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Editorial

आजाद भारत का पहला आम चुनाव

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-44

भारी तादात में खाद्य सामग्री की जमाखोरी और कालाबाजारी ने त्राहि-त्राहि मचा इस संकट को गहरा दिया था। 1943 में बंगाल अकाल की चपेट में आ गया जिसमें भूखमरी चलते चार लाख की मौत हो गई। हालात को संभालने के लिए सरकार ने ‘ग्रो मोर फूड’ अभियान की शुरुआत कर ज्यादा से ज्यादा जमीन पर खेती करने के लिए युद्ध स्तर पर जनता को जागरूक और प्रेरित करना शुरू किया। कमजोर सिंचाई व्यवस्था चलते यह अभियान खास सफल नहीं रहा। विभाजन के दौरान हिंदू- मुस्लिम-सिख दंगों ने पंजाब में गेहूं की पैदावार में गहरे प्रभावित कर डाला था। इस खाद्यान्न संकट से उबरने के लिए नेहरू सरकार की आयात पर निर्भरता तेजी से बढ़ने लगी। सरकार का खजाना पहले से बदहाल था जिस पर इस खाद्यान्न आयात ने भारी बोझ डालने का काम कर डाला। महंगे दामों पर अनाज आयात कर भारत सरकार उन्हें सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों के जरिए जनता को उपलब्ध कराती थी। इस चलते 1947 से 1949 तक प्रति वर्ष 20-25 करोड़ का बोझा केंद्र सरकार उठाना पड़ा था। अपने विदेशी मुद्रा भंडार के तेजी से कम होने ने नेहरू सरकार की चिंताओं में भारी इजाफा करने का काम किया। सरकार ने 1949 के मध्य में ऐलान करा कि 1951 के अंत तक अन्न की पैदावर बढ़ाने के विशेष प्रयास किए जाएंगे और प्रसारित अपने संदेश में प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा ‘यदि हम अपने राष्ट्र के लिए समूचित मात्रा में खाद्यान्न उत्पादित नहीं कर सकते और दूसरे देशों पर निर्भर रहते हैं तो इससे हमारी आजादी खतरे में पड़ सकती है।’ नेहरू सरकार ने कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधारों की तरफ अपना ध्यान केंद्रित करते हुए उन्नत किस्म के बीज, रसायनिक खाद्य और सिंचाई के नए संसाधन विकसित करने का एक अभियान -सा छेड़ दिया। देश भर में किसानों से लेकर हरेक नागरिक से यह शपथ दिलाई जाने लगी कि ‘वह खाद्य पदार्थों की कमी को देखते हुए अपने दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताओं के लिए मोटा अनाज का इस्तेमाल करेगा, चावल को कम से कम उपयोग में लाएगा। नियमित तौर पर कुछ समय ऐसे कार्यों पर लगाया जिनका खेती से अथवा अन्न के संरक्षण से हो इत्यादि।’ सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उद्देश्य से लाखों कुएं तैयार करवाए गए। रासायनिक खाद और उन्नत प्रजाति के बीज किसानों को दिए गए। केंद्र सरकार में खाद्य मंत्री के.एम. मुंशी को नेहरू ने देश में मौजूद खाद्यान्न के सही आंकड़े जुटाने को कहा ताकि केंद्र सरकार इन आंकड़ों के जरिए इस संकट का सही और वैज्ञानिक समाधान तलाश सके। कालाबाजारी को रोकने और जमाखोरी पर अंकुश लगाने के लिए भी पंचायत स्तर पर योजनाएं लागू की गईं। तमाम प्रयासों के बावजूद के.एम. मुंशी राज्य सरकारों से सही आंकड़े जुटा पाने में विफल रहे। अंग्रेजी दैनिक ‘डैक्किन क्रानिकल’ के अनुसार खाद्य मंत्री ने इस विफलता का ठीकरा राज्य सरकारों पर फोड़ते हुए कहा ‘The Surplus units are not too anxious to disclose their real surplus nor are the deficit units anxious to disclose the real deficit.’ जिनके पास अधिक अन्न है, ऐसे राज्य सही आंकड़ा नहीं देना चाहते और जिनके पास कमी है, वे भी सही आंकड़ा बताने के इच्छुक नहीं हैं।) लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में अंतरराष्ट्रीय इतिहास विभाग के प्रोफेसर डॉ. टेलर. सी. शर्मन ने नेहरू सरकार की खाद्य नीति पर लिखे अपने शोध पत्र में इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि आजादी के पहले पांच बरसों के दौरान मौसम की निगाहें भी भारत पर टेढ़ी रही थीं। इन पांच बरसों में दक्षिण भारत में कम  बारिश और समुद्री तूफान ने चावल की फसल को बर्बाद करने का काम किया। कोसी नदी में भयानक बाढ़ ने बिहार और पश्चिम उत्तर प्रदेश के खेती को तबाह कर डाला था जिस चलते अन्न का संकट नेहरू सरकार के लिए बड़ी समस्या बन गया। 1950 में अकेले बिहार में तीस मौतें भुखमरी से हो गई। उत्तर प्रदेश में भी ऐसी मौतों का सिलसिला शुरू हो चला था। खाद्य मंत्री के.एम. मुंशी के प्रति जनता की नाराजगी तब खासी मुखर हो उठी जब उन्होंने 1950 में जनता से जंगली पदार्थों को खाए जाने का सुझाव दिया। अंग्रेजी दैनिक ‘पायनियर’ ने इस पर कटाक्ष करते हुए लिखा ‘May be bark…boiled…and seasoned with newspaper cuttings containing the food Minister’s speeches will be a better proposition..for dessert we must have wood-slabs of it-and a plateful of sawdust in honour of the master brain that conceived such a brilliant idea.’ (शायद पेड़ की छाल …उबाली हुई …और उसके साथ खाद्य मंत्री के भाषणों वाले समाचार पत्र मिलाकर…मीठे में लकड़ी के टुकड़े और बुरादा मिलाया जाए, उस महान दिमाग के नाम जिसने इतना शानदार सुझाव दिया।) नेहरू सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद देश में अन्न का संकट तेजी से गहराता गया। हालात इतने बिगड़े कि जनता सड़कों में उतरने को मजबूर हो गई थी। जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी ने 1951 में जन आंदोलन शुरू कर दिया। जे.पी. ने ‘अधिक अन्न उपजाओ’ नीति को धोखा बताते हुए केंद्र सरकार से इस्तीफे की मांग कर डाली ‘If the government of India are unable to feed the people, which is there primary duty…they must then say so and resign. Let the people choose a new government’ (यदि भारत की सरकार जनता को खाना नहीं दे सकती, जो उसकी बुनियादी जिम्मेदारी है …उन्हें स्पष्ट कह देना चाहिए और इस्तीफा दे देना चाहिए। जनता को नई सरकार चुनने का मौका मिलना चाहिए।) नेहरू ने अब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस संकट को सामने रख मदद की गुहार लगाई। रूस, चीन और अर्जेंटीना ने तत्काल मदद भेजी। अमेरिकी सरकार ने पहले तो नेहरू की इस अपील पर ठंडा रुख अपनाया क्योंकि उसे नेहरू की निर्गुट नीति कतई नहीं सुहा रही थी, 1957 में लेकिन अंततः उसने भी 190 लाख अमेरिकी डॉलर का ऋण स्वीकृत कर भारत को गेहूं की सप्लाई शुरू करी। 1951 के मध्य तक हालात विदेशी मदद चलते सुधरने लगे। आने वाले वर्षों में नेहरू का पूरा ध्यान कृषि सुधारने में लगा जिसका नतीजा हरित क्रांति और अन्न पर हमारी आत्मनिर्भरता के रूप में हमारे सामने है।

नेहरू सरकार की एक बड़ी उपलब्धि 1952 में पहले आम चुनाव सफलतापूर्वक कराने की है। इसके लिए मार्च, 1950 में चुनाव आयोग का गठन केंद्र सरकार ने किया। अप्रैल, 1950 में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम संसद ने पारित कर नया कानून बनाया जिसके अंतर्गत 21 वर्ष और उसके ऊपर की आयु के हर नागरिक को मतदान का अधिकार दिया गया। देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन बनाए गए जो ब्रिटिश भारत में आईसीएस अफसर रह चुके थे। चुनाव आयोग के समक्ष मात्र डेढ़ बरस के भीतर पूरे देश में लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव कराए जाने की ऐसी जिम्मेवारी आन पड़ी थी जिसे लगभग असंभव कहा जा सकता है। साढ़े सत्रह करोड़ के करीब मतदाताओं की सूची तैयार करना, मतदान पत्रों को तय करना, चुनाव केंद्र स्थापित करना इत्यादि ऐसे काम थे जिन्हें पहली बार अमल में लाया जाना था। 4000 विधानसभा और 500 लोकसभा की सीटों के लिए मतदान कराने के लिए सेन ने युद्ध स्तर पर कार्य शुरू किया। 2,24,000 मतदान केंद्र बनाए गए, 20 लाख स्टील की मतदान पेटियां तैयार करवाई गई जिन्हें बनाने में 8,200 टन स्टील लगा। 16,500 कर्मचारी 6 महीने के लिए तदर्थ आधार पर नियुक्त किए गए जिनका काम मतदाता सूची बनाना था। इसके लिए 3,80,000 कागज की रिम् काम में लाई गई। देश भर में 56,000 मतदान अधिकारी, 2,80,000 सहायक और 2,24,000 पुलिसकर्मियों को चुनाव ड्यूटी में लगाया गया।’
चुनाव आयोग के समक्ष एक बड़ी समस्या मतदाता सूची तैयार करते समय आई जो खासी अनुठी थी। उत्तर भारत में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था अनुसार महिला मतदाताओं ने अपने नाम के बजाए ‘फलाने की पत्नी’ अथवा ‘फलाने की बेटी’ लिखवाना चाहा। सेन ने ऐसी मतदाता सूचियों को खारिज करते हुए मतदाता के नाम को ही वैध मानने का निर्णय लिया। तमाम प्रयासों के बाद भी लगभग 28 लाख महिला मतदाताओं ने अपना नाम नहीं दिया जिस कारण उन्हें मताधिकार से वंचित रहना पड़ा। चुनाव आयोग की एक महत्वपूर्ण पहल ‘चुनावी स्याही’ तैयार करने की रही जिसकी मदद से वोटर को दो बार मतदान करने से रोका गया। 25 अक्टूबर 1951 के दिन पहला मतदान हिमाचल प्रदेश के दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र चीनी में हुआ। यहां बर्फबारी शुरू होने से पहले ही मतदान कराया जाना जरूरी था। 21 फरवरी 1952 के दिन 68 चरणों वाले इस पहले चुनाव का समापन हुआ था। 53 राजनीतिक दल और 533 स्वतंत्र उम्मीदवारों ने लोकसभा की 489 सीटों के लिए चुनाव में भाग लिया था। नेहरू सरकार में मंत्री रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी और डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने मंत्री पद से इस्तीफा दे कांग्रेस के खिलाफ अपने-अपने दलों के प्रत्याशी मैदान में उतारे थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ तो डॉ. अंबेडकर ने शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का गठन कर चुनाव लड़ा। अन्य महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों में डॉ. राममनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी, कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके आचार्य कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा परिषद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आदि शामिल थे। कांग्रेस को इन चुनावों में भारी बहुमत के साथ जीत मिली थी। वह 364 सीटों में विजयी रही। डॉ. लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी को 12, किसान मजदूर प्रजा पार्टी को 9 तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 16 सीटों पर विजय मिली। डॉ. अंबेडकर की पार्टी मात्र दो सीटें जीत पाई। स्वयं डॉ. अंबेडकर अपना चुनाव हार गए। इसी तरह उत्तर प्रदेश की फैजाबाद सीट से आचार्य कृपलानी पराजित हुए। एक तरह से इन चुनावों ने भारत में नेहरू का एक छत्र राज स्थापित करने का काम किया। दिसंबर, 1950 में पटेल की मृत्यु बाद वे कांग्रेस के निर्विवाद नेता पहले ही स्थापित हो चुके थे। राज्य विधानसभाओं की कुल 3,280 सीटों में से 2,247 सीटें कांग्रेस के पक्ष में गईं। केरल छोड़ सभी अन्य राज्यों में कांग्रेस की सरकार इन चुनावों बाद गठित हुई थी।
क्रमशः

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