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Editorial

कामचलाऊ सरकार और संविधान सभा का गठन

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-32

देश में बढ़ रहे साम्प्रदायिक तनाव से चिंतित भारत मामलों के मंत्री पेथक लारेंस ने वायसराय वैवेल को जिन्ना संग वार्ता करने का सुझाव दिया जिसे वैवेल ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि ‘There is no indication of any immediate attempt at a mass movement…If I send for Jinnah at once, it will be regarded as a panicky reaction to a threat and will put up Jinnah’s stock…I should propose to leave Jinnah alone (किसी प्रकार के जनआंदोलन होने के कोई संकेत नहीं हैं। मेरी समझ से अभी जिन्ना को मुलाकात के लिए बुलाना उचित नहीं होगा।…यदि में उन्हें तत्काल बुलाता हूं तो धमकी के दबाव में उठाया गया घबराहट भरा कदम माना जाएगा जिसके चलते जिन्ना के कद में बढ़ोत्तरी हो जाएगी।….मैं हाल-फिलहाल जिन्ना को अकेला छोड़ देने के पक्ष में हूं)’

जिन्ना को दरकिनार कर वायसराय ने नेहरू को अंतरिम सरकार गठित किए जाने का न्यौता 6 अगस्त, 1946 को देते हुए उनसे अपेक्षा की, कि वे जिन्ना को इस सरकार में शामिल होने के लिए रजामंद कर लेंगे। नेहरू ने जिन्ना संग मुलाकात कर उन्हें अपने 14 सदस्यीय मंत्रिमंडल में पांच मुस्लिम लीग के सदस्य शामिल किए जाने का प्रस्ताव दिया। जिन्ना इस शर्त पर इस सरकार में लीग की भागीदारी के लिए सहमत थे कि कांग्रेस अपने कोटे से किसी भी मुसलमान नेता को मंत्री नहीं बनाएगी। अंततः सहमति नहीं बन पाई और जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस अकेले ही सरकार बनाने के लिए तैयार हो गई। शुक्रवार, 16 अगस्त के दिन लीग ने अपनी घोषणा अनुसार ‘सीधी कार्रवाई’ की शुरुआत कर दी। इस दिन पूरे देश में भारी कौमी दंगे शुरू हो गए थे। इन दंगों का सबसे भयावह और व्यापक असर बंगाल प्रांत में देखने को मिला। अकेले कलकत्ता (अब कोलकात्ता) और उसके आस-पास के इलाकों में भी कई हजार की मौत हो गई। बंगाल के मुख्यमंत्री सुहारवर्दी ने इस दिन जुमे की नमाज के बाद आयोजित एक विशाल रैली को संबोधित करते हुए भड़काने वाला बयान दे डाला। उन्होंने सुबह से शुरू हो चले दंगों का जिक्र करते हुए कहा कि ज्यादातर मारे गए और घायल लोग मुसलमान हैं। उनके इस बयान ने भारी तबाही लाने का काम कर दिया। गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार इन दंगों में अकेले बंगाल में पांच से पचास हजार मौतों की बात कही गई। 21 अगस्त तक यह लूटमार बड़े पैमाने पर चली जिस चलते बंगाल की सुहारवर्दी सरकार को बर्खास्त कर वहां वायसराय शासन लगा दिया गया। जैसे-जैसे दंगों में भारी तादात में हिंदू और मुसलमानों के मारे जाने के समाचार देश के अन्य इलाकों, विशेषकर बिहार ओर पंजाब तक पहुंचे, वहां भी कौमी दंगे भड़क उठे। बिहार के नौआखाली में इसका सबसे अधिक असर हुआ और वहां भी हजारों की संख्या में लोग मारे गए। संयुक्त प्रांत का गढ़मुक्तेश्वर नवंबर, 1946 में दंगों की चपेट में आ गया। यहां भी दो हजार से अधिक मौतों की बात कही जाती है। ऐसे माहौल में 2 सितंबर, 1946 को नेहरू के नेतृत्व में भारत की ‘कामचलाऊ’ सरकार का गठन हुआ जिसमें लीग ने भागीदारी नहीं की। पटेल इस सरकार में गृह मंत्री बने थे। इस तेरह सदस्यीय सरकार में तीन मुस्लिम नेताओं को शामिल कर कांग्रेस ने जिन्ना की इस अवधारणा को खंडित करने का काम किया कि मुसलमानों के एकलौते रहनुमा वे ही हैं। जिन्ना ने इससे बेहद खिन्न हो अपने अनुयायियों से कहा ‘…..मैं अभी भी कहता हूं कि उन्होंने जो काम किया है उसमें न तो कोई समझदारी है और न ही राजनीतिक परिपक्वता। इसके खतरनाक और गंभीर परिणाम हो सकते हैं। तीन मुसलमानों की इस सरकार में भागीदारी हमें आहत और अपमानित करने के लिए की गई है।’ ‘कामचलाऊ’ सरकार के समक्ष सबसे बड़ी समस्या कौमी दंगों पर काबू पाने की थी। नेहरू की शपथ ग्रहण से एक दिन पहले एक सितंबर के दिन बॉम्बे में दंगे भड़क गए थे। कलकत्ता पहले से ही दंगों की चपेट में था। वायसराय वैवेल अब भी मुस्लिम लीग की ‘कामचलाऊ’ सरकार में भागीदारी का प्रयास करने में जुटे थे। दिनोंदिन बिगड़ती कानून व्यवस्था ने प्रधानमंत्री नेहरू को भी थका डाला था। अंततः 15 अक्टूबर, 1946 को लीग इस सरकार का हिस्सा बनने के लिए सहमत हो गई और उसकी तरफ से नामित पांच सदस्य 26 अक्टूबर, 1946 को इस सरकार में शामिल हो गए। जिन्ना पाकिस्तान की मांग को लेकर अब भी सक्रिय थे लेकिन उनके मन में शंका के बादल मंडराने लगे थे कि ब्रिटिश हुकूमत शायद ही इसके लिए तैयार होगी। इस आशंका के चलते ही उन्होंने लीग की तरफ से नामित पांच सदस्यों में से एक सदस्य हिंदू अनुसूचित जाति का चुन लिया। यह व्यक्ति थे बंगाल सरकार में मंत्री रहे जेएन मंडल। पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखक यासिर लतीफ हमदानी अपनी पुस्तक ‘जिन्ना-ए-लाइफ’ (Jinnah A Life) में इस बाबत लिखते हैं कि-‘No historian has spent much time analyzing this Crucial chess move. Was Jinnah belatedly moving to wards the direction that Dr. Ambedkar had spoken about in his book a few years earlier? This certanly appears to be the intention because even at this late a stage,Jinnah did not seem to believe that Pakistan was ever going to be conceived. Jinnah idea was to make Muslim League a big tent organisation for non- Congress elements (किसी भी इतिहासकार ने शतरंज की इस चाल का सही तरीके से विश्लेषण नहीं किया। क्या जिन्ना देर से ही सही उस दिशा की तरफ बढ़ रहे थे जिसका जिक्र कुछ बरस पूर्व अपनी पुस्तक में डॉ. अंबेडकर ने किया था? निश्चित तौर पर ऐसा ही था। जिन्ना को यकीन नहीं था कि पाकिस्तान कभी बन पाएगा इसलिए वह मुस्लिम लीग को गैर कांग्रेसी तत्वों के लिए एक बड़े टेंट हाउस सरीखा बनाना चाह रहे थे)।

लीग के ‘कामचलाऊ’ सरकार का हिस्सा बनने बाद भी देश के हालात गंभीर बने रहे। साम्प्रदायिक तनाव इस दौरान लगातार बढ़ता ही चला गया। जिन्ना पाकिस्तान का राग अलापते रहे और उनका रवैय्या कांग्रेस के प्रति कठोर बना रहा। नेहरू सरकार की प्राथमिकताओं में एक संविधान सभा का गठन कर उसकी बैठक बुलाना था लेकिन जिन्ना इसके लिए तैयार नहीं हुए। ब्रिटिश सरकार घोषणा कर चुकी थी कि वह जितना जल्द हो सकेगा भारत को स्वाधीन कर देगी। ऐसे में नए राष्ट्र के लिए संविधान बनाना नेहरू की पहली प्राथमिकता बन चुकी थी जिसमें सबसे बड़ी अड़चन जिन्ना थे। 22 नवंबर, 1946 को जिन्ना ने एक पत्रकार वार्ता के दौरान स्पष्ट कह डाला कि ‘मुस्लिम लीग का कोई भी प्रतिनिधि संविधान सभा में शिरकत नहीं करेगा।’ वायसराय वैवेल और नेहरू के तमाम प्रयास इस दिशा में विफल रहे। जिन्ना तब तक संविधान सभा में लीग की भागीदारी के लिए सहमत नहीं थे जब तक कांग्रेस कैबिनेट मिशन द्वारा भविष्य के भारत के लिए सुझाए गए ‘त्रि-स्तरीय’ व्यवस्था जिसमें एक संघ के अंतर्गत अधिकतम स्वतंत्रता वाले राज्य एवं राजे-रजवाड़ों के स्वतंत्र अस्तित्व की बात कही गई थी।

संविधान सभा गठित किए जाने का प्रस्ताव असम में कम्युनिस्ट नेता एन ़एन ़ रॉय ने 1934 में दिया था। कांग्रेस ने ‘भारत सरकार अधिनियम 1935’ के लागू होने बाद ही इस कानून को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इसमें तय संविधान भारतीयों से परामर्श किए बगैर उन पर थोपा गया है। एन ़एन ़ रॉय के एक संविधान सभा गठित किए जाने के सुझाव को कांग्रेस ने अपना लिया। अगस्त, 1940 में ब्रिटेन ने भी ऐसी सभा बनाने के लिए अपनी सहमति दे दी थी। 8 अगस्त, 1940 को तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो ने इसकी घोषणा करते हुए भारतीयों को अपना संविधान स्वयं तैयार करने के लिए ब्रिटेन की रजामंदी का एलान किया था। इसे ‘अगस्त प्रस्ताव’ कहा जाता है। 1946 में प्रांतीय सभा के चुनाव हुए थे। इन चुनावों में मुस्लिम बाहुल्य इलाकों को छोड़ कांग्रेस ने अन्य में भारी जीत दर्ज की थी। कैबिनेट मिशन द्वारा सुझाए गए फॉर्मूले के अनुसार संविधान सभा का गठन प्रांतीय सभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष मतदान प्रणाली के तहत किया जाना था जिसमें अल्पसंख्यकों, दलितों के साथ-साथ महिलाआें के लिए भी आरक्षण रखा गया था। कुल 389 सदस्यों वाली इस सभा का लीग द्वारा बहिष्कार किए जाने चलते सदस्यों की संख्या घटकर 316 रह गई क्योंकि प्रांतीय सभाओं में लीग के 73 सदस्य इसका हिस्सा नहीं बने। कांग्रेस के 208 सदस्यों के अतिरिक्त इस सभा में राजे-रजवाड़ों के 93 सदस्य शामिल हुए। 9 दिसंबर, 1946 को इस सभा की पहली बैठक दिल्ली में बुलाई गई जिसमें 316 में से 211 सदस्य उपस्थित हुए। कांग्रेस नेता डॉ . राजेंद्र प्रसाद को इस सभा का अध्यक्ष सर्व सम्मति से चुना गया। 13 दिसंबर को नेहरू ने इस सभा के लिए एक ‘उद्देश्य संकल्प’ (Objective Resolution) प्रस्तुत किया जो आगे चल कर संविधान की उद्देशिका (Preamble) के रूप में सामने आता है। ब्रिटेन में इस दौरान भारत की आंतरिक स्थिति को लेकर बेचैनी और घबराहट बढ़ती जा रही थी। 11 दिसंबर, 1946 को कन्सरवेटिव पार्टी के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री विन्सेंट चर्चिल ने ‘हाउस ऑफ कॉमंस’ में धुआंधार भाषण दे लेबर सरकार को उसकी भारत संबंधी नीति के जरिए कटघरे में खड़ा कर दिया। चर्चिल ने कहा ‘I warned the House as long ago as 1931…that if were to wash our hands off all responsibility, ferocious civil war would speedily break out between the Muslims and Hindus. But this like other warnings, fell upon deaf and unregarding ears…I must record my ? belief… that any attempt to establish the reign of a Hindu numerical majority in India will never be achieved without a civil war proceeding, not perhaps at first on the fronts of armies or organised forces, but in thousand of separate and isolated places’ (मैंने इस सदन को 1931 में ही चेता दिया था…कि यदि हम अपनी जिम्मेदारियों से हाथ धोना चाहेंगे तो मुसलमानां और हिंदुओं के मध्य भीषण गृह युद्ध छिड़ जाएगा लेकिन अन्य चेतावनियों की भांति यह चेतावनी भी बहरे ओर बेपरवाह कानों से टकरा कर लौट आई ़ ़ ़मैं अपनी बात दर्ज कराना चाहता हूं कि….भारत में यदि बहुसंख्यक हिंदुओं का शासन स्थापित करने की कोशिश की गई तो बगैर गृह युद्ध ऐसा कर पाना संभव नहीं होगा। और यह गृह युद्ध सेनाओं अथवा संगठित बलों के मध्य न होकर हजारों अलग-अलग स्थानों पर होगा)।

क्रमशः

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