प्रोफेसर ज्ञानप्रकाश मंटो के सहारे आपातकाल से पहले के उस भारत की बात करते हैं जो किसी न किसी कारण चलते लगातार उग्र तरीकों के सहारे सड़क पर उतर सत्ता को सीधे चुनौती देने का आदि 1947 से करने लगा था। फिर चाहे धर्म के नाम पर विभाजन बाद के दंगे हों या फिर तेलंगाना में उग्र वामपंथी उभार। पंजाब, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में भाषा को लेकर विवाद हो या फिर नागालैंड में अलगाववाद। केरल में पहली वामपंथी सरकार के विरोध में कांग्रेस का सड़कों में उत्पात हो, बॉम्बे में ट्रेड यूनियनों की हड़ताल का दौर हो, गौवध पर रोक के नाम पर संसद का घेराव हो, मराठी अस्मिता के नाम पर बाल ठाकरे का दक्षिण भारतीयों के खिलाफ जहर उगलना हो, बंगाल में नक्सलवाद का उभार हो, सड़क पर खून का बहना कभी रुका नहीं। डॉ. भीमराव अम्बेडकर को कुछ ऐसा ही आजाद भारत में होने की आशंका थी। संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में उन्होंने इस आशंका को रेखांकित करते हुए कहा था-‘जब आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को पाने के लिए कोई अन्य मार्ग न बचे तब असंवैधानिक तरीकों के इस्तेमाल को जायज करार दिया जा सकता है लेकिन जब संवैधानिक विकल्प उपलब्ध हो तब असंवैधानिक तरीकों को किसी भी तरीके से सही करार नहीं दिया जा सकता है। ऐसे तरीके और कुछ नहीं केवल अराजकता का व्याकरण हैं जिन्हें जितनी जल्दी त्याग दिया जाए, उतना बेहतर।’
बंगाल में वामपंथियों ने अराजकता को ‘घेराव’ की राजनीति के जरिए नए मुकाम तक पहुंचाने का काम साठ के दशक में किया था जो जल्द ही पूरे देश में सामान्य शिष्टाचार बन छा गया। गुजरात में छात्रों के ‘नवनिर्माण’ आंदोलन ने इस घेराव की राजनीति का जमकर सहारा लिया था। बिहार का छात्र आंदोलन भी इससे अछूता नहीं रहा। जयप्रकाश नारायण ने इस आंदोलन की कमान संभालने के बाद हर वह काम किया जिससे डॉ. अम्बेडकर ने ‘अराजकता का व्याकरण’ कह तत्काल त्यागने की बात कही थी। नारायण अपने करीबी मित्र और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सहयोगी रहे जवाहर लाल नेहरू की पुत्री से इस कदर नाराज थे कि उन्होंने सेना एवं पुलिस तक से विद्रोह करने का आह्वान कर अराजकता को उसके मुकाम तक पहुंचा दिया था। राजनीतिज्ञ बी.के. नेहरू के शब्दों में जयप्रकाश-‘सरासर नकारात्मक थे, न कि सकारात्मक। वे पूरी तरह विध्वंसक थे, रचनात्मक नहीं। वे आलोचना करेंगे, वे आंदोलन करेंगे, वे हिंसा तक को बढ़ावा देंगे, लेकिन वे कोई भी सकारात्मक, रचनात्मक उपाय उस लक्ष्य को पाने के लिए नहीं बताएंगे जो उनकी राय में किया जाना चाहिए था। उन्हें दरअसल, पता ही नहीं था कि सकारात्मक तरीके से क्या किया जाना चाहिए।’
बहुत सम्भव है कि यदि जयप्रकाश सैन्य बलों से विद्रोह की बात न कहते और विपक्षी दल प्रधानमंत्री का आवास घेर उन्हें नजरबंद करने जैसी योजना न बनाते तो शायद इंदिरा आपातकाल सरीखा घोर अलोकतांत्रिक कदम न उठातीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आपातकाल के दौरान लोकतांत्रिक मूल्यों का घोर अवमूल्यन हुआ था। संविधान के साथ भीषण छेड़छाड़ कर उसका मूल स्वरूप बदला गया था और प्रतिरोध की हर आवाज को निर्ममतापूर्वक दबा दिया गया। लेकिन यह भी सत्य है कि नेहरू की पुत्री ने तब यकायक ही आपातकाल को हटाने का निर्णय लिया जब हालात पूरी तरह उनके नियंत्रण में थे और विपक्षी दल हताश और बदहाल हो चले थे। प्रतिरोध के स्वर क्षीण हो दम तोड़ रहे थे। ऐसे में इंदिरा का वापस लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल करना निश्चित ही नेहरू की विरासत को पुनर्स्थापित करने का प्रयास था जिसके क्षरण का आरोप उन पर चस्पा हो चुका था। सम्भवतः चुनावों की घोषणा करने और आपातकाल को हटाने के पीछे उनका एक मकसद इस आरोप से स्वयं को मुक्त कराना भी था। लोकतंत्र का लोक लेकिन उन्हें इतनी आसानी से माफ करने को तैयार नहीं था। नतीजा कांग्रेस की करारी हार और पहली गैर कांग्रेसी सरकार की केंद्र में स्थापित होने बतौर सामने आया। जनता पार्टी की जीत बाद जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने गर्वावोक्ति पूर्ण बयान दिया था कि- ‘इंदिरा गांधी को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया है।’ उनको तब शायद आभास तक, तनिक आशंका तक नहीं रही होगी कि मात्र ढाई बरस बाद ही लोकतंत्र का यही लोक इंदिरा गांधी को पूर्ण बहुमत के साथ वापस सत्ता के शिखर पर पुनर्स्थापित कर देगा।
जनता परिवारकाल
आपातकाल का काल इंदिरा गांधी की तानाशाही के साथ-साथ जयप्रकाश नारायण की ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का दिवास्वप्न और उससे उत्पन्न अराजकता के लिए भी याद किया जाता है। जे.पी. का यह दिवास्वप्न ‘इंदिरा हटाओ’ के बोझ तले दबे जनता परिवार के सत्तारूढ़ होने से पहले ही धूल-धूसरित हो गया था। वे ‘आदि विद्रोही’ प्रवृति के थे। उनका लक्ष्य समता मूलक समाज के निर्माण का था जिसे पाने के लिए वे कभी मार्क्स के करीबी हो गए तो कभी गांधी के। आपातकाल के दौरान कैद में रहते लिखी गई ‘मेरी जेल डायरी’ में जे.पी. ने स्वीकारा है कि क्रांति का बीज उनके भीतर युवा अवस्था में ही रोपित हो गया था। अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्ति के दौरान काल मार्क्स की ‘दास कैपिटल’ ने उन्हें गहरा प्रभावित किया था। पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति घोर वितृष्णा इसी दौरान उन्हें वामपंथी विचारधारा के करीब लेकर आई। स्वदेश वापसी के बाद स्वतंत्रता आंदोलन में कूदे जे.पी. महात्मा गांधी के सिद्धांतों को संदेह की दृष्टि से देखते थे। उनकी नजरों में गांधीवाद सर्वहारा वर्ग के असल मुद्दों को उभरने से रोकता है और सामंती व्यवस्था को बचाए रखता है। बाद के वर्षों में लेकिन वे गांधीवादी नीतियों के समर्थक हो चले थे। वे मानने लगे थे कि गांधी के बताए अहिंसा के मार्ग पर चलकर भी क्रांति हासिल की जा सकती है। आजादी पश्चात् विनोबा भावे के भूदान आंदोलन संग जुड़ना इसी तरफ इशारा करता है। जे.पी. लेकिन मार्क्स के बताए-सुझाए क्रांति के स्वप्न से कभी खुद को दूर नहीं कर पाए। परम्परागत राजनीति से उनका मोह आजादी पश्चात ही भंग हो गया था। भूदान आंदोलन संग हालांकि वे लंबे समय जुड़े रहे साठ के पूर्वार्ध में एक बार फिर से वे गांधी के बताए मार्ग से दूर जाने लगे थे। मुजफ्फरपुर बिहार के गांवों में नक्सलवाद के उभार का दौर जे.पी. को मुसाहारी ले आया। मुजफ्फरपुर का यह इलाका घोर गरीबी और बंधुआ मजदूरी चलते त्राहि-त्राहि कर रहा था। सामंती व्यवस्था से त्रस्त ग्रामिणों ने हथियार उठाने शुरू कर दिए थे। जे.पी. ने सशस्त्र विद्रोह की स्थिति भांपते हुए तब कहा था-‘मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कहता हूं कि यदि यह तय हो जाए कि हिंसा का सहारा लिए बगैर जनता का कल्याण सम्भव नहीं, तो जयप्रकाश नारायण भी हिंसा में शामिल हो जाएगा।’ गुजरात के ‘नव निर्माण आंदोलन’ की सफलता और उसके बाद ‘बिहार छात्र आंदोलन’ ने उनके क्रांति के दिवास्वप्न को जिलाने का काम किया। वे शायद इस आंदोलन के साथ आ जुड़े सत्तालोलुप राजनेताओं के असल मंतव्य को देख पाने की चेष्टा तक नहीं करना चाहते थे। अन्यथा ऐसों के साथ मिलकर ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की बात वे सोचते तक नहीं। जे.पी. अपने तात्कालिक उद्देश्य ‘इंदिरा हटाओ’ को पाने में तो सफल रहे, सम्पूर्ण क्रांति का उनका स्वप्न जल्द ही उनके द्वारा जोड़े गए ‘जनता परिवार’ की सत्ता लोलुपता चलते धूल-धूसरित हो गया।
कांग्रेस की पराजय के साथ ही जनता पार्टी के भीतर प्रधानमंत्री पद को लेकर कलह देखने को मिलती है। जयप्रकाश नारायण ने ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा’ की तर्ज पर जनता पार्टी का निर्माण किया था। इसमें खांटी कांग्रेसी मोरारजी देसाई, 1967 में कांग्रेस छोड़ अलग राजनीतिक दल बना चुके किसान नेता चौधरी चरण सिंह, आपातकाल में इंदिरा गांधी के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले कांग्रेस के युवा ‘युवा तुर्क’ चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्णकांत और रामधन, समाजवादी विचारधारा वाले जॉर्ज फर्नांडीस, मधु लियमे, मधु दंडवते तो खांटी संघी अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख आदि शामिल थे। यह पूरी तरह बेमेल खिचड़ी गठबंधन समान था। आपातकाल के दौरान सत्ता सुख भोगने वाले जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा सरीखे कांग्रेसी नेता भी इसमें आ जुड़े थे। इनमें सत्ता में भागीदारी को लेकर तकरार शुरू होते देर नहीं लगी। चौधरी चरण सिंह का मानना था कि उत्तर भारत में कांग्रेस का सूपड़ा-साफ उनके चलते हुआ है इसलिए वे ही प्रधानमंत्री पद के असल हकदार हैं। दलित नेता जगजीवन राम का तर्क था कि उनका कांग्रेस का साथ छोड़ जनता परिवार का हिस्सा बनने चलते ही दलित मतदाता ने जनता पार्टी को वोट दिया है इसलिए प्रधानमंत्री पद उन्हें मिलना चाहिए। इन दोनों के अतिरिक्त तीसरे प्रबल दावेदार मोरारजी देसाई थे। जो दो बार 1964 और 1967 में यह पद पाने से चूक गए थे और अब 81 बरस की आयु में किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते थे। ‘प्रधानमंत्री कौन’ की लड़ाई का हल निकालने की जिम्मेदारी जयप्रकाश नारायण और जे.पी. कृपलानी को सौंपी गई जिन्होंने वरिष्ठता और अनुभव को प्राथमिकता देते हुए मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना। 24 मार्च, 1977 को मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार (जिसमें अधिकांश पूर्व कांग्रेसी शामिल थे।) का गठन हो गया।
1963 में अमेरिकी पत्रकार वेल्स हैंगेन ने अपनी पुस्तक ‘आफ्टर नेहरू, हूं?’ में मोरारजी देसाई को सम्भावित और सबसे प्रबल दावेदार बताते हुए लिखा था-‘देसाई बेहद आत्मविश्वासी हैं। यह आत्मविश्वास उनके चरित्र में तानाशाही के लक्षणों के साथ- साथ आत्म केंद्रित मानसिकता का परिचायक है जो उनके भीतर जिज्ञासा की कमी और दृष्टिबाधित कर देता है …मोरारजी देसाई मूल रूप में एक ऐसे प्रशासक से राजनेता बने हैं जो सभी से सम्मान तो पाता है लेकिन अनिवार्य रूप से पक्षपाती होता है।’
हैंगेन ने यह बात 14 बरस पहले देसाई की बाबत कही थी जो उनके प्रधानमंत्रित्वकाल में शत-प्रतिशत सही साबित हुई। जनता सरकार अपने गठन के साथ ही आंतरिक रार-तकरार में उलझने लगी। मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल में चौधरी चरण सिंह गृह मंत्री, जगजीवन राम रक्षा मंत्री, अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री और लालकृष्ण आडवाणी सूचना मंत्री बनाए गए थे। बड़ौदा डायनामाइट रेल के मुख्य आरोपी जॉर्ज फर्नांडीज को उद्योग मंत्रालय तो इंदिरा गांधी के कट्टर प्रतिद्वन्द्वी राजनारायण को स्वास्थ्य मंत्रालय का जिम्मा दिया गया था। परपस्पर विरोधी विचारधाराओं वाले राजनेताओं को एक मंच मेें लाकर भले ही इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल करने में जे.पी. सफल रहे, उनकी ‘सम्पूर्ण क्रांति’ और शासन व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने की मंशा पर जनता सरकार ने अपने गठन के दिन से ही पानी फेरना शुरू कर दिया। मोरारजी देसाई सरकार का पहला ही कदम प्रतिशोध से भरा हुआ रहा। इंदिरा गांधी, संजय, राजीव, सोनिया और मेनका गांट्टाी के पीछे सीबीआई को लगा दिया गया। संजय गांधी की कथित अवैध कमाई को तलाशने सीबीआई की एक टीम ने सोनिया गांधी के महरौली स्थित अधबने फार्म हाउस को पूरा खंगाल डाला था। राजीव गांधी तक को नहीं बक्शा गया। आयकर विभाग ने उन पर टैक्स चोरी का मामला चलाने की शुरुआत कर दी। गांधी परिवार के सभी सदस्यों के पासपोर्ट भी जब्त कर दिए गए थे। आपातकाल के दौरान सत्ता समक्ष ‘रेंगने’ वाली प्रेस भी इंदिरा और उनके खिलाफ जनता शासन आते ही मुखर हो उठी थी। मई, 1977 में गृहमंत्री चरण सिंह ने आपातकाल के दौरान हुए अत्याचारों, विधि द्वारा स्थापित कानूनों को दरकिनार किए जाने और सत्ता के दुरुपयोग की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश न्यायामूर्ति जे.सी. शाह की अगुवाई में एक जांच आयोग गठित किए जाने का ऐलान संसद में किया। साथ ही संजय गांधी के प्रोजेक्ट मारुति उद्योग में कथित भ्रष्टाचार की जांच के लिए न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना के नेतृत्व में एक पृथक जांच आयोग बनाने की घोषणा भी की गई। आपातकाल के दौरान रक्षा मंत्री रहे हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल के खिलाफ एक अलग जांच आयोग उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी की अध्यक्षता में गठित किया गया। कुल मिलाकर आपातकाल के समय को लेकर जनता सरकार ने आठ न्यायिक आयोग गठन कर इंदिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ जंग छेड़ दी थी।