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Editorial

 घात-प्रतिघात की राजनीति का दौर

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-25


कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मधय तेजी से बढ़ रहे अविश्वास का सीधा लाभ द्वितीय विश्व युद्ध से त्रस्त ब्रिटिश साम्राज्य को मिल रहा था। जिन्ना इस दौरान पूरी शिद्दत के साथ ब्रिटिश सरकार के पक्ष में आ खड़े हुए। सरकारी तंत्र में उनके बढ़ते प्रभाव का एक बड़ा लाभ मुस्लिम लीग के विस्तार बतौर देखने को मिलता है। 16 अगस्त, 1938 को जिन्ना की बाबत अपनी डायरी में तत्कालीन भारत मामलों के मंत्री लॉर्ड जेटलैंड ने लिखा ‘जिन्ना ने एक आश्चर्यजनक बात कही कि हमें केंद्र में यथास्थिति बनाए रखनी चाहिए और मुसलमानों संग अपनी मित्रता बढ़ानी चाहिए। यदि हम (ब्रिटिश सरकार) कांग्रेस शासित प्रांतों में मुसलमानों की रक्षा करते हैं तो केंद्र सरकार को बनाए रखने में मुसलमान हमारी रक्षा करेंगे।’

लॉर्ड जेटलैंड का केंद्र में यथास्थिति बनाए रखने से आशय कांग्रेस की दिनोंदिन जोर पकड़ती जा रही मांग से था। कांग्रेस केंद्र में एक स्वतंत्र केंद्र सरकार चाह रही थी जिसकी बागडोर भारतीयों के हाथों में दिए जाने का दबाव उसके द्वारा बनाया जा रहा था। जिन्ना पर मुसलमानों के एकमात्र नेता होने का जुनून इस कदर हावी हो चला था कि वे कांग्रेस के बड़े मुस्लिम नेताओं से बातचीत तक करने के लिए तैयार नहीं थे। उनकी जिद थी कि कांग्रेस नेताओं संग यदि कोई बातचीत करनी है तो वे हरकेवल महात्मा गांधी से ही करेंगे क्योंकि उनकी दृष्टि में गांधी ‘हिंदुओं’ के सबसे बड़े नेता थे और खुद वे मुसलमानों के। 26 दिसंबर, 1938 की शाम लाहौर में आयोजित मुस्लिम लीग की एक सभा में दिया गया जिन्ना का भाषण काबिल-ए-गौर है। अपने इस भाषण में जिन्ना ने हिंदू-मुस्लिम एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस को बताते हुए महात्मा गांधी पर हिंदुवादी नेता होने तक का आरोप जड़ दिया। जिन्ना ने कहा ‘कांग्रेस और कुछ नहीं बल्कि एक हिंदुवादी संगठन है और इस बात को कांग्रेस के नेता भी मानते हैं। कुछ दिशाहीन और दिग्भ्रमित मुसलमानों की उपस्थिति कांग्रेस को राष्ट्रीय स्वरूप नहीं दिला सकती है। मैं चुनौती देता हूं कि कोई भी प्रमाणित कर दिखाए कि कांग्रेस हिंदुवादी संगठन नहीं है? मैं पूछता हूं कि क्या कांग्रेस वाकई  मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है?… इस सबके पीछे किसका दिमाग है? गांधी का? मुझे यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं कि श्रीमान गांधी ने उन सिद्धांतों को नष्ट कर दिया है जिनको लेकर कांग्रेस जन्मी थी। वह अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो कांग्रेस को हिंदुवाद की पुनर्स्थापना के उपयोग में ला रहे हैं। उनका उद्देश्य और लक्ष्य हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना और इस देश में हिंदुराज स्थापित करने का है।’

गांधी को हिंदुवादी नेता और कांग्रेस को हिंदुवादी संगठन घोषित करने के बाद जिन्ना पूरी तरह से पृथकतावादी हो गए। 22 मार्च, 1940 के दिन शुरू हुए मुस्लिम लीग के तीन दिवसीय लाहौर अधिवेशन में अंततः जिन्ना ने अपने मन की बात को इस अधिवेशन में लाए एवं स्वीकारे गए संकल्प के जरिए सार्वजनिक कर डाली। लाहौर प्रस्ताव (Lahore Resolution) के नाम से जाने गए इस संकल्प को ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ (Pakistan Resolution) भी कहा गया है। इस प्रस्ताव को बंगाल प्रांत के मुख्यमंत्री ए.के. फजलुल हक ने अधिवेशन सभा में पेश किया, जिसमें मुख्य रूप से मुस्लिम बाहुल्य इलाकों को एक अलग राष्ट्र के रूप में गठित करने की बात कही गई। इसमें कहा गया ‘अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के इस अधिवेशन में बहुत सोच-विचार के बाद यह संकल्प लिया गया है कि इस देश के लिए कोई भी संवैधानिक व्यवस्था तब तक कारगर नहीं हो सकती है या मुसलमान उसे स्वीकार नहीं सकते हैं जब तक भौगोलिक रूप से ऐसे इलाकों को पुनर्गठित नहीं किया जाता, जिनमें मुसलमान बहुसंख्यक हैं और ऐसे पुनर्गठित इलाकों जैसे भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र और पूर्वी परिक्षेत्र को स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है।’
स्पष्ट है कि इस प्रस्ताव में सीधे तौर पर एक मुस्लिम बाहुल्य पाकिस्तान राष्ट्र की बात न कहते हुए मुस्लिम बाहुल्य वाले ‘राष्ट्रों’ की बात कही गई। इस प्रस्ताव को पेश करते समय बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री शेर-ए- बंगाल फजलुल हक बंगाल प्रांत को एक अलग राष्ट्र पर बनाने की योजना पर काम कर रहे थे तो जिन्ना इससे अलग एक ऐसे मुस्लिम देश की कल्पना कर रहे थे जिसमें बंगाल और उत्तर-पश्चिम के मुसलमान बाहुल्य क्षेत्र शामिल थे। लीग के एक अन्य मजबूत नेता और पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री खान बहादुर सिकंदर हयात खान ने ‘लाहौर प्रस्ताव’ को अपनी सहमति जरूर दी थी लेकिन उनके लिए यह कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार से अपने प्रांत के लिए ‘सौदेबाजी’ करने का जरिया मात्र था। सिकंदर हयात ने अंतिम समय तक विभाजन की अवधारणा का विरोध किया क्योंकि उनकी सरकार हिंदू-मुस्लिम और सिख बहुमत वाली सरकार थी। 1942 में अपनी मृत्यु तक सिकंदर हयात खान ‘लाहौर प्रस्ताव’ को सौदेबाजी का एक हथियार मानते रहे लेकिन जिन्ना के लिए यह सौदेबाजी का हथियार नहीं बल्कि एक अलग मुस्लिम राष्ट्र की नींव का पत्थर था। लीग के इस प्रस्ताव पर कांग्रेस ने तीखी प्रक्रिया दे स्पष्ट कर दिया कि वह किसी भी सूरत में विभाजन के पक्ष में नहीं है और जिन्ना को वह मुसलमानों का एक मात्र नेता नहीं मानती है। कांग्रेस नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने कठोर टिप्पणी करते हुए कहा ‘मैं इसे बीमार दिमाग की निशानी मानता हूं जिसके चलते श्रीमान जिन्ना ने एक भारत के विचार को मिथ्या माना है और हमारी अधिकतर समस्याओं की वजह करार दिया है।’ नेहरू ने इस प्रस्ताव को पूरी तरह खारिज करते हुए इसे ‘बेहूदा और ऊटपटांग’ करार दिया। महात्मा की इस मसले पर प्रतिक्रिया सधी हुई और संतुलित थी। उनसे जब पूछा गया कि क्या लीग के इस प्रस्ताव बाद भी आप असहयोग आंदोलन शुरू किए जाने के पक्ष में हैं? गांधी का उत्तर था- ‘मैं मानता हूं कि लाहौर में लीग द्वारा पेश किए गए इस प्रस्ताव ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है लेकिन इतनी भी नहीं कि सविनय अवज्ञा ही नामुमकिन हो जाए? . . . मुसलमानों को भी बाकी भारत की तरह आत्मनिर्णय का अधिकार है। हम एक संयुक्त परिवार सरीखे हैं। परिवार का कोई भी सदस्य विभाजन की मांग कर सकता है।’
द्वितीय विश्व युद्ध में लगातार ‘एक्सिस पावर’ के हाथों ब्रिटेन की कमजोर हो रही स्थिति ने भारत में इस विश्वास को तेज करने का काम शुरू कर दिया था कि अब आजादी का क्षण नजदीक आ चला है। इस विश्वास ने मुस्लिम लीग के भीतर घात-प्रतिघात की राजनीति को भी तेजी दे दी थी। पंजाब के लीगी नेता सिकंदर हयात कांग्रेस के साथ मिलकर एक महासंघ बनाने की जुगत लगा रहे थे जिसमें एक मजबूत केंद्र के अधीन अधिकतम स्वतंत्रता वाले राज्यों की बात कही जा रही थी तो दूसरी तरफ बंगाल प्रांत के मुख्यमंत्री फजलुल हक मुस्लिम लीग में रहते हुए, कांग्रेस संग लगातार वार्ता कर रहे थे। अकेले मोहम्मद अली जिन्ना किसी भी सूरत में अलग राष्ट्र से हटकर बात करने के लिए तैयार नहीं थे। ब्रिटिश शासक ऐसे समय में फूंक-फूंक कर कदम रख रहे थे। ‘लाहौर प्रस्ताव’ से उत्साहित हो पंजाब प्रांत के गवर्नर सर हेनरी क्राइक ने वायसराय लिनलिथगो को भेजी अपनी रिपोर्ट में लिखा ‘कांग्रेस को दिया गया करारा जवाब। अब पूरे भारत के नाम पर बोलने का कांग्रेसी दावा ध्वस्त हो जाएगा।’
इस प्रस्ताव पर वायसराय लिनलिथगो ने अपनी सधी प्रतिक्रिया देते हुए जिन्ना को लिखा कि ‘ब्रिटिश सरकार सभी मुसलमान शक्तियों के साथ दोस्ती और हमदर्दी रखती है।’ उन्होंने जिन्ना से यह भी वायदा किया कि ‘भारतीय मुसलमानों की सहमति के बगैर ब्रिटिश हुकुमत भारत के लिए बनाए जा रहे नए संविधान को लागू नहीं करेगी।’ स्पष्ट है कि ब्रिटिश हुकूमत को मुस्लिम लीग द्वारा विश्वयुद्ध के दौरान दिया जा रहा समर्थन रास आ रहा था और वह कांग्रेस के रुख से खासी परेशानी महसूस कर रही थी। जिन्ना अंग्रेजों की इस मनःस्थिति का हर कीमत पर लाभ उठाने और खुद को अंग्रेजों की निगाह में सबसे भरोसेमंद साथी का दर्जा दिलाए जाने में जुट गए। वायसराय लिनलिथगो लेकिन जिन्ना पर एक हद से ज्यादा भरोसा नहीं करते थे। जिन्ना भी वायसराय के प्रति नाराजगी का भाव रखने लगे। उनका मानना था कि मुसलमानों की ब्रिटिश सत्ता संग पूरी वफादारी के बावजूद वायसराय उन्हें तरजीह नहीं दे रहे हैं। कांग्रेस इस दौर में एक बार फिर से ‘सविनय अवज्ञा’ सरीखा आंदोलन शुरू करने का मन बनाने लगी।  गांधी अब इकहत्तर बरस के हो चले थे। वे तय नहीं कर पा रहे थे कि इस बार आंदोलन का स्वरूप क्या हो। वे भयभीत थे कि यदि इसे राष्ट्रीय स्तर के जन आंदोलन का रूप दिया गया तो पूर्व की भांति इस बार भी यह हिंसक हो उठेगा। अक्टूबर, 1940 के मध्य में उन्होंने इसे निजी सत्याग्रह के बतौर शुरू करने का फैसला लिया। इसकी शुरुआत गांधी के निर्देश पर आचार्य विनोबा भावे ने द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन की भूमिका के खिलाफ वक्तव्य जारी कर की, जिस चलते 18 अक्टूबर, 1940 को उन्हें गिरफ्तार कर तीन महीने की सजा सुनाई गई।
ब्रिटिश सरकार ने अखबारों पर सेंसरशीप भी लागू कर दी जिसका कड़ा विरोध करते हुए गांधी ने आमरण- अनशन पर जाने का निर्णय ले लिया। गांधी के इस फैसले से नेहरू समेत कई बड़े कांग्रेसी नेता सकते में आ गए। नेहरू का मानना था कि अभी परिस्थितियां इस प्रकार के कठोर कदम उठाने के लिए प्रतिकूल नहीं हैं। उन्होंने गांधी से आग्रह किया कि वे अपने इस निर्णय को कुछ समय के लिए स्थगित रखें। इस दौरान 30 अक्टूबर को नेहरू भी गिरफ्तार कर लिए गए। नेहरू पर मार्शल लॉ तोड़ने के आरोप में मुकदमा चला और उन्हें चार वर्ष के कारावास की सजा मिली। नेहरू देहरादून की जेल में रखे गए थे। इस पूरे काल में जिन्ना अंग्रेज हुकूमत के साथ पूरी वफादारी से खड़े रहे।
  क्रमशः

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