पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-47
नेहरू ने लेकिन पटेल की चेतावनी को पूरी तरह नजरअंदाज कर डाला। एक दिन बाद 5 जून, 1949 को इस पत्र के उत्तर में नेहरू ने लिखा ‘…The Communist in China are behaving very correctly towards the foreigners and even bussiness is continuing to some extent'( …चीन के वामपंथियों का व्यवहार विदेशियों के प्रति सही है। यहां तक की व्यापार भी कुछ हद तक सही चल रहा है।) नेहरू लेकिन गलत और वल्लभाई पटेल की आशंकाएं सही साबित हुईं। तिब्बत की सरकार ने अक्टूबर, 1950 में भारत से चीनी आक्रमण के खिलाफ मदद की खुली गुहार लगाई जिसे नेहरू ने नजरअंदाज कर दिया। 4 नवंबर, 1950 के दिन चीन ने तिब्बत को अपने कब्जे में लिए जाने की आधिकारिक घोषणा कर डाली। नेहरू की चीन नीति से खिन्न पटेल ने 7 नवंबर, 1950 को नेहरू को एक लंबा पत्र लिख अपना प्रतिरोध दर्ज कराया-‘I have carefully gone through the correspondence between the External Affairs Ministry and our Ambassador in Peking and through him the Chinese Government. The Chinese Government have tried to delude us by professions of peaceful intentions… The final action of Chinese, in my judgments, is little short of perfidy. The tragedy of it is that the Tibetans put faith in us; they choose to be guided by us; and we have been unable to get them out of the meshes of Chinese diplomacy or Chinese influence …The undefined state of the frontier and existence on our side of a population with affinities to Tibetans or Chinese have all the elements of potential troubles between Chinese and ourselves. For the first time after centuries, India’s defence has to concentrate it self on two tronts simultanesusly…In our calculations we shall now have to reckon (apart from Pakistan) with Communist China in the North and Northeast.(मैंने विदेश मंत्रालय और पेकिंग में हमारे राजदूत और उनके माध्यम से चीनी सरकार संग पत्राचार को ध्यान से देखा है। चीनी सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों का प्रदर्शन कर हमें भ्रमित करने का काम किया है…मैं समझता हूं यह चीन की अंतिम कार्रवाई से थोड़ा कम है। त्रासदी यह कि तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया, वे हमारे कहे पर चलते रहे और हम उन्हें चीनी कूटनीति अथवा चीन के प्रभाव के जाल से बाहर निकालने में असमर्थ सिद्ध हुए… हमारी सीमाओं की अपरिभाषित स्थिति और तिब्बत अथवा चीन संग संबंध रखने वाली हमारी अपनी आबादी के चलते चीन संग हमारी समस्याएं बढ़ने के पूरे आसार हैं। सदियों के बाद पहली बार भारत की रक्षा को एक साथ दो मोर्चों पर खुद को दुरस्त करना होगा…पाकिस्तान के अलावा अब हमें उत्तर और उत्तर पूर्व में कम्युनिस्ट चीन के साथ) नेहरू ने पटेल के इस पत्र का उत्तर न देते हुए 18 नवंबर को मंत्रिमंडल के समक्ष इस विषय पर अपनी बात रखते हुए भारत के सामने चीन की विस्तारवादी नीति की बाबत पटेल की आशंकाओं को सिरे से खारिज करने का काम किया। बकौल नेहरू ‘I think it is extremly unlikely that we may have to face any real military invasion from the Chinese side…It is inconceivable that China should divert its forces and its strength across the inhospitable terrain of Tibet and undertake a wild adventure across the Himalayas… Thus I rule out any major attack on India by China.’ (मेरा मानना है यह लगभग असंभव है कि चीन से हम पर कोई वास्तविक सैन्य खतरा है…यह संभव ही नहीं कि चीन अपनी फौज को दुर्गम हिमालयी इलाकों में भेजने का खतरा उठाएगा और तिब्बत के रास्ते कोई सैन्य कार्यवाही करेगा…मैं चीन की तरफ से भारत पर हमले की संभावना को नकारता हूं।) नेहरू लेकिन इस मुद्दे पर पूरी तरह गलत निकले। आने वाले कुछ बरस बाद ही पटेल की आशंकाएं सही साबित हुईं लेकिन तब तक पटेल इस दुनिया से विदा ले चुके थे।
चीन की तरफ से पूरी तरह आश्वस्त भारत ने 1954 में तिब्बत पर चीनी कब्जे को वैधता देते हुए एक द्विपक्षीय समझौते पर 29 अप्रैल को हस्ताक्षर कर चीन संग मैत्री की तरफ एक कदम और बढ़ा डाला। ‘पंचशील समझौते’ के नाम से जाने गए इस समझौते की प्रस्तावना में शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के पांच सिद्धांतों पर दोनों देशों ने अपनी सहमति दर्ज कराई थी। ये पांच सिद्धांत थे-1 .एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का परस्पर सम्मान, 2 .आपस में युद्ध नहीं करना, 3.एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, 4 .मानता और पारस्परिक लाभ के लिए कार्य करना और 5 . शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बनाए रखना। इस समझौते को लेकर नाना प्रकार की आशंकाएं 1954 में कइयों ने व्यक्त की थी जो आगे चलकर सही साबित हुईं। नेहरू को यूं तो विदेशी मामलों की बाबत सलाह देने वाला कोई भी कद्दावर नेता पटेल की मृत्यु पश्चात् कांग्रेस में बचा नहीं था। लेकिन आंतरिक मसलों, विशेषकर कांग्रेस संगठन के भीतर नेहरू विरोध के स्वर उभरने लगे थे। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री के मध्य भी तनाव कई मसलों को लेकर गहराने लगा था। आजाद भारत के पहले विदेश सचिव सर गिरिजा शंकर वाजपेयी यूं तो नेहरू के पसंदीदा नौकरशाह थे लेकिन चीन के मामलां में नेहरू वाजपेयी से कहीं ज्यादा भरोसा पेंकिंग में भारत के राजदूत के ़ए ़पनिक्कर पर करते थे। नवंबर, 1950 में नेहरू को चीन बाबत कही अपनी आशंकाओं से अवगत कराने से पहले पटेल ने वाजपेयी से सलाह- मशविरा किया था। 1954 में हुए पंचशील समझौते को लेकर वाजपेयी कतई आश्वस्त नहीं थे। तब तक वे विदेश सेवा से सेवानिवृत्त हो मुंबई के गवर्नर नियुक्त किए जा चुके थे। अपने एक सहयोगी को लिखे पत्र में उन्होंने आशंका जताई थी कि ‘चीन की विस्तारवादी नीति किसी भी दृष्टि से कम्युनिस्ट रूस से कम नहीं हैं।’ इस समझौते के बाद नेहरू अक्टूबर, 1954 में चीन की राजकीय यात्रा पर गए जहां उनका भव्य स्वागत चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और सरकार द्वारा किया गया। अपनी इस यात्रा की बाबत नेहरू ने विस्तृत नोट जारी किया जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख चेयरमैन माओ संग अपनी बातचीत की बाबत नेहरू ने लिखा ‘चेयरमैन माओ ने दोनों देशों के मध्य युगों से चले आ रहे रिश्तों की बात करते हुए हालिया समय में दोनों के मध्य मित्रता को रेखांकित किया। दो देश शांति के लिए संघर्ष कर रहे हैं।…चीन को कम से कम 20 वर्ष का समय लगेगा जब वह साम्यवादी अर्थव्यवस्था की बुनियाद पर एक औद्योगिक राष्ट्र बन पाएगा। चीन शांति चाहता है लेकिन अमेरिका समेत कुछ देश उसकी राह में रोड़ा अटका रहे हैं।….चीन किसी भी देश के लिए खतरा नहीं है और चाहता है कि सभी देश आपस में शांतिपूर्ण रिश्ते बनाएं।’ नेहरू लिखते हैं कि ‘पंचशील समझौते को लेकर भी चेयरमैन माओ ने अपनी सहमति दी और उम्मीद जताई कि यदि इन सिद्धांतों का पालन सभी देशों ने किया तो तनाव और भय दूर करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण पहल साबित होगी। मैंने भारत के आंतरिक मामलों में देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के हस्तक्षेप का जिक्र किया। चेयरमैन माओ ने मुझे भरोसा दिलाया है कि चीन किसी भी स्थिति में हमारे आंतरिक मामलों में दखल देने की कोई मंशा नहीं रखता है।’ प्रधानमंत्री चाऊ-इन-लाई के साथ अपनी बातचीत का ब्यौरा देते हुए नेहरू ने लिखा ‘मैंने चीन के नक्शे में बर्मा के कुछ हिस्सों और भारत के कुछ इलाकों को दिखाए जाने की बात उठाई और कहा कि हालांकि हम इससे खास चिंतित नहीं हैं क्योंकि हमारी सीमाएं बिल्कुल स्पष्ट हैं लेकिन बहुत से लोग इन नक्शों का हवाला देते हुए चीन के आक्रमक रवैये की बात कर रहे हैं। प्रधानमंत्री चाऊ का उत्तर था कि ये सभी नक्शे पुराने हैं और अभी तक चीन ने अपनी सीमाओं का नया सर्वे नहीं किया है।’ नेहरू ने आगे लिखा ‘मुझे रंचमात्र भी शंका नहीं है कि चीन की सरकार और वहां की जनता शांति चाहती है और अपनी ऊर्जा अगले दो दशकों तक अपने राष्ट्र के निर्माण में लगाना चाहती है।’ इस यात्रा के बाद नेहरू का चीन के प्रति झुकाव बढ़ता चला गया। 1956 में चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-इन-लाई की भारत यात्रा के दौरान यही दोस्ताना और ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का माहौल रहा। इस बीच तिब्बत में चीन के खिलाफ विद्रोही स्वर तेजी से उभरने लगे थे तो दूसरी तरफ ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के माहौल में भी सीमाओं को लेकर दोनों देशों के मध्य तनाव की भी शुरुआत हो चुकी थी। हालांकि नेहरू पूरी तरह आश्वस्त थे कि इस मसले को शांतिपूर्ण तरीके से वार्ताओं के जरिए हल कर लिया जाएगा फिर भी भारत सरकार ने अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखने की शुरुआत पूर्वोत्तर से की जहां का तवांग शहर तिब्बत से जुड़ता है। 1914 से पहले यहां तिब्बत की सत्ता थी। 1914 में सीमाओं के रेखांकन को लेकर ब्रिटेन और तिब्बत के मध्य एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए जिसके अनुसार तवांग ब्रिटिश भारत के अधीन हो गया था। इस सीमांकन को ‘मैकमोहन लाइन’ कहा जाता है जिसे बाद के वर्षों में चीन द्वारा नकार दिया गया था। तिब्बत ने इस संधि के बाद भी लगभग 20 बरसों तक तवांग पर अपना कब्जा बनाए रखा था। 1938 में ब्रिटिश सेना ने यहां अपना कब्जा कर मैकमोहन रेखा के अनुसार सीमाओं को तय कर दिया। तिब्बत सरकार ने संधि होने के बावजूद तवांग पर अपना कब्जा रखने की कवायद लगातार जारी रखी थी। 1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जे पश्चात् तवांग क्षेत्र पर भारतीय सेना ने पूरी तरह अपना तंत्र स्थापित करने का काम किया ताकि मैक मोहन रेखा के अनुसार चीन और भारत की सीमा स्पष्ट रहे। चीन आज भी इस शहर को विवादित मानते हुए अपने हिस्से में दर्ज करता आया है। जब भारतीय फौजे पूर्वोंत्तर इलाके में अपनी स्थिति मजबूत करने में जुटी थी, चीन की सेना पश्चिमी इलाके में अपने पैर पसार रही थी। उसके निशाने पर लद्दाख से सटा ‘अक्साई-चिन’ पठार था जिसका आधिकारिक नियंत्रण सदियों से जम्मू-कश्मीर रियासत के हाथों में था। 1854 में ब्रिटिश सेना के हाथों पराजय के बाद जम्मू-कश्मीर रियासत ब्रिटिश हाथों में चली गई जिसने यहां का सीधा नियंत्रण न लेकर अपने अधीन डोगरा राजा गुलाब सिंह को यहां का महाराजा घोषित करा था। महाराजा गुलाब सिंह ने लद्दाख के व्यापारिक महत्व को समझते हुए यहां अपनी सैन्य स्थिति को मजबूत करने में विशेष दिलचस्पी रखी। 1917 से 1933 तक चीन सरकार के आधिकारिक नक्शों में ‘अक्साई-चीन को ब्रिटिश भारत का हिस्सा दर्शाया जाता रहा। पेंकिंग विश्वविद्यालय द्वारा 1925 में प्रकाशित नक्शे में भी अक्साई-चीन’ को ब्रिटिश भारत का हिस्सा दिखाया गया था। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने भी इसी सीमांकन को सही ठहराते हुए ‘अक्साई चीन’ को भारत का हिस्सा करार दिया। चीन ने इस दौरान कभी भी भारत के दावे पर अपना आधिकारिक ऐतराज दर्ज न करा नेहरू को भ्रम में रखने का काम किया।
क्रमशः