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Editorial

 गांधी का शक्ति केंद्र बनना और जिन्ना का कांग्रेस से इस्तीफा

पिचहत्तर बरस का भारत-7

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही ब्रिटिश हुकूमत ने भारत में उनकी सत्ता के खिलाफ तेज हो रहे माहौल को ठंडा करने की नीयत से ‘स्वराज’ की दिशा में पहल शुरू कर दी थी ताकि भारतीय जनमानस के आक्रोश को थामा जा सके। भारत में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ तेज हो रही जनभावनाओं के पीछे एक कारण जबरन फौज में भर्ती कराया जाना और ताजा-ताजा भर्ती युवाओं को युद्ध में धकेल देना भी था। इतिहास का यह पन्ना आम जनमानस की नजरों से भले ही न गुजरा हो, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इसका खासा महत्व है। ब्रिटिश भारतीय सेना की 6वीं पूना डिविजन 1916 में इराक के शहर कुट (Kut) में ओटोमन साम्राज्य की सेना संग हुई जंग में बुरी तरह हार गई थी। बगदाद शहर से 160 किमी. की दूरी पर स्थित कुट में ब्रिटिश सेना की हार को प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की सबसे करारी हार (The most abject Capitulation in Britain’s military history)  करार दिया गया है। कुट शहर के बाहर 147 दिनों तक युद्ध करने बाद 29 अप्रैल, 1916 को ब्रिटिश सेना ने तुर्क सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। लगभग 13,000 सैनिक बंदी बनाए गए और कई हजार इस युद्ध में मारे गए थे। इन युद्ध बंदियों एवं मृतकों में अधिकांश भारतीय सैनिक थे जिन्हें युद्ध के दौरान शाकाहारी भोजन न उपलब्ध होने के चलते मांसाहारी भोजन खाने को मजबूर होना पड़ा था। इस हार का प्रभाव ब्रिटेन और भारत में गहरा पड़ा जहां जबरन सेना में भर्ती कराए जाने और युद्ध में धकेल दिए जाने से भारतीयों के भीतर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोश बढ़ा तो वहीं ब्रिटेन में भारतीय मामलों के मंत्री आस्टिन चैम्बरलीन को जून, 1917 में इस्तीफा देना पड़ा और उनके स्थान पर एडविन मांटेग्यू भारतीय मामलों के मंत्री बनाए गए। मांटेग्यू 1917 के अंत में वायसराय लॉर्ड चैम्सफोर्ड से मिलने भारत आए। इस दौरे के दौरान मांटेग्यू ने भारतीय नेताओं संग भी भारत में संवैधानिक सुधारों पर व्यापक चर्चा की। ब्रिटिश सरकार के मंत्री का उद्देश्य भारतीय जनमानस में अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ बैचेनी को कम करना भर था। इसके लिए राजकाज में भारतीयों को शामिल करने और विभिन्न राज्यों की विधान परिषदों को सीमित अधिकार दिए जाने का प्रस्ताव एडविन मांटेग्यू एवं लॉर्ड चैम्सफोर्ड ने तैयार किया। इस रिपोर्ट को ‘मौन्ट फोर्ड सुधार’ कहा जाता है। मई 1918 में ब्रिटिश कैबिनेट के समक्ष रखी गई इस रिपोर्ट के आधार पर ही ‘भारत सरकार अधिनियम-1919’ कानून (Government of India Act 1919) बना। इस कानून के जरिए भारत में पहली बार इम्पेरियल विधान परिषद के दो सदन बनाए गए। एक सदन राज्यों के प्रतिनिधियों का बना जिसे वर्तमान में हम राज्यसभा कहते है, दूसरा केंद्रीय विधान परिषद् जो अब लोकसभा कहलाई जाती है। इसी प्रकार राज्यों की विधान परिषदों में भी सुधार करते हुए भारतीय प्रतिनिधियों की संख्या में बढ़ोतरी की गईं। इस कानून के द्वारा केंद्र में पहली बार द्विसदन पद्धति (Bicameralism) की शुरुआत के साथ-साथ शासन की एक नई प्रणाली जिसे डियासी (Dyarchy) कहा गया, की शुरुआत भी हुई। इस प्रणाली के अंतर्गत कुछ विषयों को राज्यों के अधीन तो कुछ विषय जैसे रक्षा मामले, विदेश नीति, रेल इत्यादि को केंद्र सरकार के अधीन कर दिया गया। वर्तमान में भी यह व्यवस्था लागू है जिसे संविधान में राज्य सूची, केंद्र सूची एवं समवर्ती (Concurrent) सूची कहा जाता है।

इस कानून से ब्रिटिश हुकूमत को जो उम्मीदें थी वह पूरी न हो सकी। भारतीय का प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश की फौज में शामिल होना, गांधी का खुलकर इस युद्ध के दौरान ब्रिटिश सत्ता के पक्ष में जनमानस तैयार करना कुछ ऐसे कदम थे जिनके चलते देश भर में उम्मीद की लहर दौड़ने लगी थी कि अंग्रेज सत्ता भारतीयों की इस मदद का सम्मान करते हुए उन्हें अधिक अधिकार और सुविधाएं देगी। विश्व युद्ध की शुरुआत के तुरंत बाद 1915 में ‘भारत का रक्षा अधिनियम’ (Defence of India Act-1915) लागू कर दिया गया था। इस कानून के अंतर्गत ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ किसी भी प्रकार के विरोध प्रदर्शनों, भाषण, लेख इत्यादि पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई। साथ ही बगैर वारंट, बगैर मुकदमा चलाए किसी को भी गिरफ्तार करने जैसे सख्त प्रावधान इस कानून में रखे गए थे। भारतीयों को उम्मीद थी कि युद्ध की समाप्ति के बाद इस दमनकारी कानून को समाप्त कर दिया जाएगा। हुआ लेकिन इसके ठीक उलट। ‘मौन्ट फोर्ड’ सुधारों के लागू होने  से पहले ब्रिटिश सरकार ने ‘डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट’ को और कठोर और दमनकारी बना डाला। 18, मार्च 1919 को वायसराय की केंद्रीय परिषद् ने ‘अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम-1919’ (Anarchial and Revolutionary Crimes Act-1919) लागू कर दिया। इस कानून को बनाने वाले सर सिडनी रौलेट के नाम पर इसे रौलेट एक्ट के नाम से जाना जाता है। यह ‘डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट’ से भी कहीं अधिक दमनकारी कानून था जिसका देश भर में भीषण विरोध हुआ। जिन्ना और मदन मोहन मालवीय ने विरोध स्वरूप वायसराय परिषद् से अपना इस्तीफा दे डाला तो गांधी ने संपूर्ण देश में इस काले कानून के खिलाफ हड़ताल करने का आह्नान कर दिया। गांधी ने इसे ‘सत्याग्रह’ नाम दिया। 6 अप्रैल, 1919 को शुरू हुए इस सत्याग्रह आंदोलन ने गांधी को राष्ट्रीय क्षितिज पर चमका दिया। कहा जाता है कि इस आंदोलन के बाद ही गांधी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ तेज हो रहे माहौल और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र बन उभरे। इस आंदोलन के दौरान 10 अप्रैल, 1919 को ब्रिटिश पुलिस ने कांग्रेस के दो बड़े नेताओं डॉ. सत्यपाल व सैफूद्दीन किचलू को पंजाब में गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी का भारी विरोध देश भर, विशेष रूप से पंजाब में हुआ जो खासा हिंसक हो गया। 10 अप्रैल को एक भारी जनसमूह शांतिपूर्वक अमृतसर स्थित ब्रिटिश कमिश्नर के बंगले की तरफ बढ़ रहा था जिसे रोकने के लिए ब्रिटिश सेना ने फायरिंग कर दी। इस फायरिंग में कुछ आंदोलनकारियों की मौत हो गई जिससे उत्तेजित भीड़ ने ब्रिटिश सेना के बैरेक, बैंक इत्यादि आग के हवाले कर दिए। हालात इतने बेकाबू हो गए कि सेना को अमृतसर शहर में शांति बनाए रखने के लिए तैनात कर मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी का त्यौहार मनाने और रौलेट एक्ट के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए भारी संख्या में आंदोलनकारी अमृतसर के जलियांवाला बाग में मार्शल लॉ तोड़ते हुए एकत्रित हुए। ब्रिटिश सेना के स्थानीय कमांडर कर्नल रेगिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर (अस्थाई ब्रिगेडिर जनरल) ने इन निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलवा दी। इस गोलीकांड में सैकड़ों नौजवान, महिलाएं और बच्चों की मोत हो गई। इस जघन्य हत्याकांड की जांच के लिए बनाए गए जांच आयोग के अनुसार 379 लोग जिनमें एक 6 माह का बच्चा भी शामिल था, मारे गए। कांग्रेस की जांच समिति ने मरने वालों की संख्या हजार से अधिक और घायलों की संख्या 1200 बताई। डायर को इस हत्याकांड के चलते ‘अमृतसर का कसाई’ (Butcher of Amritsar) कह आज तक याद किया जाता है। इस हत्याकांड और हिंसा से व्यथित होकर गांधी ने आंदोलन को वापस लेने की घोषणा कर दी।
रौलेट एक्ट के विरोध में शुरू हुए आंदोलन, जलियांवाला हत्याकांड और भारी हिंसा के बाद आंदोलन वापसी के इस दौर में गांधी और जिन्ना के मध्य विचारों की खाई बढ़ती गई। जिन्ना का रवैय्या ब्रिटिश हुकूमत के साथ मिलकर चलने का रहा तो गांधी अहिंसक तरीकों से ब्रिटिश हुकूमत संग सीधी लड़ाई के पक्ष में थे। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जिन्ना के तीखे तेवरों में कमी उनके विवाह पश्चात स्पष्ट नजर आने लगी थी। 19 अप्रैल, 1918 के दिन जिन्ना से अपने एक करीबी पारसी मित्र की बेटी रतनबाई से विवाह कर लिया था। इस विवाह के बाद से ही जिन्ना के मन में मुंबई छोड़ लंदन जाकर वकालत शुरू करने की इच्छा बलवती होने लगी थी। रौलेट कानून की विरोध, जलियांवाला हत्याकांड, मौंट-चैम्सफोर्ड सुधार के आधार पर बने ‘भारत सरकार अधिनियम’ का विरोध गांधी को लोकप्रियता के उस शिखर पर ले गया जहां जिन्ना स्वयं को देखना चाहते थे। गांधी की दिनों दिन बढ़ रही इस लोकप्रियता का एक बड़ा असर जिन्ना की राजनीतिक ताकत और इच्छा शक्ति का कम होना रहा। इस दौर में जिन्ना न केवल अपनी राजनीतिक ताकत को कमजोर होता देख दुखी थे बल्कि उनकी निजी जिंदगी भी भारी उथल-पुथल का शिकार होने लगी थी। अपने से 24 बरस छोटी रतनाबाई संग जिन्ना के मतभेद बढ़ने लगे थे।
जलियांवाला बाग कांड के बाद गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन शुरू करने का मन बना लिया था। दिसंबर 1920 में कांग्रेस ने नागपुर में अपना वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया। इस अधिवेशन में महात्मा ने एक प्रस्ताव रखा जिसमें शांतिपूर्ण तरीकों एवं अहिंसक साधनों के जरिए स्वराज की मांग को लेकर आंदोलन करने की बात गांधी ने की। जिन्ना इस अधिवेशन में शामिल हुए थे।
गांधी ने अहिंसा को हथियार बना ब्रिटिश सत्ता के साथ पूर्ण असहयोग की बात कही। उन्होंने कहा कि भारतीयों को सरकारी नौकरी, सरकारी स्कूल, फैक्ट्रियों इत्यादि छोड़ देनी होगी। सेना और पुलिस में नौकरी करने वालों से भी ऐसा ही आह्नान करने का प्रस्ताव गांधी ने रखा। विदेशी कपड़ों का त्याग और अंग्रेज सरकार से मिले सम्मान इत्यादि भी लौटाने की बात गांधी ने कही। गांधी ने भारतीय समाज से छुआछूत हटाने  का संकल्प भी इस अधिवेशन में लिया। ‘अस्पृश्यता एक अभिशाप है’ की बात गांधी ने पहली बार इसी मंच से कही। गांधी के इस प्रस्ताव को कांग्रेस की नौजवान पीढ़ी से जमकर समर्थन मिला लेकिन बाल गंगाधर तिलक, मोहम्मद अली जिन्ना और ऐनी बेंसट जैसे पुराने कांग्रेसियों ने इसे सिरे से नकार दिया। गांधी लेकिन तब तक कांग्रेस और देश के सबसे बड़े नेता बन उभर चुके थे। जिन्ना ने गांधी को इस असहयोग आंदोलन करने से हरसंभव रोकने का प्रयास इस अधिवेशन में किया लेकिन उनकी एक न चली। हालात इस कदर जिन्ना के खिलाफ हो गए कि उन्हें सभा में बोलने तक नहीं दिया गया। ‘शर्म’, ‘शर्म’ कह सभागार में मौजूद भीड़ ने उन्हें बुरी तरह हूट और अपमानित कर डाला। जिन्ना ने जब गांधी को ‘मिस्टर गांधी’ कह संबोधित किया तो सभागार में मौजूद युवा कांग्रेसियों ने चिल्लाना शुरू कर दिया कि मिस्टर गांधी नहीं महात्मा गांधी कहो। जिन्ना को अंततः मंच छोड़ना पड़ा। गांधी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। इस घटना ने जिन्ना को इस कदर तोड़ा कि उन्होंने कांग्रेस से अपना इस्तीफा दे दिया। इतना ही नहीं उन्होंने मुस्लिम लीग के सम्मेलनों में जाना भी बंद कर दिया। जिन्ना का 1920 में कांग्रेस छोड़ना आगे चलकर इस राष्ट्रवादी नेता के एक कौम विशेष का नेता बनकर उभरने का बड़ा कारण बना।

स्वाधीनता आंदोलन के इस शुरुआती चरण में जल्द ही एक अन्य महत्वपूर्ण किरदार की धमाकेदार इन्ट्री होने जा रही थी। ऐसा व्यक्ति जिसके उग्र विचारों ने आगे चलकर ‘द्वि राष्ट्र सिद्धांत को मजबूती देने का काम किया। यह व्यक्ति थे विनायक दामोदर सावरकर। ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, आजादी के आंदोलन में जिनके योगदान का सही मूल्यांकन होना आज तक बाकी है।

 क्रमशः

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