जनता दल को अल्पमत की सरकार बनाने का अवसर तो मिल गया, लेकिन 1977 की भांति इस दफा भी कांग्रेस-विरोध के नाम पर एकजुट हुए नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने सरकार के गठन से पहले ही आंतरिक मतभेदों को सार्वजनिक कर यह इशारा कर दिया कि जनता पार्टी की तरह ही यह प्रयोग भी असफल साबित होगा। पहला संकट ‘प्रधानमंत्री कौन?’ को लेकर सामने आया। चंद्रशेखर ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के नाम पर कड़ा प्रतिरोध करते हुए स्वयं की दावेदारी पेश कर दी। चंद्रशेखर की दावेदारी को नकार पाना जनता दल नेतृत्व के लिए सम्भव नहीं था, क्योंकि 143 सांसदों में से लगभग 60 सांसद चंद्रशेखर के वफादार थे और उनकी दावेदारी का खुलकर समर्थन कर रहे थे। चंद्रशेखर की छवि एक उदार, लेकिन हठी राजनेता की थी। उन्हें मनाने के सारे प्रयास जब विफल हो गए, तो जनता दल के नेताओं ने एक कपटपूर्ण रणनीति बनाकर चंद्रशेखर को इस बात के लिए राजी कर लिया कि हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल को प्रधानमंत्री बना दिया जाए। चंद्रशेखर किसी भी सूरत में विश्वनाथ प्रताप सिंह को रोकने पर आमादा थे। उन्होंने देवीलाल के नाम पर तुरंत अपनी सहमति दे डाली। 2 दिसम्बर, 1989 को जनता दल के संसदीय दल की बैठक बुलाई गई। इस बैठक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा, जिसका समर्थन चंद्रशेखर ने करने में देर नहीं लगाई। बैठक में मौजूद ‘यूनाइटेड न्यूज एजेंसी’ के संवाददाता ने तुरंत ही यह खबर प्रसारित कर दी कि चौधरी देवीलाल देश के नौवें प्रधानमंत्री चुन लिए गए हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। देवीलाल संसदीय दल को सम्बोधित करने के लिए खड़े हुए और उन्होंने जनता दल के नेताओं की असल रणनीति के अनुसार प्रधानमंत्री पद लेने से इनकार करते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह का नाम प्रस्तावित कर चंद्रशेखर को सकते में डाल दिया। देवीलाल ने कहा- ‘मुझे हरियाणा में ताऊ कहते हैं। यहां भी मैं ताऊ ही रहना चाहता हूं। मैं अपना नाम वापस लेता हूं और माननीय वी.पी. सिंह का नाम तजवीज करता हूं।’हतप्रभ चंद्रशेखर ने तत्काल इसका विरोध करते हुए कहा- ‘मुझसे कहा गया था कि देवीलाल नेता चुने जाएंगे। यह धोखा है, मैं सभा से उठकर जा रहा हूं।’
इस तरह से धोखे की नींव पर विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए, लेकिन इसी दिन (2 दिसम्बर, 1989) यह भी स्पष्ट हो गया कि यह सरकार ज्यादा दिन तक टिकने वाली नहीं है। विश्वनाथ प्रताप सिंह अपनी सार्वजनिक छवि को लेकर बेहद सतर्क रहते थे। वे खुद को सत्ता का लोभी करार दिए जाने से हमेशा बचते आए थे। 1980 में केंद्र की सत्ता के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल किया था। तब कद्दावर नेताओं को दरकिनार कर इंदिरा गांधी ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को राज्य का मुख्यमंत्री बनाकर लखनऊ भेज दिया था। बतौर मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उत्तर प्रदेश को दस्युमुक्त कराने का बड़ा अभियान शुरू किया। दस्युओं (डाकुओं) के आतंक के चलते उस दौर में उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था पूरी तरह बदहाल हो चली थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने दस्युमुक्त उत्तर प्रदेश बनाने को अपनी सरकार का पहला लक्ष्य बनाते हुए युद्धस्तर पर कार्यवाही को अंजाम दिया था। उनके 25 माह के शासनकाल दौरान 1500 डकैत पुलिस इनकाउंटर में मारे गए थे। इतने व्यापक स्तर पर कार्यवाही के बाद भी डकैतों का आतंक समाप्त कर पाने में वी.पी. सिंह विफल रहे।
मार्च, 1982 में मुख्यमंत्री के बडे़ भाई और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रशेखर प्रताप सिंह, उनके पुत्र और एक सहायक की डकैतों ने बांदा के निकट गोली मारकर हत्या कर वी.पी. सिंह की सत्ता को खुली चुनौती देने का दुस्साहस कर दिखाया था। इस घटना के बाद उन्होंने प्रण लिया था कि वे दो माह के भीतर-भीतर प्रदेश की इस सबसे बड़ी समस्या को जड़ से मिटा देंगे और यदि ऐसा न कर पाए तो इस्तीफा दे देंगे। 28 जून, 1982 को कानपुर और मैनपुरी में डकैतों ने 21 लोगों की निर्मम हत्या कर वी.पी. सिंह को एक बार फिर से खुली चुनौती दे डाली। अपने प्रण को न निभा पाने से व्यथित वी.पी. सिंह ने तत्काल पद से इस्तीफा दे दिया। इससे पहले भी दो बार उन्होंने पद त्यागने का फैसला लिया था, लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने उनके अनुरोध को मानने से इनकार कर उन्हें पद पर बने रहने का निर्देश दिया था। पहली बार सितम्बर, 1980 में मुरादाबाद और अलीगढ़ में हुए कौमी दंगों और दूसरी बार नवम्बर, 1981 में मैनपुरी जिले में डकैतों द्वारा 24 लोगों की निर्मम हत्या के बाद वी.पी. सिंह ने पद छोड़ने की पेशकश की थी, लेकिन 28 जून को उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व से सलाह किए बगैर ही सीधे राज्यपाल को अपना इस्तीफा भेजकर यह संदेश देने में सफलता पाई कि वे सत्ता के लोभी नहीं हैं। इस प्रकार की प्रवृत्ति का व्यक्ति कैसे कपटपूर्ण नीति का सहारा लेकर प्रधानमंत्री बनने को तैयार हुआ? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर तलाश पाना टेढ़ी खीर के समान है। वी.पी. सिंह सरकार में मंत्री रहे चंद्रशेखर के करीबी मित्र यशवंत सिन्हा का मानना है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह पूरी तरह इस षड्यंत्र का हिस्सा थे- ‘उन्होंने (वी.पी. सिंह ने) मुझे फोन कर कुछ महत्वपूर्ण बात करने के लिए घर आने को कहा …जब मैं उनके घर पहुंचा तो उनका बैठकखाना प्रेस के लोगों से भरा हुआ था। मुझे कुछ देर इंतजार करने को कहा गया, क्योंकि वी.पी. सिंह तब बी.बी.सी. को साक्षात्कार दे रहे थे। साक्षात्कार जल्द ही समाप्त हो गया और मार्क टली (बी.बी.सी. के पत्रकार) बाहर निकलकर आए। उन्होंने मुझसे कहा …सिंह कह रहे हैं कि वे प्रधानमंत्री का पद स्वीकार नहीं करेंगे …जैसा हम सबने बाद में देखा, यह सबको बेवकूफ बनाने की एक चाल थी, ताकि समय आने पर वी.पी. सिंह हथौड़े का प्रहार कर सकें।’
यशवंत सिन्हा से ठीक उलट वी.पी. सिंह सरकार में मंत्री और बाद में प्रधानमंत्री रहे इंद्रकुमार गुजराल का मानना है, वी.पी. सिंह सही में ऐसी सरकार का नेतृत्व नहीं करना चाहते थे, जो गठन के दिन से ही लड़खड़ाने लगे- ‘वी.पी. सिंह ने रहस्यमय मुद्रा अपनाते हुए कहा था कि वे ‘‘उच्च पद की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते।’’ मैंने उनसे अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा-तो वी.पी. सिंह ने जवाब दिया कि उन्हें यकीन नहीं है कि ऐसी जर्जर सरकार टिक पाएगी या नहीं। उन्हें लगता था कि ऐसी अवस्था में उन्हें कड़ी मेहनत से बनाई अपनी प्रतिष्ठा और पार्टी की प्रतिष्ठा को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा। उनके मुताबिक यह मेरी विश्वसनीयता का सवाल है। इस विश्वसनीयता के न रहने पर मैं भी राजीव गांधी के समान नजर आने लगूंगा।’
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आजाद भारत की पहली अल्पमत और पहली गठबंधन सरकार के मुखिया के तौर पर 2 दिसम्बर, 1989 की शाम से अपनी पारी की शुरुआत की थी। अभी संसदीय दल के नेता के तौर पर उनके चुनाव को लेकर विवाद थमा भी नहीं था और चंद्रशेखर का क्रोध धधक ही रहा था कि सरकार पर एक बड़ा संकट कश्मीर घाटी से निकलकर सामने आ खड़ा हुआ। वी.पी. सिंह ने अपने मंत्री परिषद् में गृहमंत्री का पद जम्मू-कश्मीर के दिग्गज नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद को सौंपा था। सईद का परिवार श्रीनगर घाटी में रहता था। 8 दिसम्बर, 1989 की शाम श्रीनगर के एक अस्पताल से अपनी ड्यूटी पूरी कर घर वापसी कर रही गृहमंत्री की 23 वर्षीय बेटी डॉ. रूबिया सईद का अपहरण जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट से जुड़े आतंकियों द्वारा कर लिया गया। यह वी.पी. सिंह सरकार के लिए भारी झटके के समान था। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत नेशनल कॉन्फ्रेंस से करने वाले मुफ्ती मोहम्मद सईद 60 के दशक में कांग्रेस में शामिल हो गए थे। सईद फारूख अब्दुल्लाह के घोर विरोधी थे। राजीव गांधी द्वारा कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के मध्य गठबंधन का फैसला सईद की कांग्रेस से रुखसती का कारण बना और उन्होंने 1987 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाले ‘जनमोर्चा’ का दामन थाम लिया था।
रूबिया सईद का अपहरण भारतीय खुफिया तंत्र की नाकामी का एक बड़ा उदाहरण है। 1987 में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस का गठबंधन राज्य विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीत तो गया था, लेकिन सरकारी तंत्र के दुरुपयोग ने कश्मीरी जनता, विशेषकर कश्मीरी युवाओं के मन में भारतीय व्यवस्था के प्रति गहरा आक्रोश पैदा करने का काम किया था। रूबिया सईद के अपहरणकर्ताओं ने केंद्र सरकार के सामने उसकी रिहाई के बदले पांच आतंकवादियों को रिहा किए जाने की मांग रखी। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. फारूख अब्दुल्लाह और इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के स्थानीय प्रमुख अमरजीत सिंह दुलत इस मांग को स्वीकारे जाने के सख्त खिलाफ थे, लेकिन केंद्र सरकार, मुख्य रूप से प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने अपने गृहमंत्री के दबाव के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और रूबिया सईद के बदले पांचों आतंकवादियों को रिहा कर दिया गया। यह भारत सरकार की अक्षम्य भूल थी, जिसने कश्मीर में आतंकवादियों के हौसले बुलंद करने और घाटी में आतंकी गतिविधियों को विस्तार देने में अहम भूमिका निभाई। इन पांचों आतंकवादियों को रिहा करने का फैसला केंद्र सरकार ने जम्मू- कश्मीर सरकार के विरोध को पूरी तरह नजरअंदाज कर लिया था। वी.पी. सिंह ने अपने दो वरिष्ठ मंत्रियों आरिफ मोहम्मद खान और इंद्रकुमार गुजराल को आतंकियों के साथ बातचीत करने और रूबिया सईद की सकुशल रिहाई के लिए कश्मीर भेजा था। आईबी के तत्कालीन जम्मू-कश्मीर प्रदेश प्रमुख ए.एस. दुलत के अनुसार- ‘मैं दिल्ली की टीम को एयरपोर्ट छोड़कर जब वापस लौटा तो पाया कि घाटी में दीवाली-सा माहौल था। पूरा श्रीनगर रोशनी में नहाया हुआ था और बहुत सारे नवयुवक आंदोलन (भारत से आजादी के) के लिए सड़क पर पैसा वसूल रहे थे। श्रीनगर का मिजाज पूरी तरह बदल चुका था और आजादी का क्षण नजदीक आ चुका था।’
फारूख अब्दुल्लाह की आशंका आने वाले दिनों में सही साबित हुई। वी.पी. सिंह सरकार का आतंकियों के समक्ष कमजोर पड़ना कश्मीर घाटी में आतंकवाद का वर्चस्व स्थापित करने और कश्मीरी पंडितों के कश्मीर से पलायन के रूप में सामने आया। इस पर विस्तार से चर्चा आगे। घाटी में इस अपहरण के बाद कानून- व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई थी। आतंकियों के हौसले चरम पर थे। अप्रैल, 1990 में उन्होंने कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मुशीर-उल-हक, उनके निजी सचिव और एक सहायक का अपहरण दिन-दहाडे़ कर डाला। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) द्वारा हक की रिहाई के बदले जेल में कैद पांच आतंकियों को छोडे़ जाने की मांग रखी गई। हक को 6 अप्रैल के दिन अगवा किया गया था। 7 अप्रैल को सरकारी प्रतिष्ठान एच.एम.टी. के महाप्रबंधक एम.एल. खेरा का भी अपहरण कर आतंकियों ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन को सकते में डालने का काम कर दिखाया। राज्य में तब तक फारूख अब्दुल्लाह की सरकार बर्खास्त कर जनवरी, 1990 में राष्ट्रपति शासन लगाया जा चुका था और जगमोहन राज्य के नए राज्यपाल बन चुके थे। जगमोहन ने आतंकियों की मांगें मानने से इनकार कर दिया, जिसका नतीजा मुशीर-उल-हक, उनके दोनों सहयोगियों और एच.एम.टी. के महाप्रबंधक एम.एल. खेरा की निर्मम हत्या के रूप में सामने आया।