पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-28 जेल से रिहा होते ही गांधी ने एक बार फिर से जिन्ना संग संवाद करने के प्रयास शुरू कर दिए। 17 जुलाई, 1944 को उन्होंने पहली बार जिन्ना को गुजराती में पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा ‘आप जहां चाहें, हम वहां मिल सकते हैं। मुझे इस्लाम या इस देश के मुसलमानों का शत्रु न समझें। मैं न केवल आपका बल्कि पूरे विश्व का दोस्त और सेवक हूं। कृपया मुझे निराश न करें।’ जिन्ना गांधी से बॉम्बे (अब मुंबई) स्थित अपने आवास में मिलने के लिए राजी हो गए। 9 सितंबर, 1944 के दिन दोनों नेताओं के मध्य यह शिखर वार्ता शुरू हुई। दोनां नेता 9 सितंबर से लेकर 26 सितंबर तक न केवल एक-दूसरे से मिलते रहे वरन् दोनों के बीच कई बार पत्राचार भी हुआ। जिन्ना कांग्रेस नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के उस प्रस्ताव पर भरोसा कर रहे थे जिसके अनुसार गांधी इस बात पर सहमत थे कि यदि जिन्ना भी सहमत हों तो उत्तर-पश्चिम और पूर्वी भारत के मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में जनमत संग्रह करा लिया जाए और यदि बहुमत हिंदुस्तान से अलग होकर एक स्वतंत्र मुस्लिम बाहुल्य राष्ट्र बनाने के पक्ष में जाता है तो इसे कांग्रेस स्वीकार कर लेगी। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने इस प्रस्ताव को सामने रखते हुए दावा किया कि इसे गांधी की सहमति है। इतिहासकार इस मुद्दे पर अलग-अलग राय रखते हैं। बहुतों का मानना है कि गांधी ने विभाजन की मांग का न तो कभी समर्थन किया और न ही वे इस मुद्दे पर बातचीत करने के लिए तैयार थे लेकिन जिन्ना संग वार्ता करने के लिए उन्होंने राजगोपालाचारी के इस प्रस्ताव को एक तरह से चारा बना जिन्ना के सामने परोस दिया। संयुक्त प्रांत के तत्कालीन गवर्नर मॉरिस हैलेट के शब्दों में ‘गांधी में बहुत से बंदरों जितनी चालाकी भरी थी।’ जिन्ना शायद इसी चालाकी के जाल में फंस गांधी संग वार्ता के लिए तैयार हो गए थे। वार्ता पूरी तरह बेनतीजा रही। गांधी ने 15 सितंबर के दिन जिन्ना की लिखे अपने पत्र में ‘लाहौर प्रस्ताव’ की धज्जियां उड़ा दीं। उन्होंने लिखा कि ‘यह प्रस्ताव पूरी तरह से काल्पनिक है। ….यदि इस्लाम के आने से पहले भारत एक राष्ट्र था तो उसकी बहुत-सी संतानों द्वारा धर्म परिवर्तन कर लिए जाने के बाद भी उसे एक राष्ट्र ही रहना चाहिए।’ महात्मा शायद जिन्ना को याद दिलाना चाह रहे थे कि भारतीय मुसलमान धर्म परिवर्तन से पहले हिंदू ही थे। जिन्ना ने गांधी के इस पत्र से खासे उत्तेजित हो जवाबी पत्र में महात्मा को हिंदुवादी नेता करार दे डाला। हालांकि इस पत्राचार के अगले दिन 16 सितंबर को दोनों नेता एक बार फिर मिले लेकिन तब तक यह स्पष्ट हो चला था कि न तो जिन्ना अपनी मांग से पीछे हटने को इंच मात्र भी तैयार हैं और न ही गांधी विभाजन पर चर्चा करने को। 17 सितंबर के दिन गांधी ने एक और पत्र जिन्ना को लिखा, जिसमें उन्होंने ‘भाई जिन्ना’ के बजाए ‘कायद-ए-आजम’ कह जिन्ना को संबोधित करते हुए लिखा, ‘जितना मैं द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के बारे में सोचता हूं, उतना ही यह मुझे घातक लगता है….एक बार इस सिद्धांत को मान लेने का मतलब होगा कि भारत को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने की ऐसी कवायद शुरू करना, जिसके चलते भारत बर्बाद हो जाएगा।’ गांधी की यह आशंका निर्मूल नहीं थी। पाकिस्तान विचार के जनक रहमत अली तब तक भारत को दस राष्ट्रों में बांटने की बात करने लगे थे। 23 सितंबर के दिन गांधी को लिखे अपने पत्र में जिन्ना ने इस शिखर वार्ता के बेनतीजा रहने की बात खुलकर कह डाली। उन्होंने लिखा, ‘आपकी भावनाओं का सम्मान करते हुए मैंने भरकस प्रयास किया कि आप मेरी बात को समझ सकें लेकिन दुर्भाग्य से मैं नाकाम रहा।’ इस पत्र के जवाब में गांधी ने जिन्ना को अपनी मांगे लिखित में भेजने का सुझाव दिया। जिन्ना ने 23 सितंबर को ही गांधी के इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए उनसे प्रतिप्रश्न किया कि वे किस हैसियत से और किस अधिकार से यह मांग कर रहे हैं? शायद जिन्ना की मंशा थी कि गांधी खुद को हिंदुओं का प्रतिनिधि घोषित करें ताकि जिन्ना यह साबित कर सकें कि महात्मा देश के नहीं बल्कि एक धर्म विशेष के प्रतिनिधि हैं। गांधी ने जिन्ना की मंशा को बखूबी समझते हुए एक नया दांव चल दिया। उन्होंने 25 सितंबर के दिन जिन्ना को भेजे अपने पत्र में इशारा किया कि वे ‘लाहौर प्रस्ताव’ पर वार्ता के लिए तैयार हैं लेकिन वे मुस्लिम लीग के खुले अधिवेशन में इस बात को रखना चाहते हैं। गांधी के इस प्रस्ताव ने जिन्ना को हतप्रभ कर दिया। वे समझ गए कि लीग का अधिवेशन बुला गांधी उनके समर्थकों के मध्य अपनी बात रखने और उन्हें ‘लाहौर संकल्प’ की व्यर्थता बताने का प्रयास करने की मंशा रखते हैं। जिन्ना ने गांधी के इस प्रस्ताव को पूरी तरह से अव्यवहारिक करार दे खारिज कर डाला। इस तरह से दोनों नेताओं के मध्य शुरू हुई यह वार्ता बगैर किसी सार्थक नतीजों में पहुंचे समाप्त हो गई। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वैवेल ने भारत मामलों के मंत्री लॉर्ड एमरी को भेजी अपनी रिपोर्ट में इस वार्ता की बाबत लिखा’ ‘I must say I expected something better…The two great mountains have met and not even a ridiculous mouse has emerged’ (मुझे इस वार्ता से कुछ सार्थक नतीजे की उम्मीद थी…दो बड़े पर्वत मिले, पर एक मामूली-सा चूहा भी नहीं निकला)। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ गांधी की रिहाई के बाद कमजोर हो चला था। जून 1945 में नेहरू समेत कांग्रेस के सभी बड़े नेता रिहा कर दिए गए। यह आंदोलन भले ही अपने लक्ष्य को भेद पाने में सफल न रहा हो, ब्रिटिश राज के खिलाफ इसने आमजन को एकजुट करने और ब्रिटेन की चर्चिल सरकार के रूख में भारी परिवर्तन लाने का काम कर दिखाया। इस आंदोलन के दौरान मुस्लिम लीग के साथ-साथ भारतीय वामपंथी संगठनों, हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और डॉ ़ भीमराव अंबेडकर का ब्रिटिश सरकार को समर्थन देना, इन संगठनों और व्यक्तियों पर बड़े सवाल खड़े करता है। संघ का अनुवांशिक संगठन हिंदु महासभा तो इस पूरे आंदोलन के दौरान बंगाल, सिंध और उत्तर-पूर्वी प्रांत में मुस्लिम लीग की सरकारों का हिस्सा रहा। इतना ही नहीं उसने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना में भारतीयों की भर्ती के लिए कैंप तक आयोजित कर अंग्रेजों संग अपनी वफादारी का प्रमाण दिया। डॉ. अंबेडकर इस काल में वायसराय काउंसिल के सदस्य बने रहे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्वाधीनता संग्राम में भूमिका को लेकर सवाल तो आजादी के बाद से ही उठने लगे थे लेकिन इस विषय पर असल चर्चा 1990 के बाद तब शुरू हुई जब राम मंदिर निर्माण का आंदोलन जोर पकड़ने लगा और भारतीय जनता पार्टी का प्रभातकाल शुरू हुआ। 1998 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार गठन के बाद संघ ने अपने वरिष्ठ स्वयं सेवक वाजपेयी पर संघ के संस्थापक प्रमुख के.सी. हेडगवार और उनके बाद सरसंघ चालक बने एम.एल. गोलवरकर को ‘भारत रत्न’ दिए जाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया था। संघ अपने इन दोनों पूर्व प्रमुखों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के बतौर भारत रत्न दिलवाना चाहता था। मार्च, 2003 में संघ के वरिष्ठ प्रचारक और विचारक दत्तोपति ठेगड़ी ने तब तक ‘पद्म भूषण’ सम्मान स्वीकारने से इंकार कर दिया जब तक हेडगवार और गोलवरकर को भारत रत्न नहीं दिया जाता। वाजपेयी लेकिन संघ के दबाव में नहीं आए तो इसका एक बड़ा कारण स्वतंत्रता संग्राम में संघ की भूमिका को लेकर आमजन के मध्य गहरी शंका का होना है। दरअसल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपनी स्थापना काल 1925 के समय से ही अंग्रेज परस्त संगठन रहा। संघ की वैचारिकता के मूल में उसकी घोर हिंदुत्व की अवधारणा है जिसे स्थापित-प्रचारित करना ही उसका असल उद्देश्य था और है। इस लक्ष्य को पाने के लिए उसने ब्रिटिश सत्ता संग गठजोड़ ज्यादा मुफीद माना। संघ द्वारा स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा नहीं लिए जाने को स्वयं उसके दूसरे प्रमुख (सर संघचालक) एम.़एस.़गोलवरकर के कथन से समझा जा सकता है। गोलवरकर के विचारों का संकलन ‘श्री गुरूजी सम्रग दर्शन’ पुस्तकाकार रूप में संघ द्वारा प्रकाशित है। 1938 में उन्होंने संघ कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा ‘भारतवर्ष में हिंदू समाज हजारों वर्षों से रह रहा है। यहां कुछ अन्य परधर्मी समाज भी आ बसे हैं। लेकिन यहां के मूल समाज के साथ आत्मसात न होते हुए वे अपना अलग अस्तित्व बनाए हुए हैं। इसके पीछे उनका उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है। जबकि यहां के मूल रहवासी हिंदू अपना लाभ तो दूर, देश में उनकी आज जो स्थिति है, उसको भूलकर दूसरों के फायदे के लिए अधिक सोचते हैं। इन अन्य विधर्मी समाजों ने हिंदू-समाज को नष्ट करने के कई प्रयत्न किए, परंतु उसकी जड़ें गहराई तक होने के कारण वह अब तक बचा हुआ है।…राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई होती है। जब किसी जनसमूह की ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परंपराएं एक हों, तब वह ‘राष्ट्र’ कहलाता है। राष्ट्र के लोगों में जो समान भाव-भावनाएं, इच्छा-आकांक्षाएं होती हैं, वे बाहर से आए लोगों में नहीं हो सकती, क्योंकि उनके संस्कार भिन्न होते हैं। एक देश में रहने वाले ऐसे लोग ही उसकी विचारधारा को समझ सकते हैं और उसके अनुसार व्यवहार कर सकते हैं। इसलिए हिंदुस्तान में हजारों वर्षों से रहते आए लोग, जिन्होंने इस देश का इतिहास बनाया है, इस राष्ट्र के पुत्र या स्वामी हो सकते हैं, परंतु आक्रमक के रूप में बाहर से आए अन्य लोग नहीं। अंग्रेजों के द्वारा शासित राज्य में रहने वाले लोग एक राजनीतिक इकाई के अंतर्गत माने जा सकते हैं, लेकिन उनको लेकर एक राष्ट्रजीवन बन सकेगा क्या? अंग्रेजों के साम्राज्य के अंतर्गत आज अनेक देश हैं। उन सबका मिलकर एक राष्ट्रजीवन नहीं बनता, उसी प्रकार ब्रिटिश राज में अनेक समाज रहते होंगे परंतु उन सबका मिलकर राष्ट्र नहीं हो सकता। बाहरी आक्रमकों और हिंदुओं में समानता कैसे हो सकती है?’ संघ नेताओं की सोच को गोलवरकर के उपरोक्त कथन से स्पष्टता मिलती है। संघ की नजरों में आजादी का संग्राम ब्रिटिश हुकूमत को भारत की धरती से भगाना भर था जबकि संघ एक ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाए जाने का पक्षधर था। कांग्रेस, विशेषकर गांधी द्वारा हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करना संघ की मूल अवधारणा के विपरीत था इसलिए इस पूरे कालखंड में संघ निष्क्रिय रहा, यहां तक कई बार अंग्रेज परस्त बन उसने इस स्वतंत्रता आंदोलन की राह में बाधा खड़ी करने का काम तक किया। क्रमशः |
संघ की अंग्रेज परस्ती

Displaying assorted canvas bags.JPG.