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Editorial

गांधी बनाम भगत सिंह

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-18
 
 

ब्रिटिश सरकार का साइमन कमीशन में भारतीयों को शामिल न करने का हठ, नेहरू रिपोर्ट, बारदोली आंदोलन की सफलता, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु द्वारा पहले ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सार्न्डस की हत्या और उसके बाद केंद्रीय परिषद् में बम फेंकने की घटनाओं ने एक बार फिर से पूरे देश में अंग्रेज सत्ता के खिलाफ जन- जागरण का माहौल तैयार कर डाला था। लंबे अर्से से स्वघोषित राजनीतिक वनवास भोग रहे महात्मा गांधी ने मुख्यधारा में वापसी कर एक बार फिर से कांग्रेस के कार्यक्रमों की कमान अपने हाथों में ले ली। स्वतंत्रता संग्राम की लंबी यात्रा में यह सबसे निर्णायक दौर था। 31 दिसंबर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के दौरान रावी नदी के तट पर तिरंगा लहराया गया और कांग्रेस ने ‘स्वराज’ की मांग से आगे बढ़कर ‘पूर्ण स्वराज’ का आह्नान कर डाला। 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस ने विधिवत रूप से इस पूरी स्वराज की औपचारिक घोषणा कर स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन की नई दिशा और नव ऊर्जा देने का काम किया। 1882 में बने नमक कानून ने ब्रिटिश सरकार के हाथों में नमक को बनाने और उसका वितरण करने के असिमित अधिकार दे डाले थे। इस कानून को तोड़ने वालों पर आपराधिक धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाता था। महात्मा ने इस कानून के विरोध को जरिया बना ब्रिटिश सत्ता की मुखालफत का निर्णय लिया। उनके इस विचार से अधिकांश कांग्रेसी नेता सहमत नहीं थे। सरदार पटेल का सुझाव था कि बारदोली आंदोलन की तर्ज पर भूमिकर न दिए जाने का देशव्यापी आंदोलन शुरू करना ज्यादा श्रेयस्कर होगा। गांधी का मानना था कि पूर्ण स्वराज की मांग को गति देने के लिए नमक आंदोलन सबसे बेहतर रहेगा क्योंकि इस कानून की जद में देश का हर नागरिक आता है और ब्रिटिश सरकार को मिलने वाले टैक्स का 8 ़2 प्रतिशत इस नमक कानून के चलते प्राप्त होता है। 12 मार्च, 1930 के दिन गांधी अहमदाबाद स्थित अपने साबरमती आश्रम से पैदल 285 किमी ़ दूर नवसारी (दाड़ी) के लिए निकले और 6 अप्रैल, 1930 के दिन दाड़ी पहुंच उन्होंने नमक कानून को तोड़ खुद नमक बनाया। इस एक घटना ने पूरे विश्व का ध्यान भारत की तरफ आकर्षित कर दिया। ब्रिटिश सत्ता को अहसास नहीं था कि गांधी का यह सांकेतिक कानून तोड़ना पूरे देश में एक नए सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह को जन्म दे डालेगा। पांच मई, 1930 को गांधी की गिरफ्तारी हो गई जिसने इस आंदोलन को और भड़का दिया। हजारों की तादाद में सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर जेल भेजने के बावजूद इस कानून का विरोध थमा नहीं। इस बीच बढ़ते जनआक्रोश से चिंतित ब्रिटिश सरकार ने गोलमेज सम्मेलन कराने का फैसला लिया। ब्रिटेन में भी इस मुद्दे पर सहमति बनने लगी थी कि भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर एक अधिराज्य (Dominion Status) का दर्जा दे दिया जाना चाहिए। ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत कई देशों जैसे कनाडा, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका को यह दर्जा दिया जा चुका था। इसके तहत ये सभी देश ब्रिटिश हुकूमत का हिस्सा होते हुए भी पूर्ण रूप से स्वतंत्र राष्ट्र बन गए थे। गोलमेज सम्मेलन (Round Table Conference) का उद्देश्य सभी राजनीतिक ताकतों के साथ भारत में संवैधानिक सुधारों को लेकर चर्चा करनी और आम सहमति बनानी थी। पहला ऐसा सम्मेलन 12, नवंबर, 1930 को लंदन में हुआ जिसका उद्घाटन स्वयं ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम ने किया था। मुस्लिम लीग ने इसमें भाग लिया लेकिन गांधी के जेल में बंद होने चलते कांग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया था। हालांकि स्वतंत्र रूप से इसमें कई राजा, नवाब, डॉ ़ भीमराव अंबेडकर आदि शामिल हुए। कांग्रेस के बहिष्कार चलते बगैर किसी विशेष उपलब्धि के यह सम्मेलन समाप्त हो गया। दूसरा गोलमेज सम्मेलन 7 सितंबर, 1931 को बुलाया गया। इससे पहले गांधी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के मध्य समझौता हुआ जिसके बाद कांग्रेस इन सम्मेलनों का हिस्सा बनने के लिए राजी हुई थी। लॉर्ड इरविन और गांधी के मध्य कई बार की बातचीत के बाद यह तय हुआ कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर समय-समय पर लगाए गए सभी प्रकार के प्रतिबंधों को ब्रिटिश सरकार हटा लेगी, नमक कानून को तोड़ने के अपराध में बंदी सभी साठ हजार आंदोलनकारियों की रिहाई की जाएगी एवं नमक पर लगे टैक्स को समाप्त कर दिया जाएगा। साथ ही यह सहमति भी बनी कि कांग्रेस दूसरे गोलमेल सम्मेलन में शिरकत करेगी एवं नमक तोड़ कानून के खिलाफ चल रहे आंदोलन को तत्काल समाप्त कर देगी। स्मरण रहे गांधी-इरविन समझौते की सार्वजनिक घोषणा 5 मार्च, 1931 को की गई थी और इस समझौते के बाद जहां हजारों कांग्रेसियों को जेल से रिहा कर दिया गया, मात्र 18 दिन बाद ही 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया था। क्या गांधी ने भगत सिंह और उनके साथियों की रिहाई के लिए सार्थक प्रयास जान- बूझकर नहीं किए थे? क्या गांधी यदि चाहते तो लॉर्ड इरविन के साथ हुए अपने समझौते में इन तीन क्रांतिकारियों की सजा कम करने को शामिल कर सकते थे? क्या वाकई गांधी हिंसक रास्ते पर चल आजादी पाने का सपना देखने वाले इन नवयुवकों और इनकी विचारधारा से इस कदर आहत थे कि उन्होंने लॉर्ड इरविन अथवा ब्रिटिश हुकूमत पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने से परहेज किया? इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधी ने ताउम्र हिंसा को जरिया बना किसी उद्देश्य की प्राप्ति के मार्ग को नहीं स्वीकारा। सार्न्डस की हत्या बाद महात्मा ने उसकी निंदा करते हुए उसे एक ‘कायर कृत्य’ करार दिया था। लेकिन यह भी इतिहास में दर्ज है कि गांधी ने इन क्रांतिकारियों को दी गई फांसी की सजा को गलत ठहराया था। 31 जनवरी, 1931 को इलाहाबाद में गांधी ने फांसी के प्रावधान पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा ‘मेरा धर्म मुझे कहता है कि न केवल उन्हें फांसी की सजा नहीं होनी चाहिए बल्कि उन्हें जेल में बंद भी नहीं रखा जाना चाहिए। किंतु यह मेरी निजी राय है और मैं उनकी रिहाई को किसी वार्ता के लिए शर्त नहीं बना सकता हूं।’ गांधी-इरविन वार्ता 17 फरवरी, 1931 के दिन शुरू हुई और 5 मार्च के दिन दोनों एक निष्कर्ष तक पहुंच पाए थे। जैसा उन्होंने इलाहाबाद में कहा था, इन क्रांतिकारियों की रिहाई को गांधी ने इस वार्ता में आवश्यक शर्त के रूप में शामिल नहीं किया। 18 फरवरी के दिन उन्होंने अनौपचारिक बातचीत के दौरान लॉर्ड इरविन को अवश्य सलाह दी थी कि ‘यद्यपि यह हमारी वार्ता का हिस्सा नहीं है और शायद मेरे लिए इसे आपके समक्ष रखना गैर- वाजिब हो, किंतु यदि आप वर्तमान माहौल को अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं तो आपको भगत सिंह की फांसी को स्थगित कर देना चाहिए।’ इतिहासकारों के मध्य इस मुद्दे को लेकर खासा मतभेद रहा है। बहुतों को मानना है कि यदि महात्मा चाहते तो इन तीन क्रांतिकारियों की फांसी को आजीवन कारावास में बदला जा सकता था। इतिहासकार ए ़जी ़नूरानी अपनी पुस्तक ‘Gandhi And Bhagat Singh’ (गांधी और भगत सिंह) में लिखते हैं कि गांधी के भगत सिंह की फांसी को रोकने के लिए किए गए प्रयास आधे- अधूरे-से थे। अपनी बात की पुष्टि के लिए नूरानी जेल में भूख-हड़ताल पर बैठे भगत सिंह से गांधी द्वारा मिलने तक नहीं जाने की बात पर जोर देते हैं। उनका मानना है कि गांधी ने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन से कभी भी भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को आजीवन कारावास में बदलने की बात नहीं की बल्कि केवल कुछ समय के लिए उसे स्थगित करने का आग्रह भर किया था। दूसरी तरह कई अन्य इतिहासविदों ने लॉर्ड इरविन के हवाले से यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि भले ही महात्मा ने इरविन के साथ अपनी समझौता वार्ता में इन क्रांतिकारियों की रिहाई को अथवा उनकी फांसी को आजीवन कारावास में बदलने की अनिवार्य शर्त नहीं रखी, वार्ता के दौरान उन्होंने भरपूर प्रयास अवश्य किए कि इस फांसी को रोका जा सके। प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब अपनी पुस्तक ‘To Make The Dear Hear: Ideology and Programme of Bhagat Singh and His Comrades’ में इस बात पर तो जोर देते हैं कि गांधी भगत सिंह की विचारधारा से गहरी ना इत्तेफाकी रखते थे लेकिन वे इस प्रश्न पर खामोश हो जाते हैं कि महात्मा ने इस फांसी को रूकवाने के लिए समूचित प्रयास किए थे या नहीं। ख्याति प्राप्त पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘Without Fears: The Life and Trial of Bhagat Singh’ में स्पष्ट रूप से गांधी के प्रयासों को समूचित बताते हैं। इस प्रसंग को और इसमें गांधी की भूमिका को लेकर स्पष्ट राय कायम करने के लिए तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के नोट्स विशेष महत्व के हैं। 19 मार्च, 1931 को गांधी संग अपनी मुलाकात का जिक्र करते हुए इरविन ने लिखा -जब वे (गांधी) बैठक के बाद जाने लगे तब उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या वे भगत सिंह की बाबत कुछ कह सकते हैं क्योंकि उन्हें प्रेस के जरिए जानकारी मिली है कि भगत सिंह की फांसी का दिन 24 मार्च तय हो चुका है। मैंने उनसे कहा कि इस बारे में मैंने गहनता से विचार किया लेकिन मुझसे ऐसा कोई आधार नहीं मिला जिसकी बिना पर मैं फांसी के आदेश को रद्द कर सकूं। मैंने यह अवश्य विचार किया कि इस फांसी को मैं कांग्रेस के (कराची में प्रस्तावित) अधिवेशन होने तक स्थगित कर दूं लेकिन फिर मैंने यह विचार इसलिए त्याग दिया है क्योंकि (1) राजनीतिक कारणों के चलते एक अदालती आदेश को टाला जाना मुझे उचित प्रतीत नहीं लगता है (2) फांसी को स्थगित करने से यह भ्रम फैलता कि मैं इस फांसी के आदेश को रद्द करने पर विचार कर रहा हूं और (3) यदि मैं ऐसा करता हूं तो कांग्रेस को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि उन्हें मैंने धोखे में रखा। गांधी ने मेरे तर्कों को गंभीरता से सुना और वे चले गए।                                           

  क्रमशः

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