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Editorial

 गांधी और जिन्ना की पहली ‘अप्रिय’ मुलाकात

पिचहत्तर बरस का भारत-5

महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत लौट कर आ गए थे। उनकी कीर्ति और अफ्रीका में अश्वेत लोगों के लिए किए गए उनके कार्यों की गूंज सुदूर भारत में किवंदतियों समान फैल चुकी थी। मुंबई पहुंचने पर गांधी को अपनी इस ख्याति का अनुमान उनके स्वागत में हुए कई समारोहों से लगा। अपने एक रिश्तेदार को लिखे पत्र में गांधी ने शिकायत करते हुए लिखा ‘मैं इन सम्मान समारोहों में बेहद घुटन महसूस करता हूं। मुझे एक क्षण के लिए भी यहां शांति का अनुभव नहीं होता है। असंख्य लोग मुझसे मिलने आते रहते हैं। इन मुलाकातों से न तो मुझे, न ही मिलने वालों को कोई लाभ होता है।’ 14 जनवरी, 1915 के दिन मुंबई में रह रहे गुजरातियों की गुर्जर सभा ने गांधी के सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को चुना गया था। गांधी और जिन्ना की इस पहली मुलाकात ने भविष्य में इन दोनों के मध्य गहरे अविश्वास और आपसी नापसंदगी के बीज बोने का काम किया। जिन्ना ने अपना स्वागत भाषण अंग्रेजी में देते हुए श्रीमती एवं श्री गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में किए गए कार्यों की सराहना की। उन्होंने कहा कि हिंदू एवं मुस्लिमों ने दक्षिण अफ्रीका में राजनीतिक एवं सामाजिक एकता का प्रदर्शन किया। इसी प्रकार से भारत में भी दोनों को एक होकर काम करना होगा। जिन्ना ने कहा कि ‘That is one problem of all the problems in India, namely, how to bring about unanimity and cooperation between the two comunities so that the demands of India will be made absolutely unanimously’ (यह सब समस्याओं की एक समस्या है कि कैसे भारत के दो मुख्य समाजों, हिंदू और मुस्लिम को एक किया जाए ताकि भारत की सभी मांगों को एक स्वर और एक समान स्वीकार्यता के साथ उठाया जा सके)।

गांधी ने अपना भाषण गुजराती में दिया। उन्होंने अंग्रेजी भाषा के बजाए भारतीय भाषाओं पर बातचीत किए जाने पर जोर देते एक ऐसी बात कह डाली जिसने न केवल जिन्ना को आहत करने का काम किया बल्कि जिन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर भी कुठाराघात कर दिया। गांधी ने कहा कि उन्हें ‘एक ऐसे मुसलमान को देख कर खुशी हुई है जो न केवल अपने इलाके की किसी सभा का सदस्य है, बल्कि उसका सभापति भी है।’ गांधी ने जिन्ना की काबिलियत, उनकी राष्ट्रवादी सोच पर कुछ कहने के बजाए उनके धर्म को क्यों चिन्ह्ति किया यह शोध का विषय है। इतिहासकार इसे अपने-अपने नजरिए से देखते हैं लेकिन एक बात से सभी सहमत हैं कि भविष्य के इन दो बड़े नेताओं के मध्य गहरे आपसी अविश्वास और एक-दूसरे के प्रति नफरत के बीज इसी एक वक्तव्य के चलते पड़ गए थे जो अगले तीन दशक तक बने रहे, फूले-फूले। जिन्ना के लिए इससे ज्यादा अपमानजनक भला क्या हो सकता था कि उनकी चहुंमुखी प्रतिभा को दरकिनार कर गांधी ने उनकी पहचान उनके अल्पसंख्यक समुदाय तक सीमित कर डाली। जिन्ना के जीवनीकार स्टेनले वोलपर्ट लिखते हैं ‘That first Statement of Gandhi’s set the tone of their relationship, always at odds with deep tension and mistrust, underlying its superficially polite manners, never friendly, never cordial. They seem always to be sparring even before they put on any gloves. It was as if, subconsciously they recognized one another as ‘Natural enemies’, rivals for National power, popularity and charismatic control of their andiences (गांधी के जिन्ना की बाबत इस पहले बयान ने यह तय कर दिया कि दोनों के मध्य भविष्य में कैसे रिश्ते रहेंगे। ऊपरी तौर पर दोनों एक दूसरे के प्रति शिष्ट रहे लेकिन भीतर ही भीतर दोनों के मध्य गहरा अविश्वास और तनाव बढ़ता गया। ऐसा लगता है कि इस पहली ही मुलाकात ने दोनों ने एक-दूसरे को अपना ‘स्वभाविक शत्रु’ मान लिया था। दोनों के मध्य राष्ट्रीय स्तर पर अपनी लोकप्रियता, राजनीतिक सत्ता अथवा अपने-अपने अनुयायियों पर प्रभाव बनाए रखने की होड़ हमेशा चलती रही।)
गांधी की स्वदेश वापसी 1915 में हुई। उनकी और जिन्ना की पहली मुलाकात ‘अप्रिय’ रही। जिन्ना के राजनीति में हीरो दादाभाई नौरोजी, सर फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले थे। वे सबसे अधिक दादाभाई नौरोजी के करीब थे। दादाभाई को जिन्ना एक नायक की तरह देखते थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अध्यक्ष नौरोजी 1892 में लिबरल पार्टी की तरफ से ब्रिटिश संसद के सदस्य बनने वाले पहले भारतीय थे। जिन्ना लंदन में वकालत की पढ़ाई करने के दौरान ही नौरोजी से जुड़े थे। बतौर संसद सदस्य नौरोजी के सहायक बतौर जिन्ना को काम करने का अवसर मिला था। ठीक इसी प्रकार जिन्ना पारसी समाज के एक अन्य दिग्गज सर फिरोज शाह मेहता के भी संपर्क में लंदन में ही आए। सर मेहता एक उच्च कोटी के वकील, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक और 1890 में उसके अध्यक्ष भी रहे। सर मेहता के लंदन स्थित चैंबर में जिन्ना ने कुछ अर्से काम भी किया था। सर मेहता के एक अत्यंत करीबी कांग्रेसी नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे। जिन्ना पहली बार 1904 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान गोखले से मिले थे। गोखले के उदारवादी विचारों और उनके व्यवहार ने कहीं भीतर तक जिन्ना को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने खुद के लिए ‘राजनीति में मुसलमान गोखले’ बनने की बात कह डाली थी।
1915 में गांधी का दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत लौटने के अलावा दो अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं भविष्य के जिन्ना की नींव तैयार करने वाली रही। फरवरी, 1915 में गोखले का देहांत हो गया। इस कुछ समय बाद ही सर फिरोज शाह मेहता भी चल बसे। दादा भाई नौरोजी इस वक्त तक काफी बीमार रहने लगे थे और लगभग बिस्तर में जा लगे थे। अपने इन तीन ‘मार्गदर्शकों’ की अनुपस्थिति चलते जिन्ना कांग्रेस भीतर हाशिए में पहुंच गए। उनका झुकाव और प्रभाव मुस्लिम लीग में जरूर बढ़ने लगा था। 1916 लेकिन जिन्ना के लिए खुशगवार वर्ष रहा। एक बार फिर से वे राजनीति में चमकने लगे। इस वर्ष वे बंबई से दोबारा वायसराय काउंसिल के लिए चुने गए। यह वह दौर था जब कांग्रेस की कमान मोतीलाल नेहरू के हाथों में थी और मोतीलाल भी हिंदू-मुस्लिम एकता बनाए रखने का भरसक प्रयास कर रहे थे। उन्होंने अपै्रल, 1916 में अपने इलाहाबाद स्थित विशाल भवन में कांग्रेस और लीग के नेताओं की एक बैठक बुलाई। इस बैठक में जिन्ना के प्रति अतिशय उदारता दिखाते हुए मोतीलाल नेहरू ने कहा कि ‘अधिकांश मुसलमानों के विपरीत जिन्ना हमारी तरह के ऐसे प्रचंड राष्ट्रवादी हैं जो अपने समुदाय को हिंदू-मुस्लिम एकता का मार्ग समझा रहे हैं।’
1916 के अंत में जिन्ना मुस्लिम लीग के अध्यक्ष चुन लिए गए। बतौर लीग अध्यक्ष उनकी सबसे बड़ी सफलता ‘लखनऊ करार’ रहा। यह करार कांग्रेस और लीग के मध्य दिसंबर, 1916 में हुआ। दोनों ही दलों के संयुक्त अधिवेशन में रजामंदी बन गई कि विभिन्न प्रदेशों की विधान परिषदों में अल्पसंख्यकों के लिए उनकी आबादी के अनुसार सीटें आरक्षित की जाएं। स्मरण रहे 1909 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बनाए गए ‘इंडियन काउंसिल एक्ट’ में पहले से ही इस प्रकार के आरक्षण की  व्यवस्था कर दी गई थी लेकिन कांग्रेस ने तब इसका अंग्रेजों की ‘फूट डालो शासन करो’ नीति करार देते हुए विरोध किया था। दिसंबर, 1916 के संयुक्त अधिवेशन में कांग्रेस के वयोवृद्ध लेकिन गरमपंथी नेता बाल गंगाधर तिलक और लीग के अध्यक्ष जिन्ना के संयुक्त प्रयासों चलते यह करार दोनों दलों के मध्य हो गया। जिन्ना ने इस ऐतिहासिक करार पर लीग के अधिवेशन में बोलते हुए कहा था कि ‘ ़ ़ ़मुस्लिम लीग के सज्जनों को याद रखना होगा कि उनका समाज और पूरे देश का ध्यान इस समय उन पर टिका हुआ है। जो भी निर्णय आप आज इस ऐतिहासिक सम्मेलन में लेंगे, इसका प्रभाव भारत के भविष्य, भारत की एकता और हमारे समान लक्ष्यों और संवैधानिक स्वतंत्रता की हमारी उम्मीदों पर पड़ेगा।’
कांग्रेस का अधिवेशन, लीग के इस अधिवेशन से कुछ दिन पहले ही इसी जगह, लखनऊ के केसरबाग मैदान में संपन्न हुआ था। कांग्रेस में गरम दल के नेता के रूप में स्थापित हो चुके बाल गंगाधर तिलक ने भी ‘लखनऊ करार’ पर अपनी पूरी सहमति दर्ज कराते हुए कहा कि ‘हम हरेक के साथ मिलजुल कर अपने मकसद को पाने के लिए काम करने को तैयार हैं। मैं तो ब्रिटिश नौकरशाही के समक्ष भी हाथ फैलाने के लिए तैयार हूं यदि वह हमारे लिए कोई हितकारी योजना लेकर आती है।’ जिन्ना और तिलक की जुगलबंदी यदि हिंदू-मुस्लिम एकता के सहारे ‘स्वराज’ की दिशा में आगे कदम बढ़ा रही थी तो नियति अपना अलग ही खेल रखने में व्यस्त थी। ऐसा खेल जो आगे चलकर जिन्ना और गांधी के मध्य भीषण टकराव, हिंदू-मुस्लिम एकता के जबरदस्त पैरोकार जिन्ना के ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ की तरफ मजबूती से आगे बढ़ने और अंततः भारत-पाक विभाजन का कारक बना।
क्रमशः

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