पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-14
पांच फरवरी, 1922 के दिन ‘चौरी चोरा’ में हुई भारी हिंसा से विचलित महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित करने का मन बना लिया था। 12 फरवरी, 1922 को कांग्रेस ने इसकी औपचारिक घोषणा भी कर दी। अंग्रेज सरकार को इस आंदोलन की वापसी ने ताकत देने का काम किया और सही समय मानते हुए सरकार ने गांधी को 10 मार्च, 1922 के दिन अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम से गिरफ्तार कर डाला। 18 मार्च, 1922 को गांधी पर आंदोलन के दौरान सरकार के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने और ‘यंग इंडिया’ में उत्तेजक लेख लिखने के आरोपों पर मुकदमा शुरू हुआ। महात्मा इस आंदोलन के दौरान हुई हिंसा से इस कदर व्यथित थे कि उन्होंने बगैर कोई प्रतिवाद किए अपने ऊपर लगे सभी आरोपों को स्वीकार लिया। वर्तमान समय में जब इतिहास के पुर्नलेखन का प्रयास अपने चरम पर है तब गांधी के असल व्यक्तित्व और उनके चरित्र पर प्रकाश डालना बेहद आवश्यक हो जाता है। एक तरफ काला पानी की सजा काट रहे सावरकर हैं तो दूसरी तरफ गांधी। सशस्त्र क्रांति के जरिए भारत को आजादी दिलाने का सपना देखने वाले सावरकर अपनी गिरफ्तारी और सजा के मात्र दो महीनों बाद ही अंग्रेज हुकूमत के समक्ष पूरी तरह समर्पण कर चुके हैं, बार-बार माफीनामा भेज अपनी रिहाई की गुहार लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ अहिंसक तरीकों से अग्रेज सत्ता संग लोहा से रहे गांधी हैं जो खुद को गुनहगार मानते हुए अहमदाबाद की एक अदालत से यह कह रहे हैं कि उन्हें कठोरतम सजा दी जाए। महात्मा गांधी ने अदालत में दिए अपने बयान में कहाः ‘एडवोकेट जनरल ने जो भी आरोप मुझ पर आरोपित किए हैं उन्हें मैं स्वीकारता हूं। बॉम्बे, मद्रास और चौरी चोरा की घटनाओं के बारे में रात दर रात मैं सोचता रहता हूं।
चौरी चौरा में घटित पैशाचिक हिंसा अथवा बॉम्बे के पागल आक्रोश से खुद को अलग कर पाना मेरे लिए संभव नहीं है। एडवोकेट जनरल सही कहते हैं कि एक जिम्मेदार व्यक्ति, शिक्षित व्यक्ति होने के नाते एवं इस दुनिया के अनुभवों के आधार पर मुझे पता होना चाहिए था कि मैं आग से खेल रहा हूं और मुझे अपने कृत्यों के अंजाम का पता होना चाहिए था। मैं हिंसा से हर कीमत पर बचना चाहता हूं। अहिंसा मेरे विश्वास का पहला आधार है। यह मेरे विश्वास का अंतिम पृष्ठ भी है। लेकिन मुझे दो विकल्पों में से एक को चुनना था। या तो मैं ऐसी सत्ता के समक्ष समर्पण कर दूं जो मेरे देश के साथ अपूरणीय क्षति कर रही हो या फिर मैं यह जोखिम उठाऊं कि मेरे अपने लोग अपने क्रोध को काबू में रखकर मेरी बात को समझ आचरण करें। मैं मानता हूं कि मेरे अपने लोगों ने पागलपन का परिचय दिया इसलिए मैं उनके इस आचरण के लिए क्षमा मांगते हुए, खुद के लिए अधिकतम सजा दिए जाने की मांग करता हूं। मैं सरकार से माफी नहीं मांग रहा हूं, न ही मैं इन घटनाओं की जिम्मेदारी लेने से बचना चाहता हूं। मैं इस अदालत से मांग करता हूं कि कानून की दृष्टि से जो जान-बूझकर किया गया अपराध है और मेरी दृष्टि से एक नागरिक का पुनीत कर्तव्य, उसकी मुझे अधिकतम सजा दी जाए’ यह है उस महात्मा का चरित्र जिन्हें आज के दौर में गलत साबित करना और उनके हत्यारों का महिमामंडन करना चरम पर होता नजर आ रहा है। गांधी के आचरण से प्रभावित जज राबर्ट ब्रूमफील्ड ने अपना निर्णय सुनाने से पूर्व कहा था ‘The law is no respector of persons. Nevertheless it will be impossible to ignore the fact that you are in a different category from any person I have ever tried or am likely to have to try'(कानून व्यक्तियों का सम्मान नहीं करता लेकिन सच को नजरअंदाज करना असंभव है कि आप एक अलग किस्म के व्यक्ति हैं। ऐसे व्यक्ति जिनका मुकदमा मैंने अभी तक सुना है या शायद भविष्य में सुनूंगा) गांधी को जज ब्रूमफील्ड ने आठ वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई। उन्हें यरवदा जेल भेजा गया। यह वही जेल थी जहां काला पानी के बाद सावरकर को रखा गया था और उनके माफीनामे के बाद इसी जेल से उन्हें रिहाई मिली थी। सावरकर के समान ही महात्मा के संग भी बुरा बर्ताव यहां किया गया। रार्बर पायने अपनी पुस्तक ‘The life and death of mahatma Gandhi’ में लिखते हैं कि इस जेल में गांधी के निजी अंगों को छेड़ा गया और उनके खाने के बर्तन को जेलर ने अपने पैरों से ठोकर मार गांधी को अपमानित करने का प्रयास किया। लगभग दो वर्ष बाद महात्मा के बिगड़ते स्वास्थ और देश भर में उनकी गिरफ्तारी से उपजे आक्रोश को देखते हुए 11 जनवरी, 1924 को ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया था।
असहयोग आंदोलन की विफलता और खिलाफत आंदोलन के समाप्त हो जाने बाद एक बार फिर से हिंदू-मुस्लिम एकता टूटने लगी थी। इस दौर में स्वाधीनता संग्राम के दो नायक गांधी और जिन्ना अलग-अलग कारणों से निराशा और अवसाद की स्थिति में पहुंच चुके थे। 1920 में कांग्रेस से इस्तीफा दे चुके जिन्ना के अपनी पत्नी रुत्तीबाई संग तेजी से संबंध बिगड़ने लगे थे। मुस्लिम लीग संग भी उनका मोहभंग हो चला था और एक बार फिर से उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति के बजाए अपनी वकालत के व्यवसाय पर ज्यादा समय देना शुरू कर दिया था। अहिंसा के सिद्धांत को अस्वीकार कर असहयोग आंदोलन में भारी पैमाने पर भड़की हिंसा के चलते गांधी भी खुद को बेहद असहाय पा रहे थे। जेल से रिहाई के बाद बॉम्बे (अब मुंबई) में अपने एक मित्र के यहां रह रहे महात्मा ने शायद असहयोग आंदोलन की असफलता, खिलाफत आंदोलन के जरिए हिंदू-मुस्लिम एकता के उनके विफल हो चुके प्रयासों और स्वराज्य की मांग को दरकिनार किए जाने के चलते अत्यंत अवसाद के क्षणों में जर्मनी के महान कवि, नाटककार योहान वुल्फगांग फान गेटे रचित नाटक फाउस्ट (Faust by Johann wolfgang von Goethe) की निम्न व्यक्तियों को अपनी डायरी में, खुद की स्थिति बयान करते हुए उतारा थाः
My peace is gone, and my heart is sore, I have lost him, and lost him, for evermore./The place, where he is not, to me is the tomb./The world is sadness and sorrow and gloom./My poor sick brain is crazed with pain;/and my poor sick heart is torn in twain/My peace is gone, and my heart is sore,/for lost is my love for ever more.
(मेरी शांति चली गई है और मेरा दिल दुखी है। मैंने उसे खो दिया है और उसे हमेशा के लिए खो दिया है। ऐसी जगह जहां वह नहीं है, मेरे लिए मकबरे समान है। दुनिया दुख और दुख और उदासी है। मेरा दिमाग बीमार और दर्द से पागल हो चला है। और बेचारा दिल दो टुकड़ों में बंट गया है। मेरी शांति चली गई है, और मेरा दिल घायल है। क्योंकि मैंने अपना प्यार हमेशा के लिए खो दिया है।)
महात्मा गांधी के स्वदेश आगमन और कांग्रेस की कमान संभालने के बाद एक बात निर्विवाद तौर पर स्थापित होती है कि गांधी ने राष्ट्रीय स्वतत्रंता संग्राम आंदोलन को सीधे जनता से जोड़ पूरे आंदोलन को जन आंदोलन में बदलने का काम किया था। ऐसा जनआंदोलन जिसने न केवल विभिन्न धर्मों, जातियों और उपजातियों में बंटे समाज को एकता के सूत्र में पिरोया बल्कि उसे पूरी तरह अहिंसक मार्ग में ले जाकर अंग्रेज हुकूमत के समक्ष भारी नैतिक दबाव भी पैदा करने का काम किया। गांधी के वचारों का विरोध, उनके कांग्रेस का नेतृत्व संभालने के साथ ही पार्टी के भीतर से और कांग्रेस से इतर स्वाधीनता संग्राम में हिस्सेदारी कर रही अन्य विचारधाराओं द्वारा शुरुआती दौर से ही किया जाने लगा था। कांग्रेस के भीतर बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट, विपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय गांधी के विचारों से और उनकी नीतियों से गहरी असहमति रखते थे।
मोहम्मद अली जिन्ना तो इस चलते 1920 में कांग्रेस से बाहर ही चले गए। कांग्रेस से बाहर हिंदू राष्ट्रवादी नेताओं की जमात जिनको गांधी के तौर तरीकों पर ऐतबार नहीं था और जो बाल गंगाधर तिलक के हिंदू जागरण के मार्ग से प्रभावित होकर सशस्त्र क्रांति के जरिए अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते थे। ऐसों का नेतृत्व विनायक दामोदर सावरकर के हाथों में था। ‘खिलाफत आंदोलन’ को कांग्रेस का समर्थन ऐसों की दृष्टि में मात्र मुस्लिम तुष्टीकरण था जिसके लिए वे गांधी को दोषी मानते थे। उग्र हिंदुत्ववादियों के अलावा गांधी की नीतियों को संदेह की नजर से एक अन्य समूह भी देख रहा था। यह समूह साम्यवादियों का था जो हिंदू जागरण के जरिए क्रांति के बजाए वर्ग संघर्ष को क्रांति का मूल आधार बना अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जमीन तैयार करने में विश्वास रखता था। 1922 से 1930 के मध्य इन दोनों ही समूहों ने स्वाधीनता संग्राम के अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में विस्तार पाने का काम किया और इसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली लेकिन 1930 में ‘सविनय अवज्ञा’ आंदोलन की शुरुआत के साथ ही एक बार फिर से महात्मा गांधी और कांग्रेस इस स्वाधीनता संग्राम के सिरमौर बन गए।