नेहरू के इस शानदार पत्र का जवाब वल्लभ भाई पटेल ने उतनी ही ईमानदारी से देते हुए कहा ‘मैं आपके स्नेह और आपकी भावनाओं से अभिभूत हूं। मैं पूरी ताकत और हृदय से आपकी भावनाओं का सम्मान करूंगा।…मेरा सौभाग्य था कि मैं बापू से उनके अंत से पहले लंबी बात कर पाया…उनकी सलाह भी हम दोनों को एक साथ बांधती है। मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि मैं अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन इस भावना से करूंगा। नेहरू और पटेल अब एकजुट हो देश के नव निर्माण में जुट गए। हैदराबाद का मसला अभी तक सुलझा नहीं था। निजाम उस्मान अली ने ब्रिटिश हुकूमत संग स्वतंत्र रिश्ता बनाए रखने के भरकस प्रयास 1947 में किए। उन्होंने एक प्रतिष्ठित वकील सर वाल्टर मोन्कटन को अपना सलाहकार नियुक्ति कर उन्हें हैदराबाद रियासत को ब्रिटिश कॉमनवेल्थ राष्ट्र बनाने की जिम्मेदारी सोंपी। सर वाल्टर ने लॉर्ड माउंटबेटन से कई दौर की वार्ता करी लेकिन माउंटबेटन तैयार नहीं हुए। उन्होंने सर वाल्टर को सलाह दी कि वे अपने मुव्वकिल को संविधान सभा में शामिल होने के लिए तैयार करें। इस पर सर वाल्टर का उत्तर था कि यदि निजाम पर ऐसा करने का दबाव बनाया गया तो वे पाकिस्तान संग विलय कर लेंगे।
नेहरू सरकार के समक्ष चुनौतियों का अंबार
पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-43
15 अगस्त, 1947 के बाद हैदराबाद रियासत में कानून- व्यवस्था की स्थिति तेजी से बिगड़ने लगी थी। कांग्रेस नेता लगातार भारत संग विलय को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से शिक्षा पाए वकील कासिम रिजवी के नेतृत्व में एक सशस्त्र संगठन ‘रज़ाकार’ रियासत में तेजी से उभरने लगा था जिसका उद्देश्य हैदराबाद का पाकिस्तान संग विलय कराना था। साथ ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में रियासत के तेलंगाना में किसान -मजदूर आंदोलन शुरू हो चला था। बड़े जमींदारों की जमीनों पर जबरन कब्जा कर उन्हें भूमिहीनों में बांटा जाने लगा जिसमें पूरे इलाके में भारी अराजकता फैल गई। जिन्ना की निजाम और रज़ाकारों को निरंतर सह मिल रही थी। ऐसे में जिन्ना ने लॉर्ड माउंटबेटन को चेतावनी देते हुए कहा कि ‘यदि हैदराबाद का जबरन भारत संग विलय कराने का प्रयास होता है तो पूरी दुनिया का मुसलमान लाखों की तादात में, इस प्राचीन मुस्लिम राजवंश की रक्षा के लिए खड़ा हो जाएगा’ मसले को शांतिपूर्वक सुलझाने के लिए निजाम और भारत सरकार के मध्य नवंबर 1947 में एक ‘यथास्थितिवादी समझौता’ (Stand still Agreement) हुआ जिसके अनुसार भारत और हैदराबाद रियासत के मध्य वही रिश्ता कायम रखने की बात कही गई जो ब्रिटिश सरकार और रियासत के मध्य 15 अगस्त, 1947 से पहले था। इस बीच वसीम कासिम और उसके संगठन रज़ाकार की ताकत बढ़ती चली गई और निजाम नाममात्र का शासक बनकर रह गए। हैदराबाद को लेकर भारत सरकार की सोच और नीति में भारी तब्दीली जून 1948 में लॉर्ड माउंटबेटन के गवर्नर जनरल पद से इस्तीफा दे वापस इग्लैंड जाने बाद देखने को मिलती है। हैदराबाद रियासत से जुड़े भारतीय इलाकां में रज़ाकारों ने छापेमारी शुरू कर दी थी जिससे भारी अशांति और असुरक्षा का माहौल बनने लगा था। वीपी मेनन के अनुसार भारत सरकार का आकलन था कि दो लाख हथियार बंद रज़ाकारों के साथ-साथ निजाम की नियमित सेना के 42,000 जवान और भारी तादात में मौजूद पठान लड़ाके रियासत में मौजूद थे। यह भी अफवाहें तेजी से फैलने लगी थीं कि हैदराबाद रियासत का विमान बॉम्बे, मद्रास, कलकत्ता और दिल्ली जैसे भारतीय शहरों में बमबारी कर सकता है’। भारतीय समाचार पत्रों में भी नेहरू सरकार की हैदराबाद नीति को लेकर आलोचना शुरू हो चली थी। वीपी मेनन इस पूरे परिदृश्य को लेकर कहते हैं ‘On 9 september after a careful evaluation of all considerations and only when it was clear that no other alternative remained open did the Government of India take the decision to send Indian troops into Hyderabad to restore peace and tranquility inside the state and a sense of security in the adjoining Indian territory’ (नौ सितंबर के दिन गहन विचार-विमर्श और मंथन पश्चात् जब यह तय हो गया कि भारत सरकार के समक्ष सैन्य हस्तक्षेप के अतिरिक्त कोई कल्प शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए बचा नहीं है, तब भारतीय सेना को हैदराबाद का निर्णय ले लिया गया)। 1 सितंबर के दिन पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना का लंबी बीमारी पश्चात निधन हो गया। पाकिस्तान जब अपने जनक की मौत के गम में डूबा था, 13 सितंबर की सुबह भारतीय फौजां ने हैदराबाद में दस्तक दे डाली और मात्र 4 दिनों के भीतर उन्होंने रियासत में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। 42 भारतीय जवान इन चार दिनों के संघर्ष में शहीद हुए तो लगभग दो हजार रज़ाकार लड़ाके भी मारे गए। 17 सितंबर के दिन निजाम की सरकार ने इस्तीफा दे दिया और इसी रात निजाम ने रेडियो द्वारा प्रसारित अपने संदेश में रज़ाकार संगठन पर पाबंदी लगाए जाने के साथ ही रियासत के नागरिकों को अन्य भारतीयों के संग मिल-जुलकर रहने की अपील जारी कर दी। इस तरह से हैदराबाद रियासत का भारत संग विलय हो गया। निजाम को नए भारतीय प्रांत का राज्यपाल नियुक्त कर उसके सम्मान को बरकरार रखा गया।
नेहरू सरकार के समक्ष चुनौतियों का अंबार था। ऐसी चुनौतियां जिनसे तत्काल निपटा जाना उतना ही जरूरी था जितना नए भारत के निर्माण के लिए दूरगामी नीतियों को चिÐत कर उन्हें धतराल पर उतारना। आज जब वाट्सअप विश्वविद्यालय से ‘दीक्षित’ विद्वान, नेहरू को, उनके समय को, उनके समय की चुनौतियों को जाने-समझे बगैर उन्हें खलनायक बनाने की कोशिश के हमराहगीर होते जा रहे हैं, नेहरू के प्रधानमंत्रित्वकाल का निष्पक्ष और ईमानदार आकलन यह साबित करता है कि यदि हम एक मजबूत लोकतंत्र के रूप में, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले राष्ट्र के रूप में और तमाम विसंगतियों के बावजूद यदि एक समरसता वाले समाज के रूप में आज जिंदा हैं तो इसका बहुत कुछ श्रेय नेहरू और उनकी सरकार की दूरगामी सोच को जाता है। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं कि बतौर प्रधानमंत्री नेहरू का 16 बरस का शासनकाल तमाम प्रकार की उन बीमारियों का भी जन्मकाल रहा जिनके चलते आज लोकतंत्र और राष्ट्र की बुनियाद दरकने का खतरा महसूसा जाने लगा है लेकिन एक संतुलित और समग्र मूल्यांकन यह स्पष्ट और स्थापित करता है कि जवाहर लाल नेहरू एक ऐसे युग दृष्टा थे जिन्होंने बतौर प्रधानमंत्री इस देश को, देश बने रहने में, अपना अतुलनीय योगदान दिया।
जवाहर लाल सरकार के समक्ष शून्य से शुरुआत कर ऐसे राष्ट्र की मजबूत नींव रखनी थी जो भारी रक्तपात, अकाल, गंभीर आर्थिकी, अलगाववाद इत्यादि व्याधियों को अपने साथ लेकर जन्मा था। नई सरकार के समक्ष इन सभी व्याधियों का एक साथ उपचार करने की पहाड़ समान चुनौती थी। ऐसा ही इस सरकार ने किया भी। शरणार्थियों के पुनर्वास का कार्य युद्ध स्तर पर शुरू किया गया। दिल्ली में 36 इलाकों में पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों को बसाने की शुरुआत की गई। इन पुनर्वास इलाकां का नाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम पर रखा गया। आज ये इलाके लाजपत नगर, राजेंद्र नगर, पटेल नगर, तिलक नगर, मालवीय नगर, किदवई नगर, सरोजनी नगर, लक्ष्मी बाई नगर इत्यादि दिल्ली के महंगे इलाकों में शुमार हैं। नेहरू सरकार ने दिल्ली से सटे इलाकां में भी निर्माण कार्य शुरू करवा नए शहरों में इन शरणार्थियों को बसाया। हरियाणा का फरीदाबाद शहर इसका उदाहरण है। इस नए बसे शहर को बिजली उपलब्ध कराने के लिए कलकत्ता से एक पुराने डीजल पावर प्लांट को फरीदाबाद लाया गया था। जर्मनी के इस डीजल प्लांट को दुरुस्त करने के लिए उस जर्मन इंजीनियर को खोजा गया जिसने इसे बनाया था। इस इंजीनियर के सामने सबसे बड़ी समस्या इस प्लांट को खड़ा करने की थी जिसके लिए बड़ी क्रेनों का होना जरूरी था जो उपलब्ध नहीं थी। 10 महीनों की कड़ी मशक्कत बाद यह प्लांट तैयार हो पाया जिसका उद्घाटन स्वयं नेहरू ने अप्रैल, 1951 में किया था-‘Nehru himself came to commission it, and as he pressed the button, The lights came on and lifted the spirits of all in Faridabad. The township had power in its hands to fashion its industrial future’ (नेहरू स्वयं इस प्लांट की शुरुआत करने आए। जैसे ही उन्होंने बटन दबाया, रोशनी आ गई जिसने पूरे फरीदाबाद को उत्साहित कर दिया। अब शहर को पास अपनी बिजली थी, अपने औद्योगिक भविष्य को संवारने के लिए)।
इसी प्रकार पूर्वी बंगाल से लाखों की तादात में कलकत्ता (अब कोलकाता) और बॉम्बे (अब मुंबई) पहुंचे लाखों शरणार्थियों के पुनर्वास को युद्ध स्तर से पूरा किया गया। पंजाब जहां विभाजन के दौरान सबसे ज्यादा हिंसा हुई थी, लाखों सिख और हिंदू शरणार्थियों को सरकारी जमीन के पट्टे दे उनका पुनर्वास नेहरू सरकार ने किया। इस सरकार के समक्ष खाद्यान्न संकट आजादी के तुरंत बाद एक विकराल समस्या बन सामने आ खड़ा हुआ था। विशेष रूप से 1947 से 1952 तक अन्न की भारी कमी का सामना देश को करना पड़ा था। 1952 के बाद हालात धीरे-धीरे सुधरे और 1960 के दशक की ‘हरित क्रांति’ ने इस क्षेत्र में हमें आत्मनिर्भर बनाने में सफलता दिलाई। आजादी के समय लेकिन अन्न का संकट अपने चरम पर था। द्वितीय विश्व युद्ध ने भारत की खाद्यान्न अर्थव्यवस्था को गहरे संकट में डालने का काम किया था। 1942 में जापान द्वारा बर्मा (अब म्यांमार) को कब्जे में लेने पश्चात् भारत में भारी अन्न संकट पैदा होने लगा। भारत प्रति वर्ष कई लाख टन चावल का आयात बर्मा से करता था। जापानी कब्जे के बाद इस आयात पर पूरी रोक लग गई। इसी वर्ष बंगाल में आए भीषण समुद्री तूफान ने चावल की फसल को बर्बाद कर डाला।
क्रमशः