चीन और हमारे मुल्क के मध्य वर्तमान में गंभीर तनाव के पीछे एक लंबा इतिहास है जिसकी जड़ में है चीन की Emperialistic सोच, विस्तारवादी सोच। पूरे देश में इस समय चीन को लेकर जनमानस उबल रहा है। हमारे 20 जांबाज गलवान घाटी में चीन की इसी नापाक सोच के चलते शहीद हो गए हैं। जाहिर है वर्तमान प्रधानमंत्री पर अगाध आस्था रखने वालों के लिए यह बड़ा आघात है, वज्रपात समान है क्योंकि एक माहौल सा रचा जा चुका था कि चीन और भारत के मध्य अब बराबरी के रिश्ते हैं। 2017 में अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे झूला झूलते पीएम मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की तस्वीरें सरल हृदय भारतवासियों के मन में मोदी जी के प्रति भक्ति भाव को कई गुना करने वाली रहीं। चीन लेकिन अपनी आदत से बाज नहीं आया। नेहरूजी के पंचशील के सिद्धांत को धता बताने वाले चीन ने एक बार फिर से मित्रता की आड़ लेकर अपनी Emperialistic सोच को आगे बढ़ा डाला। राजघाट में चिर निद्रा में लीन ‘साबरमती का संत’ शायद मोदी-जिनपिंग को झूला झेलते देख बेचैन हो रहा होगा, समझ रहा होगा कि एक बार फिर चीन छल करेगा। तब नेहरूजी धोखा खा गए थे, इस बार मोदी जी।
बहरहाल चीन के साथ भारत के रिश्तों को समझने से पहले चीन को, उसकी मानसिकता को समझना जरूरी है। सूचना क्रांति के वर्तमान दौर में इतना कोलाहल होने के बावजूद अधिकांश न तो इस मानसिकता से परिचित हैं, न ही दोनों देशों के बीच विवाद के कारणों से। चाहिए मिलकर प्रयास करें ताकि अतीत से लेकर वर्तमान तक की घटनाओं को समझ सकें और समझ सके उस सच को जिसे छिपाया जा रहा है।
हम अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुए 1947 में, दो वर्ष बाद आज का चीन जन्मा, 1 अक्टूबर 1949 के दिन। चीन के क्रांतिकारी नेता माओ ने इस दिन राष्ट्रवादी नेता चियांग काई-शेक की सरकार को सत्ता से हटाकर People’s Republic of China की नींव रखी। अमेरिका ने कम्युनिस्ट माओ के बजाय तब चियांग काई-शेक को अपना समर्थन दिया था जिसके चलते माओ का शासन आने के साथ ही अमेरिका-चीन के संबंध बिगड़ते चले गए। 1967 तक अमेरिका ने चीन को एक राष्ट्र के रूप में न तो मान्यता दी, न ही किसी प्रकार के Diplomatic relations रखे।
France ds Legendry Leader Nepolean Bonapart ने माओ के सत्ता संभालने से डेढ़ सौ बरस पहले ही कह डाला था। “China is as sleeping giant let her sleep, for when she wakes, she will move the world.” और आज हम देख रहे हैं, ठीक ऐसा ही हुआ। चीन एक बड़ी सैन्य, उससे भी बड़ी आर्थिक ताकत बन उभर चुका है। वह इतना बड़ा हो गया है कि उसके यहां जन्मे एक Virus ने पूरे विश्व को थर्रा डाला है। हमारे और चीन की सोच में भारी फर्क, हमें चीन के हाथों बार-बार धोखा खाने को मजबूर कर देता है। हमारी सोच ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की ही। हमारा इतिहास पलट कर देख लीजिए, कोई हमला हमारे द्वारा किसी अन्य देश की जमीन कब्जाने के लिए कभी नहीं किया गया। हमारा इतिहास एक बार फिर पढ़िए। क्या पाएंगे, हमने 16 बार के आक्रान्ता मोहम्मद गौरी को 16 बार पकड़कर छोड़ दिया, 17वीं बार वह हमारे सोमनाथ मंदिर का सोना लूट पाया और उसने कई रियासतों पर कब्जा कर लिया। और पहले जाएं तो राम ने लंका जीती लेकिन सब कुछ विभीषण को सौंप वापस लौट आए। नजदीक का इतिहास पाकिस्तान का है। 1971 में हमारी सेनाएं लाहौर के निकट पहुंच गई थी। 93,000 पाकिस्तानी सिपाही हमने छोड़ दिए। यह हमारी वृहद सोच का परिचायक है। दूसरी तरफ चीन है जिसकी सोच माओ के इस सिद्धांत से स्पष्ट हो जाती है कि “There can not be two suns in the SKY nor two Emperorr on the Earth.”
इस मानसिकता वाले चीन से आप सौहार्द और मित्रता के संबंधों की अपेक्षा नहीं कर सकते। यदि करेंगे तो ट्टाखा ही मिलेगा। 1962 में ऐसा ही हुआ था। बासठ के युद्ध से पहले भारत की पूरी कोशिश अपने इस पड़ोसी देश के साथ दोस्ती रखने की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1954 में चीन के पांच मुद्दों पर Agreement किया। यह पांच सिद्धांत थेः-
1. एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र वाले इलाकों को मान्यता देना
2. एक-दूसरे पर आक्रमण न करना
3. एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल न देना
4. एक-दूसरे को बराबरी का दर्जा देना
5. शांतिपूर्वक आपसी मतभेजों को हल करना।
इस पंचशील समझौते के बाद नेहरूजी ने ‘हिदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया।
चीन का कम्युनिस्ट नेतृत्व 1949 के बाद एक तरफ अपने को सैन्य और आर्थिक रूप से मजबूत करने में जुटा था तो दूसरी तरफ अपने साम्राज्य का विस्तार भी करने लगा था। तिब्बत पर उसकी निगाहें सबसे पहले पड़ी। 1950 में ही उसने तिब्बत को अपना इलाका घोषित कर डाला था।
चीन के इरादों को भांप कर 1949 में तिब्बत की सरकार ने चीन संग किसी भी प्रकार के संबंट्टा न रखते हुए अमेरिका, चीन (माओ) और ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर स्पष्ट किया कि वे चीन की किसी भी प्रकार की दखलअंदाजी का विरोध करेंगे। शांत प्रकृति के तिब्बती देर से जागे। उन्होंने अपनी सेना को Modern करने का का प्रयास भी किया लेकिन चीन उन पर भारी पड़ा। दिसंबर 1949 में माओ के आदेश पर चीन की सेना ने तिब्बत की तरफ कूच कर दिया। तिब्बत की सरकार जिसके प्रमुख थे 14वें दलाई लामा, ने चीन से समझौते की बात शुरू की। इस समझौते की बातचीत चीन बैजिंग करना चाहता था। दलाई लामा तैयार नहीं हुए। वे सिंगापुर, हांगकांग में इस बातचीत को चाहते थे। ब्रिटेन ने भारत में बातचीत की बात कही। तिब्बत सरकार को एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली पहुंचा। भारत में चीन के राजदूत से उसने मुलाकात की। चीनी राजदूत जनरल यूआन ने तीन शर्तें रखी 1. तिब्बत चीन का हिस्सा बने, 2. तिब्बत की रक्षा का काम चीन की सेना करे, 3. चीन तिब्बत के व्यापार और विदेशी मामलों को संभाले। यदि ऐसा नहीं तो तिब्ब्त युद्ध के लिए तैयार रहे। तिब्बत इसके लिए तैयार नहीं था। वह चीन का हिस्सा बनने के बजाय चीन संग नजदीकी रिश्ते बनाना चाहता था जिसे “Priest-Patron Relationship” कहा गया। चीन की सेना को भी वह तिब्बत में रखने को राजी नहीं था। अभी वार्ता चल ही रही थी कि चीन ने अपनी फौज को तिब्बत में घुसने का आदेश दे डाला। तिब्बत को आखिरकार चीन के आगे झुकना पड़ा। 23 मई 1951 को Seventeen Point Agreement चीन और तिब्बत ने साइन किया। इस समझौते के तहत दलाई लामा ने चीन के आगे समर्पण कर दिया। नतीजा तिब्बत एक तरीके से चीन का हिस्सा बना। दलाई लामा Local Government के प्रमुख बने रहे। यहां एक महत्वपूर्ण बात यही रही कि चीन को खुश रखने की नीयत से भारत ने युनाइटेड नेशन्स में Elsalvador द्वारा लाए गए प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया। शायद तभी चीन को UNO में घेरा जाता तो शायद आज का परिदृश्य कुछ और होता।