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Editorial

हर कीमत पर आजादी और सुभाष बोस

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-30

….बशीर अहमद की इस तरह की बातों से शिव दुलारी देवी जैसे कांग्रेस के लोग भड़क गए और गुस्से में उसका विरोध करने लगे। यह कहने पर कि जिन्ना गांधी के बाद की जगह के लिए यह सब कुछ कर रहा है, बशीर भी भड़क गया। उसने कहा कि जिन्ना क्या गांधी से कम है, दोनों का दर्जा बराबर है, अगर कांग्रेस ने अपनी नीति नहीं बदली तो बंटवारा तय है।’

इस उपन्यास का एक अन्य पात्र है नव युवक जगत प्रकाश जो अर्थशास्त्र में इलाहाबाद विश्व विद्यालय से पीएचडी कर रहा है। हितेंद्र पटेल इस पात्र की बाबत लिखते हैं ‘जगत प्रकाश को ऐसा लगता है कि गांधी के भीतर मुसलमानों और जिन्ना के प्रति आक्रोश है। उन्हें पता है मुसलमानों में राष्ट्रवाद की भावना नहीं है। उन्होंने मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन में खिलाफत के माध्यम से लाने की कोशिश की, शुरू में उन्हें कुछ सफलता भी मिली, पर बाद में अंग्रेजों की चालाकी के कारण वे राष्ट्रीयता से दूर हो गए। फिर भी कुछ मुसलमान गांधी के साथ रहे, पर फिर जिन्ना आ गए। जिन्ना योग्य था, ईमानदार था, जिन्ना में विद्रोह था, लेकिन जिन्ना मुसलमान था।……..उसे यह भी लगता है कि गांधी द्वारा नेहरू को महत्व देने के कारण जिन्ना एक साम्प्रदायिक व्यक्ति बने। वे संकीर्ण मुसलमान नहीं हैं, लेकिन उनमें ईगो है और वे महत्वाकांक्षी हैं। आज इसके कारण देश में विभाजन के लिए वे तैयार हैं।…….गांधी ने तमाम कोशिशें की, उन्हें कायद-ए-आजम भी कहा, लेकिन गांधी उन्हें अपने घेरे में नहीं ला पाए। हर स्तर पर जिन्ना गांधी का विरोध कर रहे हैं। दोनों के बीच एक व्यक्तिगत युद्ध-सा चल रहा है।’

इस कालखंड का साहित्य और इतिहास, दोनों इस बात की पुष्टि करते हैं कि गांधी के बराबर का दर्जा हासिल करने की महत्वाकांक्षा ने न केवल एक बेहद खुले विचारों, धर्मनिरपेक्ष और उच्च श्रेणी के विद्वान मोहम्मद अली जिन्ना को कट्टरपंथ की राह पर धकेल दिया बल्कि वे एक ऐसा इतिहास पुरुष बनने से भी चूक गए जिनमें गैर कांग्रेसी ताकतों को एक करने की भरपूर क्षमता थी। यदि वे ऐसा करते तो शायद आजाद भारत में भी ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था की तरह दो दलीय व्यवस्था भी कायम होती और देश का विभाजन भी न होता। द्वितीय विश्व युद्ध के कालखंड में एक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग से इतर सशस्त्र विद्रोह के जरिए भारत की आजादी का प्रयास करने में जुटा हुआ था। यह व्यक्ति थे सुभाष चंद्र बोस। कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद बोस 1941 में ब्रिटिश खुफिया पुलिस को चकमा देकर अफगानिस्तान के रास्ते पहले सोवियत संघ और वहां से जर्मनी जा पहुंचे थे। यहां उन्होंने जर्मनी की कैद में रह रहे 45,000 ब्रिटिश भारतीय सेना के सिपाहियों संग मिलकर इंडियन लिजियन (Indian Legion) का गठन किया। इस संगठन का लक्ष्य द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर की नाजी सेना संग ‘मित्र राष्ट्रों’ की सेना के खिलाफ लड़ाई में भाग लेना और समय आने पर हिटलर की मदद से भारत को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराना था। इस फौज द्वारा ली जाने वाली शपथ इस बात की पुष्टि करती है कि बोस जर्मनी की मदद से ब्रिटिश सेना के खिलाफ युद्ध करने की तैयारी कर रहे थे। इस शपथ में हिटलर के प्रति निष्ठा की बात कही गई थी- ‘I swear by god this holy oath that I will obey the leader of German race and State, Adolf Hitler, as the commander of the German armed forces in the fight for India whose leader is Subhas Chandra Bose’ (मैं ईश्वर के नाम पर यह पवित्र शपथ लेता हूं कि मैं भारत के लिए लड़ाई में जिसका नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस कर रहे हैं, जर्मन सशस्त्र बलों के कमांडर के रूप में जर्मन जाति और देश के नेता एडॉल्फ हिटलर की आज्ञा का पालन करूंगा)। बोस जर्मनी की मित्र राष्ट्रों पर संभावित जीत के बाद भारत की आजादी का सपना देख रहे थे। यहां यह प्रश्न उठता है कि यदि द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी की जीत हो भी जाती तो क्या वह अंग्रेजों से हासिल किए गए भारत को आजाद छोड़ देता? बहरहाल 1942 के मध्य तक जर्मनी की स्थिति खराब होने लगी और बोस का संदेह गहराने लगा कि हिटलर भारत की मदद करने के बजाए जर्मनी के हितों की रक्षा के लिए उनका उपयोग कर रहा है। फरवरी, 1943 में बोस जर्मनी का आसरा त्याग जापान से मदद लेने के लिए वहां की यात्रा पर निकल गए। ‘इंडियन लिजियन’ के 45,000 सैनिकों को नेताविहीन और लावारिस जर्मनी में छोड़ जापान पहुंच बोस ने ‘आजाद हिंद फौज’ का पुनर्गठन किया जिसकी नींव द्वितीय विश्व युद्ध के शुरुआती काल में उनके भाई रास बिहारी बोस ने रखी थी। जापान ने बोस को न केवल समर्थन दिया, बल्कि अपने साम्राज्य की पूरी ताकत भी बोस को स्थापित करने के लिए लगा दी। अक्टूबर, 1943 में बोस ने जापान के नियंत्रण वाले सिंगापुर में भारत की पहली निवार्सित सरकार का गठन कर डाला जिसके प्रधानमंत्री स्वयं सुभाष बोस बने। इस सरकार को धुरी राष्ट्रों-जर्मनी, जापान, इटली, क्रोशिया आदि ने अपना समर्थन दे बोस का कद बढ़ाने का काम किया। जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री तोजो हिदेकी (To Jo Hideki) संग बोस की 10 जून, 1943 के दिन हुई पहली ही मुलाकात बेहद सफल रही। बोस और तोजो के मध्य बर्मा के रास्ते ब्रिटिश भारत में सैन्य हस्तक्षेप को लेकर गहन विचार-विमर्श इस बैठक में हुआ। बोस चाहते थे कि जापानी सेना की मदद से आजाद हिंद फौज पूर्वोत्तर भारत में प्रवेश कर जाए। जापान 1942 में ही ब्रिटिश सेना को परास्त कर बर्मा में काबिज हो चुका था। अगस्त, 1943 में उसने बर्मा की सत्ता वहां के राष्ट्रवादियों के हवाले कर दी थी लेकिन जापानी सेना वहां रही। बर्मा की तर्ज पर ही बोस जापान की सैन्य मदद से भारत को आजाद कराने की रणनीति बना रहे थे।

1943-44 के दौरान जापानी सेना ने पूर्वी असम के इम्फाल (अब मणिपुर राज्य की राजधानी) क्षेत्र से भारत में घुसने के कई बार प्रयास किए लेकिन उसे इसमें सफलता नहीं मिली। 1945 आते-आते बुरी तरह थक चुकी जापानी सेना अंततः वापस लौट गई और सुभाष चंद्र बोस की सशस्त्र विद्रोह की कल्पना ध्वस्त हो गई। बोस के इन प्रयासों से कांग्रेस पूरी तरह असहमत थी। ब्रिटिश सरकार को युद्धकाल में समर्थन न दिए जाने के अपने निर्णय पर अटल कांग्रेस ने ‘धुरी राष्ट्रों’ से बोस की मित्रता और विदेशी ताकतों के दम पर भारत को आजाद कराए जाने की योजना को भी पूरी तरह से गलत करार दिया। 2 अगस्त, 1942 के ‘हरिजन’ में प्रकाशित गांधी के एक लेख से इसे समझा जा सकता है। गांधी ने लिखा- ‘…he is wrong… “Liberty at any cost” has a vastly different connotation for me from what it has for him”. “At any cost” does not exist in my dictionary. It does not for instance include foreigners in order to help us win our liberty… the Allies… must face the opposition of those who can not tolerate their rule and are prepared to die to get rid of it… I have made up my mind that it would be a good thing if a million people were shot in a brave and non-violent rebellion against British rule… I do not feel flattered when Subhas Babu says I am right. I am right in the sense he means. For there he is attributing pro Japanese feeling to me… As regards the Japanese, I am certain that we should lay down our lives in order to resist them as we would to resist the British’…(वह गलत हैं …..‘हर कीमत पर आजादी’ का अर्थ मेरे लिए उनकी बनिस्पत अलग ही मायने रखता है। ‘‘हर कीमत पर’’ शब्द मेरे शब्दकोष में है ही नहीं। उदाहरण के लिए विदेशियों को शामिल कर आजादी प्राप्त करना मेरे लिए संभव नहीं।……‘मित्र राष्ट्रों’ को ऐसों के विरोध का सामना करना ही पड़ेगा जो उनके शासन को सह नहीं पा रहे हैं और उनके मुक्ति के लिए मरने तक को तैयार हैं।……मैंने अपना फैसला ले लिया है कि यह अच्छा होगा कि दस लाख लोग एक अहिंसक आंदोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार की गोली खा मर जाएं ़…..मैं प्रसन्न नहीं होता हूं जब सुभाष कहते हैं कि मैं सही हूं। सुभाष जो कहना चाह रहे हैं उस दृष्टि से मैं सही नहीं हूं। वह जापान के प्रति मेरे सद्भाव की बात कर रहे हैं।……जहां तक जापानियों का प्रश्न है, मैं निश्चित हूं कि हमें उनसे अपनी रक्षा करते हुए प्राणों की आहूति देने के लिए तैयार रहना होगा, वैसे ही जैसे हम ब्रिटिश का विरोध करते हुए करना चाहते हैं)।

जवाहर लाल नेहरू ने गांधी के विचारों की पुष्टि करते हुए 24, अप्रैल, 1942 को गुवाहाटी में पत्रकारों से कहा-‘हिटलर और जापान, दोनों नर्क में जाएं। मैं अंतिम सांस तक उनसे युद्ध करूंगा। मैं सुभाष चंद्र बोस और उनकी पार्टी संग भी युद्ध करूंगा यदि वे जापान के साथ मिलकर भारत आते हैं। श्री बोस के इरादे सही हैं लेकिन वे गलत दिशा में जा रहे हैं। हिटलर और जापान प्रतिक्रियागामी शक्तियां हैं, जिनकी जीत फासीवाद की जीत होगी।…..अगर जापानी सेना असम में आक्रमण करती है तो यहां की जनता को चाहिए कि वे न तो आत्मसमर्पण करे, न ही उनके आगे कोई प्रस्ताव रखें।’

मई, 1945 आते-आते जापानी सेना को बर्मा छोड़ना पड़ा और एक बार फिर से ब्रिटिश सेना ने वहां अपना कब्जा कर लिया। आजाद हिंद फौज ने ब्रिटिश सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। बोस अपने कुछ साथियों के साथ थाईलैंड रवाना हो गए। हिरोशिमा और नागाशाकी में एटमी धमाकों के तुरंत बाद बोस ने रुस जाने का फैसला लिया। जापानी फौज के जनरल के साथ बोस रूस जाने के लिए 17 अगस्त, 1945 को थाईलैंड से निकले थे। मौसम खराब होने के कारण 17 अगस्त, 1945 के दिन ताइवान के वायुक्षेत्र में उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। सुभाष बोस की इस विमान दुर्घटना में हुई मृत्यु आज भी संदेह के घेरे में है। उनके अनुयायियों का मत है कि इस दुर्घटना में उनकी जान बच गई थी। आजाद भारत की कई सरकारों ने इस विषय पर जांच आयोग गठित किए लेकिन संदेह के बादल आज तक छंटे नहीं हैं।

बहरहाल इस विमान दुर्घटना के साथ ही ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ और ‘दिल्ली चलो’ का आह्नान करने वाला यह वीर सेनानी स्वतंत्रता संग्राम के परिदृश्य से ओझल हो गया।

क्रमशः

 

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