प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अधिकांश बातें मेरी समझ से परे होती हैं। सच तो यह है कि मैं उनके प्रति पूर्वग्रसित हो चला हूं। यह पूर्वाग्रह 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद नहीं, बल्कि 2002 के बाद पैदा हुआ है। वह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। 2002 में पहले गोधरा हुआ फिर गुजरात। इन दो घटनाओं ने मुझे नरेंद्र मोदी के प्रति नकारात्मक बनाने का काम किया। जब कभी भी गुजरात के कथित विकास मॉडल की बात होती, मुझे गोधरा और गोधरा के बाद का गुजरात याद आ जाता है। मोदी जब केंद्र की सत्ता में बैठे तब भी मैं सशंकित था कि जिन जन वायदों और सपनों के दम पर भाजपा मोदीजी के नेतृत्व में सरकार बनाने जा रही है, वे सपने, वे उम्मीदें साकार हो पाएंगी? मेरी आशंका के मूल में 2002 था, 2002 के बाद का गुजरात भी था। आज जब मोदी सरकार साढ़े सात बरस का सफर तय कर चुकी है, मुझे यकीं हो चला है कि मेरी आशंकाएं निर्मूल नहीं थी। अब तक के मोदीकाल का निष्पक्ष आकलन, बगैर किसी पूर्वाग्रह, बगैर कोई चश्मा लगाए किया जाए तो पिछले साढ़े सात साल, 75 बरस के होने जा रहे राष्ट्र की यात्रा के सबसे खराब बन उभरेंगे। शर्त यह कि आकलन निष्पक्ष हो, बगैर पूर्वाग्रह लिए हो। इन साढ़े सात बरस के दौरान हर क्षेत्र में गिरावट दर्ज हुई है। इसमें देश की अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी दर, सार्वजनिक जीवन मेंं शुचिता, देश की गंगा-जमुनी संस्कृति समेत सभी बुनियादी मसले शामिल हैं। किसी भी एक मुद्दे को उठाकर उसका निष्पक्ष आकलन कर लीजिए, नजर आएगी तो केवल मोदी सरकार की असफलता। उत्तर प्रदेश समेत देश के पांच राज्यों में इस वक्त चुनावी समर चल रहा है। आमतौर पर इसे चुनावी दंगल, समर, युद्ध कह पुकारा जाता है। मैं इसे नौटंकी कहता हूं। तो चलिए इस नौटंकी के जरिए मोदीजी के वायदों, उनके दिखाए सपनों का सच समझने का प्रयास करते हैं।
नौटंकीबाज राजनीति

मोदीजी भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ हैं। ऐसा वे स्वयं कहते हैं, ऐसा ही उनका आभामंडल बनाया गया है। 2014 में लोकसभा चुनावों के दौरान उन्होंने सत्तारूढ़ यूपीए गठबंधन की सरकार को इसी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेर कर पटखनी दी थी। तब उन्होंने विदेशों में पिछले काले धन को सत्ता मिलने पर वापस लाने की हुंकार भरी थी। सच यह कि साढ़े सात बरस बीत जाने के बाद भी केंद्र सरकार इस दिशा में कुछ हासिल नहीं कर पाई है। यूपीए सरकार के समय फरवरी, 2012 में सीबीआई के तत्कालीन निदेशक ने दावा किया था कि भारतीय नागरिकों के लगभग पांच सौ बिलियन डॉलर की रकम विदेशी बैंकों में जमा है। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर दायर एक याचिका पर बहस के दौरान 2018 में यह कालाधन 500 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 1.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक जा पहुंचा। 1.5 ट्रिलियन डॉलर का मतलब है 300 लाख करोड़ रुपया। अब सोचिए भला क्योंकर मोदीजी अब तक इस कालेधन पर अपने वायदे अनुसार कार्यवाही नहीं कर पाए हैं? जब इस पर निष्पक्ष तरीके से सोचने का प्रयास करेंगे तो आपको नोटबंदी पर भी नजर डालनी पड़ेगी, राफेल सैन्य विमान सौदे को भी परखना पड़ेगा, पिछले साढ़े सात सालों के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र की सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में सौंपे जाने की तरफ भी नजर दौड़ानी पड़ेगी। बहुत निष्पक्षता के साथ आकलन करने बैठेंगे तो अडानी समूह द्वारा संचालित मुद्रा पोर्ट के रास्ते भारत में लाए गए नशीले पदार्थों के सच से दो-चार होना पड़ेगा। तब यह भी सोचने के लिए आप विवश हो उठेंगे कि सत्तारूढ़ भाजपा के विरोधियों के यहां तत्काल दबिश देने वाली केंद्रीय जांच एजेंसियां क्योंकर हजारों करोड़ की ड्रग्स-स्मगलिंग मामले में अडानी के दरवाजे तक नहीं पहुंची है। दिमाग के तंतु खुलने लगेंगे तो सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या प्रकरण का नेशनल न्यूज बनना, नारकोटिक्स विभाग का आर्यन खान को पकड़ना, इत्यादि- इत्यादि तक आप जा पहुंचेंगे और आपके दिमाग का दही हो जाएगा। कोशिश कीजिएगा, शायद अक्ल पर पड़ा पर्दा कुछ हिले। इस कालेधन की गाथा छोड़ अब दूसरे बिंदु पर आता हूं। हम खुद को गंगा-जमुनी संस्कृति का संवाहक कहते नहीं अघाते हैं। पिछले साढ़े सात सालों में इस संस्कृति पर सबसे अधिक प्रहार हुआ है। धर्म की अफीम इस देश की बहुसंख्यक आबादी को इस कदर चटा दी गई है कि वह हिंदू होने का मतलब, हिंदू होने का धर्म भूल, इस गंगा-जमुनी संस्कृति का दुश्मन बन बैठा है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव का श्री गणेश भाजपा की तरफ से केंद्रीय गृहमंत्री ने कैराना में घर-घर जाकर प्रचार करने से किया है। कैराना ही भला क्यों? क्योंकि इस कैराना से भाजपा की धार्मिक, धु्रवीकरण नीति विस्तार पाती है। यहां से भरी गई हुंकार का असर 2017 के विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश पर असर डालने में कामयाब रहा था। अब एक बार फिर इसे सुलगाया जा रहा है। हालांकि किसान आंदोलन के कारण अब इसका असर शायद पहले की भांति अपना ‘जलवा’ दिखा पाने में सफल न हो, लेकिन प्रयास तो भाजपा करेगी ही करेगी। पुरानी कहावत है कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। इस कहावत की तर्ज पर मैं कहता हूं कि पहली बार प्रयोग यदि सफल हो भी जाए, दोबारा वह नौटंकी हो जाता है। योगी सरकार के पांच बरस भी निष्पक्ष आकलन मांगते हैं। यदि ईमानदार आकलन किया जाए तो धर्म के नाम पर मंदिर का निर्माण मोदी-योगी समय की एकमात्र ‘उपलब्धि’ है। बाकी सब तो कोरोना संकट के प्रथम चरण में सामने आ ही चुका है। प्रधानमंत्री मोदी का हर वायदा उनके अन्य वायदों से सीधे जुड़ता है। भ्रष्टाचार पर प्रहार का सीधा रिश्ता सार्वजनिक जीवन में पवित्रता, शुचिता से है। भाजपा अपने जन्मकाल से ही ‘चेहरा, चाल और चरित्र’ की दुहाई देती आई है। उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले तत्कालीन नेता विपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य का मायावती से विद्रोह कर भाजपा में शामिल होना आखिर किस प्रकार की शुचिता थी? बसपा पर महाभ्रष्ट होने का आरोप भाजपा लगातार लगाती रही है। तब क्योंकर एक महाभ्रष्ट पार्टी के नेता को भाजपा में शामिल कराया गया? केवल वोट बैंक की राजनीति साधने के लिए ही तो ऐसा किया गया। मौर्या ने पूरे पांच बरस सत्ता की मलाई खाई और फिर समाजवादी हो गए। उत्तराखण्ड का उदाहरण ले लीजिए। 2016 में हरीश रावत सरकार को हटाने के लिए रचे गए राजनीतिक षड्यंत्र को भले ही भाजपा अंजाम तक न पहुंचा सकी, कांग्रेस विधायक दल में उसने भारी तोड़-फोड़ कर डाली थी। कांग्रेस के इन विधायकों को भाजपा ने खुलेपन से अपनाया। डॉ. हरक सिंह रावत भी इन विधायकों में से एक थे। 2017 में राज्य ने सत्ता परिवर्तन देखा। भाजपा की सरकार बनी तो डॉ. हरक सिंह रावत को भी मंत्री बनाया गया। हरक सिंह रावत की सत्ता लोलुपता और हरीश रावत सरकार में मंत्री रहते उनके भ्रष्ट आचरण को भाजपा हमेशा निशाने पर रखती रही। फिर वे एकदम से शुद्ध हो गए। अब सत्ता का लालच उन्हें वापस कांग्रेस में ले आया है। हरक सिंह को ‘लोकतंत्र का हत्यारा’ कह पुकारने वाली कांग्रेस अब उन्हें दुलार रही है। यह बस नौटंकी नहीं तो और क्या है? कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘मेरा जीवन लक्ष्य उत्तराखण्डियत’ में लिखते हैं ‘पुराना कथानक है ‘सत्ता की एक ही नैतिकता है, वह है सत्ता।’ साम-दाम, दंड-भेद चाहे कुछ भी करो सत्ता आनी चाहिए। मैंने इस कथानक को उत्तराखण्ड में घटित होते देखा, नग्न रूप में देखा। विरोधी को ध्वस्त कर डालो, चाहे माध्यम कुछ भी क्यों नहीं अपनाना पड़े। सोचिए, क्या सभ्यता के उच्चतम स्वरूप संसदीय लोकतंत्र में पाषाणयुगीन कथानकों को यथार्थ में घटित होना चाहिए। क्या किसी को लोकतंत्र का गला घोटाने का अधिकार इसलिए मिल जाना चाहिए, क्योंकि वह दूसरे से अधिक शक्तिशाली हैं। मेरे साथ जो कुछ हो रहा था, वह निष्कृष्टता एवं सत्ता लोलुपता की पराकाष्ठा थी।’ अब जब लोकतंत्र के यही हत्यारे कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं, हरीश रावत अपने इस लिखे को भला कैसे जस्टिफाई कर पाएंगे? सच यह कि ऐसा कुछ करने की उन्हें जरूरत ही नहीं है। जनता जनार्दन खुद इस नौटंकी का हिस्सा है, उसे सराहती है। यदि ऐसा न होता तो स्वामी प्रसाद मौर्य हो या हरक सिंह रावत, कब के इतिहास बन चुके होते। यदि ऐसा न होता तो साढ़े सात बरस बाद भी मोदी मैजिक कायम न रह पाता। इसलिए यह कह देना भर कि भारत की, भारतीय लोकतंत्र की और भारतीय राजनीति की वर्तमान अद्योगति के लिए केवल और केवल हमारे राजनेता जिम्मेदार हैं, मेरी समझ से गलत है। हमने जो बोया, उसे ही हम काटते हैं। जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए? देखते रहिए नौटंकी को।