पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-19
लॉर्ड इरविन के नोट्स भगत सिंह की फांसी को लेकर यह तो स्पष्ट करते हैं कि महात्मा ने उनसे इस विषय पर दो बार चर्चा की लेकिन इन नोट्स और इस विषय पर लिखी गई पुस्तकों से यह स्पष्ट नहीं होता कि गांधी ने इस फांसी को रूकवाने के लिए पूरे हृदय और पूरी शक्ति से प्रयास किए। एक बात निश्चित ही सामने आती है कि महात्मा पूर्ण स्वराज के अपने लक्ष्य को पाने के लिए भले ही कितने भी लालायित क्यों न थे, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे हिंसा का मार्ग अपनाने वालों का समर्थन कतई नहीं करना चाहते थे, न ही उन्होंने ऐसा किया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी के तीन दिन बाद कराची में हुए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन (26 मार्च, 1931) में गांधी ने इस मुद्दे पर अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए कहा था ‘आप सबको पता होना चाहिए कि मुझ सरीखे लोग किसी हत्यारे, चोर या डकैत को भी दण्डित करने के खिलाफ रहते हैं। इस बात पर किसी को शंका नहीं होनी चाहिए कि मैं भगत सिंह को बचाना नहीं चाहता था लेकिन मैं आपको भगत सिंह की गलती भी समझाना चाहता हूं। जिस राह पर वे चले वह गलत और निअर्थक थी। मैं इन नवयुवकों को एक पिता की हैसियत से कहना चाहता हूं कि हिंसा का मार्ग केवल तबाही लाता है।’ गांधी के इस स्पष्टीकरण के बावजूद कराची अधिवेशन में उनके खिलाफ हुई नारेबाजी से समझा जा सकता है कि भगत सिंह एवं उनके साथियों के बलिदान ने न केवल पूरे देश में अंग्रेज सत्ता के खिलाफ आक्रोश तेज कर दिया था बल्कि गांधी की भूमिका को लेकर भी आमजन में उनके लिए बड़ी नाराजगी पैदा करने का काम किया था।
गांधी-इरविन समझौते ने कांग्रेस के गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का रास्ता तैयार किया जरूर लेकिन यह सम्मेलन तीन दौर की वार्ता के बाद बगैर किसी सार्थक नतीजे में पहुंचे समाप्त हो गया। मोहम्मद अली जिन्ना पहले दो सम्मेलनों में मुस्लिम लीग की तरफ से उपस्थित रहे। इन दोनों बैठकों में जिन्ना ने भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक स्वतंत्र देश बनाए जाने की पुरजोर वकालत की लेकिन उनके तर्क अन्य पक्षकारों को सहमत नहीं कर पाए। जिन्ना का कहना था कि भारतीय संघ में अंग्रेज शासित इलाकों के साथ-साथ राजाओं और नवाबों के अधिकार क्षेत्र वाले इलाके भी बगैर किसी शर्त शामिल कराए जाने चाहिए। उनके इस तर्क का भारी विरोध राजे-रजवाड़ों द्वारा किया गया जो इस संघ का हिस्सा बनने के एवज में अपने लिए विशेष रियायतों की मांग कर रहे थे। 1932 में आयोजित तीसरे और अंतिम गोलमेज सम्मेलन में जिन्ना को बुलाया ही नहीं गया। जिन्ना ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा था ‘I displeased the Muslims. I displeased my Hindu friends because of famous 14 points. I displeased the princes becuse I was deadly against their under hand activities and I displeased the British Parliament because I felt right from the start and said that it was a fraud’ (मैंने मुसलमानों को अप्रसन्न कर दिया। मैंने अपने हिंदू मित्रों को चौदह सूत्री मांगों के चलते नाराज कर दिया। मैंने राजाओं को नाराज कर दिया क्योंकि मैं उनकी गुप्त गतिविधियों के सख्त खिलाफ था और मैंने ब्रिटिश संसद को भी नाराज कर दिया क्योंकि मैं शुरू से ही उसे एक धोखा मान रहा था)।
जिन्ना को इस अंतिम बैठक में आमंत्रित न किया जाना स्पष्ट करता है कि उस दौर में जिन्ना स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई लड़ रही ताकतों और ब्रिटिश हुकूमत, दोनों के लिए बेकार हो चले थे। मुसलमान उन्हें कांग्रेस का करीबी मान शक की निगाहों से देख रहे थे तो कांग्रेस उन्हें एक मुस्लिम परस्त नेता में बदलते देख उनसे दूरी बनाने लगी थी। इस गोलमेज सम्मेलन से एक बात और सप्ष्ट हो उभरी कि भारत का प्रतिनिधित्व कर रही ताकतें अलग-अलग कारणों के चलते बुरी तरह बंटी हुई थीं और उनमें एकता का घोर अभाव था। इसे इस सम्मेलनों के दौरान गांधी और अंबेडकर के मध्य तीव्र हुए मतभेदों से समझा जा सकता है। गांधी का मानना था कि कांग्रेस सर्वजन पार्टी है इसलिए वह सभी का प्रतिनिधित्व इस सम्मेलन में कर रही है। उनके इस कथन का विरोध भीमराव अंबेडकर ने यह कहते हुए किया था कि गांधी और कांग्रेस दलितों के मुद्दों को लेकर बात नहीं करते हैं। भारतीय मुसलमान पहले से ही कांग्रेस से इतर अपनी मांगों को लेकर पृथक सोच के साथ इस सम्मेलन में शामिल हुए थे। भारतीय नेताओं के मतभेद और मनभेद ब्रिटिश सरकार के लिए खासे मुफीद साबित हुए जिसके फलस्वरूप साइमन कमीशन की रिपोर्ट को आधार बना ब्रिटिश सरकार ने भारत सरकार अधिनियम, (The Government of India Act, 1935) को संसद से पारित कर लागू कर दिया। इस कानून के लागू होने के साथ ही बर्मा (अब म्यांमार) को ब्रिटिश भारत से अलग कर दिया गया, भारत के लिए एक केंद्रीय बैंक जिसे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया कहा गया, बनाया गया, केंद्र सरकार की सेवाओं के लिए फेडरल पब्लिक सर्विस कमीशन (अब यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन), राज्यों की सेवाओं के लिए प्रोवेंसियल पब्लिक सर्विस कमीशन (अब राज्य लोक सेवा आयोग एवं एक केंद्रीय फेडरल कोर्ट (अब सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया) की स्थापना की गई। साथ ही ब्रिटिश भारत के 11 राज्यों में से 6 राज्यों, बॉम्बे, मद्रास, बंगाल, बिहार, असम एवं संयुक्त प्रांत में दो सदनीय संसदीय प्रणाली को स्थापित किया गया। इस एक्ट के जरिए सिंध को बॉम्बे से अलग कर एक नया प्रदेश बनाया जाना, बिहार से अलग कर उड़ीसा को अलग प्रदेश बनाना और प्रदेशों एवं केंद्र की सभाओं के लिए सीधे चुनाव कराए जाने की व्यवस्था की गई जिसके चलते मतदाताओं की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई और सत्तर लाख मतदाताओं से बढ़कर साढ़े तीन भारतीयों को मतदान का अधिकार मिला। विभिन्न प्रांतों के गवर्नर और केंद्र में वायसराय की शक्तियों को कम किया गया तथा प्रांतीय सरकारों एवं केंद्रीय सरकार को ज्यादा अधिकार दिए गए। लेकिन कांग्रेस, मुस्लिम लीग समेत सभी भारतीय दलों एवं संगठनों को इस एक्ट से भारी निराशा हुई। इस कानून में भारत को ब्रिटिश सत्ता के अधीन अधिराज्य का दर्जा (Dominion status) नहीं दिया गया था तथा किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर अंतिम निर्णय लेने का अधिकार वायसराय के हाथों में ही रहने दिया गया था। भारत को एक गणराज्य बनाने की दिशा में भी कोई विशेष प्रावधान इस कानून में नहीं था। केवल यह उम्मीद की गई थी कि राजा-महाराजा और नवाब इत्यादि एक गणराज्य के रूप में शामिल होने की प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगे। इस कानून में व्यवस्था की गई थी कि गणराज्य की प्रक्रिया तभी शुरू होगी जब न्यूनतम आधे प्रदेश और राजे-रजवाड़े इसमें शामिल होने के लिए सहमत होंगे। ऐसा लेकिन आजादी मिलने तक संभव नहीं हो पाया था। कांग्रेस नेता जवाहर लाल नेहरू ने इस कानून को सिरे से खारिज करते हुए इसे ‘A machine with strong brakes but no engine’ (एक ऐसी मशीन जिसमें मजबूत ब्रेक तो हैं लेकिन इंजन नहीं) करार दिया। जिन्ना ने नेहरू से एक कदम आगे बढ़कर इस एक्ट को ‘ Throughly rotten, fundamentally bad and totally unacceptable’ (पूरी तरह सड़ा हुआ, बुनियादी तौर पर खराब एवं हर सूरत में अस्वीकार्य) कह अस्वीकार कर दिया। इस एक्ट पर एक महत्वपूर्ण और काबिल-ए-गौर टिप्पणी भूलाभाई देशाई की है। भूलाभाई एक प्रसिद्ध अधिवक्ता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिन्होंने बारदोली आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किए गए किसानों का केस लड़ा था। देसाई 1930 में कांग्रेस में शामिल हो गए थे और विदेशी समान के बहिष्कार को लेकर उन्होंने सक्रिय एवं महत्वपूर्ण कार्य किए थे। उनके द्वारा गठित ‘स्वदेशी सभा’ ने भारी तादाद में भारतीय कंपनियों को इस बात के लिए सहमत करने का काम किया था कि ये कंपनियां विदेशी समान का पूरी तरह बहिष्कार करेंगी। उनकी ‘स्वदेशी सभा’ को गैरकानूनी घोषित कर 1932 में भूलाभाई को गिरफ्तार कर लंबे समय तक जेल में डाल दिया गया था। सरदार पटेल ने उन्हें कांग्रेस कार्य समिति का सदस्य बनाने का काम किया था। 1934 में देसाई गुजरात विधान परिषद् के सदस्य चुने गए थे। देसाई ने 1935 में इस एक्ट की बाबत बनाई गई संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष कहा था ‘After all there are five aspects of every government worth the name: (a) the right of external and internal defence and all measures for that purpose: (b) The rignt to control our external affairs; (c) The rignt to control our currency and exchange; (d) The right to control our fiscal policy; (e) The day to day administration of the land…Under this act you shall have rothing to do, or for all practilcl purpose in future, you shall have noting to do with your currency and exchange, for indeed the Resever Bank Bill just passed has a further resrvation in the Constituion that to legislation may be under taken with a view to substantially alter the provisions of the Act, except with the consent of the gorernor general… there is no real power conferred in the centre’ (आखिरकार हर सरकार के लिए पांच मुद्दे अहम होते हैंः (1) बाहरी और आंतरिक रक्षा का अधिकार (2) मुद्रा एवं विनियम का अधिकार (3) राजकोषीय नीति का अधिकार (4) जमीन संबंधी मुद्दों को नियंत्रित करने का अधिकार और (5) विदेश संबंधी मामलों का अधिकार। इस कानून में न तो वर्तमान, न ही भविष्य में ऐसा कोई अधिकार हमें दिया गया है। बगैर गवर्नर जनरल की इजाजत हम इस कानून में किसी प्रकार का कोई भी संशोधन तक नहीं कर सकते। इस कानून ने किसी भी रूप में केंद्र के पास (केंद्रीय परिषद्) कोई शक्ति निहित नहीं की है)
कुल मिलाकर यह कानून न तो भारतीय पक्ष को और न ही ब्रिटिश पक्ष को संतुष्ट कर पाने वाला रहा। इस एक्ट के चलते 1937 में कराए गए प्रांतीय सभाओं के चुनावों ने जरूर द्वि राष्ट्र सिद्धांत को अमलीजामा पहनाने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल करने का काम किया।
क्रमशः