प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शब्दों के बाजीगर हैं। उन्हें नए-नए शब्द, नए-नए जुमले ईजाद करने में खासा अनुभव है। 2013 में जब वे केंद्र में सत्तारूढ़ होने के लिए आम चुनाव के दौरान भाजपा द्वारा आयोजित रैलियों के स्टार स्पीकर बन देश का तूफानी दौरा कर रहे थे तब पटना में आयोजित ‘हुंकार’ रैली में उन्होंने पहला जुमला ‘इडिया फस्र्ट’ का उछाला था। 11 अगस्त-2013 को उन्होंने कहा ‘सरकार का एक ही मजहब होता है- इडिया फस्र्ट।’ 20 दिसंबर-2013 को बनारस में उन्होंने कहा ‘हम वादे नहीं इरादे लेकर आए हैं।’ 5 जनवरी-2014 के दिन दिल्ली में आयोजित सभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर कटाक्ष करते हुए मोदी के शब्द थे ‘ट्रैक रिकार्ड देखिए, टेप रिकार्डर नहीं।’ 5 फरवरी-2014 को कोलकत्ता में एक जनसभा में उन्होंने भाजपा का मंत्र बोला। ‘विकास भी, ईमान भी, गरीबों का सम्मान भी।’ जनता ने उनके तेवरों को हाथों-हाथ लिया और वे पीएम बन गए। इसके बाद तो एक के बाद एक जुमलों की बौछार उन्होंने लगानी शुरू कर दी। जीएसटी को ‘गुड एंड सिपल टैम्प’ व ‘गोइंग स्ट्राॅन्गर टू-गेदर’ कहा तो डिजिटल पेमेंट के लिए बनाए ऐप का नाम डाॅ अंबेडकर के नाम पर भीम यानि ‘भारत इंटरफेस फाॅर मनी’ रख डाला। 2017 में यूपी चुनावों के दौरान विकास को ‘विद्युत, कानून और सड़क’ बना डाला। कांग्रेस की घेराबंदी करने के लिए उसे एबीसीडी कह पुकारा जिसमें ए का अर्थ आर्दश घोटाला था, बी बोफोर्स घोटाला, सी का अर्थ कोयला घोटाला तो डी से दामाद घोटाला था।
‘56 इंच का सीना’ ‘मिनिमन गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नमेंट’। ‘स्कैम शब्द की नई परिभाषा एस से समाजवादी, सी से कांग्रेस, ए से अखिलेश और एम से मायावती, अच्छे दिन आएंगे।’ ‘सबका साथ, सबका विकास’, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘बीटूसी’ यानी‘भारत टू भूटान’, इतने जुमले कि आप पढ़ते-पढ़ते थक जाएंगे। मैं बताते-बताते। अब उन्होंने जुमलों से आगे बढ़कर शब्द रचना पर अपना ध्यान लगाना शुरू कर दिया है। किसान आंदोलन सेे शायद उन्हें प्रेरणा मिली हो, या फिर ‘सीएए’ आंदोलन के दौरान उन्होंने इस पर कुछ सोचा हो जो किसान आंदोलन के चलते नए शब्द रचना के बतौर, मोदी जी ने हिंदी शब्दकोश को भेंट कर दिया। शब्द है ‘आंदोलनजीवी’। आंदोलनजीवी से प्रधानमंत्री का अर्थ ऐसे तत्वों से है जो हरेक प्रगतिशील कदम का विरोध करते हैं, प्रगतिशीलता के विरोधी हैं। मुझे लगता है प्रधानमंत्री आंदोलन शब्द से ही इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनकी दृष्टि में लोकतंत्र का सबसे मजबूत यह जनअधिकार असल में लोकतांत्रिक समाज में व्याप्त सबसे बड़ी बीमारी है जो सरकारों की राह में अड़चन डालने का काम करती है। यहां पर लेकिन एक बड़ा पेंच, बड़ा विरोधाभास है। प्रधानमंत्री मोदी एक समय में इन्हीं ‘आंदोलनजीवियों’ की जमात में खुद को पाते थे। उस पर गर्व करते थे। यह मैं यूं ही नहीं कह रहा। स्वयं उनकी निजी वेबसाइट में दर्ज है।
www.narendramodi.in में लिखा है कि 1975 का ‘नव निमार्ण आंदोलन’ जन विरोध, सामाजिक मुद्दों पर उनके वैश्विक नजरिए के एक महत्वपूर्ण विस्तार के साथ नरेंद्र मोदी का पहला अनुभव था। वे 1975 में गुजरात में लोक सघंर्ष समिति के महासचिव बने। आंदोलन के दौरान उन्हें विशेष रूप से छात्र मुद्दों को नजदीक से समझने का अवसर मिला। जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री बने तब एक बार के लिए यह प्रमुख परिसंपत्ति साबित हुआ। अब लेकिन पीएम के विचार जनआंदोलनों और आंदोलनकारियों को लेकर पूरी तरह बदल चुके है। अब आंदोलनकारी उन्हें ‘आंदोलनजीवी’ प्रतीत होने लगे है। यह एक स्वस्थ लोकतंत्र के स्वास्थ पर धातक साबित हो सकता है। संसद के बजट सत्र में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने 10 फरवरी के दिन राज्य सभा में बताया कि 2016 से 2019 तक यूएपीए कानून के तहत कुल 5922 लोग गिरफ्तार किए गए। इनमें से मात्र 2 ़2 प्रतिशत पर आरोप सिद्ध हो पाए। कितना भयावह है यह सब। यदि आकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इस खौफनाक कानून जिसे सामान्य भाषा में आंतकविरोधी कानून कहा जा सकता है, इस कानून की जद में असल आंतकी कम, ‘आंदोलनजीवी’ ज्यादा नजर आते हंै। इनमें भीमा कोरेगांव हिंसा के आरोपी बुद्धिजीवी, कवि, साहित्यकार हैं, कई पत्रकार हैं सीएए कानून के विरोध में धरना-प्रर्दशन करने वाले हैं। दिल्ली में गत् वर्ष हुए कौमी दंगों बाद बड़ी तादात में गिरफ्तार ऐसे लोग भी हैं जिनका कसूर केवल और केवल सीएए का विरोध करना है। एक अन्य कानून भी इन दिनों सरकारी तंत्र द्वारा जमकर प्रयोग में लाया जा रहा है। यह है राजद्रोही कानून। ये दोनों कानून गैर जमानती हैं। यानी एक बार आप इनकी चपेट में आए तो लंबे अर्से तक जेल की रोटी तोड़ना निश्चित है।
सोचने की बात है कि क्यों खुद जनआंदोलनों को अपना प्रेरणास्रोत बताने वाले नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री आंदोलनों से खफा हैं। आंदोलनकारियों को आंदोलनजीवी कह पुकार रहे हैं। मुझे लगता है कि इनके पीछे सीएए के खिलाफ हुए धरना-प्रर्दशन नहीं हैं, असल कारण है किसान आंदोलन जो अब पीएम मोदी और उनकी सरकार के लिए बड़ा संकट बन चुका है। सीएए के विरोध में उठे हुए स्वरों को यदि कोराना संकट नहीं भी आता तो भी सरकार शांत करने में सक्षम थी। कारण था इस कानून का मुसलमान जनता से सीधा संबंध। मुस्लिम डर रहे हैं कि यह कानून उनके हितों पर चोट पहुंचाने वाला है। भाजपा को यह सुहाता है। ऊपरी असम में जरूर इस कानून के चलते उसे परेशानी हो रही है, बाकी देश में उसका हिंदुत्व एजेंडा इससे मजबूती पा रहा है। इसलिए ‘आंदोलनजीवी’ शब्द तब ईजाद नहीं हुआ। किसानों के साथ मामला ठीक उलट है। तीन क़ृषि कानूनों में लाए गए संशोधनों का इतना उग्र विरोध होगा यह भाजपा के रणनीतिकारों ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा। बहुत संभव था कि इस आंदोलन के शुरुआती चरण में ही यदि हठधर्मिता ना दिखाते हुए केंद्र सरकार न्यूतम मूल्य वृद्धि (एमएसपी) को कानून का हिस्सा बनाने के लिए तैयार हो जाती तो आंदोलन ऐसा रूप नहीं लेता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सरकार अपनी जिद के चलते ऐसों के समक्ष अड़ गई जिनके पास खोने को कुछ है नहीं। उन्हें न तो राजद्रोह डरा सकता है न ही ईडी, सीबीआई। 26 जनवरी की घटना से पहले धीमे स्वरों में गोदी-चारणी मीडिया के जरिए देशद्रोही तत्वों की आंदोलन में पैठ की बात कही जानी शुरू हो गई थी। लालकिले में ‘निशान साहिब’ का झंडा लहराए जाने के बाद इसे जमकर उछाला गया। वीएम सिंह सरीखे कर्मठ किसान नेता हताश हो आंदोलन छोड़ गए। योगेंद्र यादव भी पस्त होते नजर आने लगे थे। फिर बही राकेश टिकैत की आंखों से ऐसी जलधारा जिसने आंदोलन को तो मजबूत किया ही हिंदू- मुसलमान की खाई भी इसने पाट दी। टिकैत नेशनल हीरो तो केंद्र सरकार जीरो होती अब नजर आ रही है। ‘आंदोलनजीवी’ शब्द सरकार के जीरो होने, भाजपा के बौखलाने का परिणाम है। चिंताजनक यह कि सत्ता का अहंकार इससे तिलमिलाया जरूर है, कम नहीं हुआ है। पर्यावरण एक्टिविस्ट दिशा रवि इसका ज्वलंत उदाहरण है। 1974 में एक ताकतवर मुख्यमंत्री के खिलाफ पैदा हुए ‘नवनिर्माण आंदोलन’ की कोख से निकला स्वपनदर्शी युवक प्रधानमंत्री बनने के बाद जन आंदोलन के प्रति अपना नजरिया यदि बदल दे तो निश्चित ही शुभ संकेत नहीं। हमने और हमारी बाद की पीढ़ियों ने आपातकाल का दौर नहीं भोगा, केवल पढ़ा। आज के हालात हम देख-भोग रहे है। चारों तरफ भय का माहौल है। बेरोजगारी, गिरती अर्थव्यस्था दिनों-दिन बढ़ रही महंगाई से त्रस्त और हताश देश में अब यदि आंदोलन करना भी ‘पाप’ मान लिया जाएगा तो बचेगा क्या? लोकतंत्र के नाम पर लोक का दायित्व केवल अपने शासकों के सुर-ताल पर ता-ता- थैय्या करना? शायद कवि रघुवीर सहाय ने ऐसे दौर की कल्पना करते हुए लिखा था-
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,
उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।