपने उग्र तेवरों के चलते कांग्रेस भीतर अपना दबदबा कायम कर लिया था। तिलक और उनके करीबियों की कर्मभूमि पेशवा काल की राजधानी पूना थी। 25 बरस की उम्र में तिलक ने पूना में एक नए अंग्रेजी स्कूल की नींव रखी। साथ ही में दो अखबार, अंग्रेजी में ‘मराठा’ और मराठी में ‘केसरी’ का प्रकाशन भी शुरू किया। तिलक और उनके साथी राष्ट्रवादियों की डकैक्किन एडुकेशन सोसाइटी (Deccan Education Society) ने स्कूल के बाद उच्च शिक्षा के लिए एक कॉलेज की स्थापना 1885 में की। आज यह कॉलेज ‘फर्गुशन कॉलेज (Fergussen College) देश के ख्याति प्राप्त शिक्षण संस्थानों में एक है।
तिलक का व्यक्तित्व खासा विरोधाभासी था। एक तरफ वह ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ अपने दोनों अखबारों को माध्यम बना राष्ट्रीय चेतना उभारने का काम कर रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ भारतीय समाज, विशेषकर हिंदू सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त कुरीतियों को वह अपनी लेखनी के जरिए समर्थन देने का काम कर रहे थे। 1891 में बने कानून ‘The age of consent Act’ (सहमति की आयु अधिनियम- 1891) का तिलक ने पुरजोर विरोध करते हुए इसे ब्रिटिश सत्ता द्वारा हिंदुओं के धार्मिक और सामाजिक अधिकारों में हस्तक्षेप करार दिया था। इस कानून के बाद विवाहित और अविवाहित, सभी के लिए संभोग के लिए सहमति की आयु दस वर्ष से बढ़ाकर बारह वर्ष कर दी गई थी। इस कानून को लाने का तात्कालिक कारण 1889 में एक दस बरस की लड़की फूलमोनी दास की मौत होना था जिसके संग उसके पति ने जबरन शारीरिक संबंध स्थापित किए थे। तिलक ने इस कानून का पुरजोर विरोध किया था। तिलक भारतीय समाज में पसरी एक दूसरी सामाजिक कुरीति अस्पृश्यता (जाति आधारित छुआ-छूत) के भी पक्षकार थे। बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेज सत्ता का विरोध करने के लिए धर्म को अपना हथियार बनाया। आज जो हम चौतरफा ‘हिंदू जागरण’ का नजारा देख रहे हैं। सार्वजनिक स्थलों पर धार्मिक आयोजन, अपनी धार्मिक आस्था का भौड़ा, अभद्र प्रदर्शन सड़कों पर करने का प्रचलन इत्यादि दरअसल हमारे डीएनए का वह हिस्सा है जिसके तार हमारे अतीत से जुड़ते हैं। बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेज सत्ता का प्रतिकार करने के लिए धर्म को बतौर हथियार इस्तेमाल किया। अपने दोनों समाचार पत्रों के सहारे उन्होंने ‘हिंदू नवजागरण’ की नींव रखी जो अब एक बुलंद इमारत में तब्दील हो चली है। 1818 में पेश्वा साम्राज्य के पतन बाद महाराष्ट्र में सार्वजनिक रूप से त्यौहार का आयोजन लगभग समाप्त हो चला था। हिंदू और मुसलमान अपने त्यौहारों को धूमधाम से मनाते जरूर थे लेकिन अपने घरों की चारदीवारी के भीतर। 1890 के आस-पास पुणे में एक बार फिर से गणेशोत्सव को बड़े पैमाने पर आयोजित किया जाने लगा। इस मुहिम को तिलक ने जमकर प्रोत्साहित किया। 1894 में उन्होंने स्वयं इस मुहिम की कमान संभाल ली और जल्द ही वे हिंदूवादी नेता के बतौर स्थापित हो गए। यह वही दौर था जब सर सैय्यद अहमद खान ने मुस्लिमों के भीतर यह भावना बैठाने में सफलता पानी शुरू कर दी थी कि हिंदू बाहुल्य वाले देश में मुसलमानों के हित अंग्रेजों संग वफादारी में ही सुरक्षित रह सकते हैं। एक तरफ सर सैय्यद अहमद सरीखे कट्टरपंथी मुस्लिम अपनी कौम को अल्पसंख्यक होने का भय दिखाकर अपनी राजनीति चमका रहे थे तो दूसरी तरफ बाल गंगाधर तिलक सरीखे नेता हिंदुत्व को आधार बना अंग्रेज व्यवस्था के खिलाफ जनता को तैयार कर रहे थे। इसी दौर में 1857 के गदर से प्रभावित एक बड़ा वर्ग सशक्त क्रांति के जरिए अंग्रेज सत्ता संग लोहा लेने के लिए अपनी-अपनी तैयारियों को अंजाम देने में जुट गया था। इन्हें राष्ट्रवादी क्रांतिकारी कहा जाता हैं। तिलक इस धारा के प्रति मोह अवश्य रखते थे लेकिन सशस्त्र क्रांति में सीधे तौर पर उन्होंने कभी भाग नहीं लिया। वे इस दृष्टि से हिंदू राष्ट्रवादी धारा के नायक कहे जा सकते हैं। अपने करीबी सहयोगी काका बापरिस्टा के कथन ‘स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, इसे हम लेकर रहेंगे’ को उन्होंने अपनी लड़ाई का मूलमंत्र बना सशस्त्र क्रांतिकारियों के प्रयासों को अपने अखबारों में खुलकर समर्थन दिया। 1908 में दो बंगाली क्रांतिकारियों खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने जब मुज्जफरपुर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की बम फेंक हत्या कर डाली तब तिलक ने ‘केसरी’ में इन क्रांतिकारियों का महिमामंडन कर ब्रिटिश हुकूमत को खुला चैलेंज देने का काम किया था। उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला और उन्हें छह बरस की सजा बर्मा की जेल में काटनी पड़ी थी। तिलक के उग्र तेवरों और हिंदू जागरण के प्रयास काल के दौरान बॉम्बे प्रेसिडेंसी (वर्तमान महाराष्ट्र) के नासिक जिले के कस्बे भागुर में एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में 1883 को एक बालक ने जन्म लिया जिसका नाम रखा गया विनायक दामोदर सावरकर।
क्रमशः