[gtranslate]
Editorial

नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा का अंत?

बिहार ने देश को एक से बढ़कर सपूत दिये हैं। किसी भी विध का इतिहास पलटें तो प्रथम दस में एक अवश्य बिहारी होगा। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, राज नारायण समेत दर्जनों शीर्ष राजनेता इस प्रदेश से निकले। चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य, गुरू गोविंद सिंह, आर्य भट्ट, भगवान महावीर की जन्म भूमि भी बिहार ही था। देश को चार भारत रत्न वैज्ञानिक बी.सी रॉय, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण और बिस्मिल्लाह खान बिहार से मिले। फिल्म जगत के सबसे बड़े सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार पाने वालों की सूची में भी दो बिहार के सपूत हैं- अशोक कुमार और तपन सिन्हा। साहित्य के क्षेत्रा में तो एक से बढ़कर एक नाम इसी प्रदेश के खाते में हैं। रामधरी सिंह ‘दिनकर’ रामवृक्ष बेनीपुरी समेत दो दर्जन नाम तो मुझे जुबानी याद है। अग्रेजी भाषा के विश्व ख्याति प्राप्त George Orwell भी यहीं के बीज हैं। पत्राकारों की तादात इतनी कि आप गिनते-गिनते थक जायेंगे, मैं गिनाते-गिनाते। एम.जे. अकबर, रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेई आदि-आदि।

उद्योग जगत की कई नामी हस्तियां यहीं जन्मी। जिनमें सहारा समूह के सुब्रत रॉय सहारा और वेदांता समूह के अनिल अग्रवाल प्रमुख हैं। देश का सबसे कुख्यात ठग नटवटलाल भी इसी मिट्टी का है। इन सबका जिक्र इसलिए क्योंकि इतनी उर्वरक ध्रती होने के बावजूद आजाद भारत के तिहत्तर वर्षों में यहां से कोई भी आज तक देश का सबसे महत्वपूर्ण पद तक नहीं पहुंच पाया है। चूंकि राज्य में विद्यानसभा चुनावों की रणभेदी बज चुकी है, इसलिए समय माकूल है इस बात पर चर्चा का कि प्रधनमंत्रा पद के लिए कभी एक विशवस्त और योग्य चेहरा बन उभरे बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्रा क्योंकर और कैसे चूक गए और वर्तमान में मात्रा बिहार की राजनीति तक सिमट कर रह गए हैं। तो चलिए बिहार विद्यानसभा चुनावों पर ‘दि संडे पोस्ट’ की शृंखला की शुरूआत करते हैं नीतीश कुमार की राजनीति यात्रा से। समझने का प्रयास करते हैं बजरिये वर्तमान विधनसभा चुनाव इस मुल्क की सबसे बढ़ी त्रासदी-जात-पात, र्ध्म, राजनीति और अपराध् के गठजोड़ को। प्रयास करते हैं यह समझने का भी कि क्योंकर नीतीश कुमार एक क्षत्राप बनकर रह गए हैं।

हालिया समय में बिहार के दो राजनेताओं की बाबत राजनीतिक विशेषक कन्पफूज्न रहें हैं कि दोनों में से ज्यादा बड़ा राजनीतिक मौसम को समझने वाला वैज्ञानिक कौन है। इनमें से एक है नीतीश कुमार तो दूसरे रामविलास पासवान। पासवान जी कुछ दिन पूर्व दिवंगत हो चुके है, अपनी राजनीतिक विरासत पुत्रा चिराग पासवान के हवाले कर। नीतीश मैदान में है। इन दोनों नेताओं के बीच प्रदेश की राजनीति में वर्चस्व पाने की जद्ोजहद हमेशा की। सत्ता में हर कीमत पर बने रहने का हुनर पासवान में भी था, नीतीश में भी है। इसलिए इन दोनों में कौन ज्यादा अवसरवादी है, तय करना थोड़ा कठिन काम है। मेरी समझ से ‘आयाराम-गयाराम’ की राजनीति के सिरमौर का खिताब नीतीश कुमार के खाते में आता है। पासवान इस कला में नीतीश के मुकाबिल कहीं-नहीं ठहरते। इस कला में पारंगत होने का काम नीतीश की लंबे अर्से से सत्ता सुख का कारण बना है। लेकिन इसी कला के चलते आज वे एक प्रदेश की राजनीति तक सिमट कर रह गए है, पहले बिहारी मूल के प्रधनमंत्रा बनने का मौका गंवा चुके हैं।

बिहार की राजधनी पटना के ब्लाक बख्तियारपुर में 1 मार्च 1951 को जन्में नीतीश की राजनीतिक यात्रा का निष्पक्ष आकलन उन्हें ऐसे अवसरवादी, सत्तालोलुप राजनेता के रूप में सामने लाता है जो र्ध्मनिरपेक्ष, मूल्यों की रातनीति करने वाले उस मिथक को खड़ित करता है जो नीतीश कुमार ने बहुत मेहनत से बीते दशकों में गढ़ा।

नीतीश ने स्वयं की छवि समाजवादी विचारक के तौर पर, समाजवादी मूल्यों के सरक्षंक के तौर पर गढ़ी। छात्रा राजनीति के दिनों में 1974 के जे.पी. आंदोलन में शिकरत करना, जे.पी. लोहिया, कर्पूरी ठाकुर और सतेंद्रनारायण सिन्हा जैसे समाजवादियों के साथ चलना, उनकी इस छवि में सहायक रहा। इस दौर में उनके साथ एक और नवयुवक अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने में जुटा था। यह युवक था लालुप्रसाद यादव। नीतीश और लालुप्रसाद यादव का मकसद एक था, राजनीति के जरिये सत्ता तक पहुंचना। एक मकसद के चलते दोनों सहयात्रा बन गए। कुछ कदम साथ चले। लालू राजनीति के शुरूआती दौर में नीतीश से कहीं आगे बढ़ते गए। वे जनता के बीच अपने ठेठ गंवई अंदाज के चलते इतने लोकप्रिय हो गए थे कि मात्रा 29 वर्ष की उम्र में जनता पार्टी ने उन्हें 1977 में लोकसभा का टिकट दे डाला। छपरा लोकसभा से चुनाव जीत वे सांसद बन गए। 1985 आते-आते लालू का जादू पूरे बिहार में सिर चढ़ कर बोलने लगा था। 38 बरस की उम्र्र में वे बिहार विद्यानसभा में नेता विपक्ष बना दिए गये। इस दौर में नीतीश की राजनीतिक उपलब्धि् खास नहीं रही थी। एक तरपफ लालू लोकसभा से विद्यानसभा तक हर चुनाव में जीत पर जीत दर्ज कर रहे थे। दूसरी तरपफ नीतीश हार पर हार का सामना कर रहे थे। 1977 में हुए विद्यानसभा चुनावों में जनता पार्टी के टिकट पर नालंदा जिले की हरनोट सीट से वे खड़े हुए हार गए। 1980 में पिफर खड़े हुए, हार गए। 1985 में नीतीश के खाते पहली जीत चुनावों में दर्ज हुई। वे लोकदल के टिकट पर हरनोट से चुनाव जीत विधयक बने। लालू इन्हीं चुनावों के बाद नेता विपक्ष बने थे। नीतीश लालू यादव के जादू को समझ चुके थे। उन्होंने 1989 में लोकसभा चुनाव लड़ा और खुद की राजनीतिक जमीन को दिल्ली में तलाशना शुरू कर डाला।

वी.पी. सिंह के मंत्रामंडल में उन्हें राज्यमंत्रा बनाया गया। लालू भी इन्हीं चुनावों में पहली बार लोकसभा पहंचे थे। उनका पफोकस लेकिन राज्य की राजनीति में ही रहा। 1990 में हुए राज्य विद्यानसभा चुनाव में जनता दल की सरकार बनी, लालू बने सीएम। यहां तक की यात्रा इन दोनों नेताओं ने साथ तय की। इसके बाद से दोनों की राह अलग हो गई। लालू ने आडवाणी की रथ यात्रा को रोक इतिहास रचा। वी.पी.सिंह की सरकार इसके चलते गिर गई। नीतीश पैदल हो गए। उन्होंने अब लालू प्रसाद मुखालपफत को केंद्र बनाना शुरू किया। साथ मिला समाजवादी नेता जार्ज पफर्नाडिस का। लालू की कार्यशैली से खपफा पफर्नाडिस ने नीतीश संग मिलकर 1995 में जनता दल तोड़ डाला और बनाई समता पार्टी। यहीं से शुरू हुआ नीतीश कुमार की अवसरवादी राजनीति का असल दौर खुद की छवि को लेकर खासे सर्तक रहे नीतीश एक तरपफ र्ध्मनिरपेक्षता का जाप करते रहे, दूसरी तरपफ धेर दक्षिणपंथी भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगने से भी नहीं चूके। 1998 में वे अटल सरकार का हिस्सा बने।

उन्हें रेल मंत्रा बनाया गया। बतौर रेल मंत्रा नीतीश ने कई ऐसे कामों को अजांम तक पहुंचाया जिससे एक ईमानदार और काम करने वाले मंत्रा के रूप में उनकी पहचान बनी। शास्त्रा जी की परंपरा का पालन करते हुए नीतीश कुमार ने तब खासी ख्याति अर्जित की जब 1999 अगस्त में पं. बंगाल के गैसल में ब्रह्मपुत्रा मेल ट्रेन दुर्घटना ग्रस्त हो गई। 290 यात्रियों की मौत के बाद नीतीश ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीपफा दे डाला था। अटल जी की दूसरी सरकार में वे एक बार पिफर रेलमंत्रा बने। उनके खाते में टिकटों की इंटरनेट बुंकिंग, देश भर में रेलवें टिकट काउंटर की सख्यां में वृ( एवं ‘तत्काल टिकट’ स्कीम के जरिये दलालों का रेलवें से सपफाया करना शामिल रहा।

इस बीच मार्च 2000 में नीतीश ने भाजपा संग मिलकर बिहार में सरकार बनाने का प्रयास भी किया। वे 3 मार्च 2000 को सीएम बने और साम दिन बाद ही 10 मार्च को भूतपूर्व हो गए। उनकी सरकार विश्वास मत हासिल नहीं कर पाई। इन सात दिनों में नीतीश कुमार हर उस दबंग से हाथ मिलाने को आतुर दिख्े जिन्हें वे लालू यादव के शासनकाल के काले ध्ब्बे कहा करते थे। तमाम हथकंडे अपनाने के बाद भी वे विश्वासमत हार गए। हालांकि सत्ता सुख बरकार नहीं। उन्हें वापस अटल सरकार में मंत्रा बना दिया गया। नीतीश कुमार एनजीए में रहते सत्ता में रहे लेकिन अपनी र्ध्मनिरपेक्ष छवि को भी बरकरार रखने में कामयाब बने रहे। गुजरात दंगों के दौरान 2002 में वे असहज होने का सहज अभिनय करते हुए दिखे। इस बीच अपने पुराने संगी साथियों का उन्होंने सुविधनुसार इस्तेमाल किया, जरूरत पूरी होने के बाद तिरस्कृत किया और आगे बढ़ते गए। जार्ज पफर्नाडिस, शरद यादव और कांग्रेस संग उनके रिश्ते इसका जीवंत प्रमाण हैं।

नीतीश की भाजपा संग यात्रा कथित वैचारिक मतभेदों के बावजूद शानदार चल रही थी। 2005 में वे भाजपा के सहारे बिहार की कुर्सी में काबिज होने में सपफल रहे।
लालू यादव के भष्ट्र दौर से त्रास्त बिहार के सामने नीतीश कुमार एकमात्रा विकल्प थे। जात और र्ध्म की राजनीति, अकेले सुशासन बाबू होने की छवि नीतीश को सीएक बनाने में सफल नहीं हो सकती थी तो केवल र्ध्म के नाम पर भाजपा भी बिहार की सत्ता पर कब्जा पाने में विपफल रही थी। इसलिए दोनों का का गठजोड़ लालू से बिहार को निजात दिलाने में सफल रहा। यह बेमेल शादी जून 2010 तक ठीक-ठाक निभाई जा रही थी कि इसमें एक बड़ा विघन आ गया। यह विहन् गुजरात प्रदेश से आया।

नीतीश की महत्वाकांक्षाएं आसमान छूने लगी थी। उन्हें बिहार की गद्दी के सहारे देश की गद्दी का स्वपन आने लगा था। लालू यादव के प्रशासन से त्रास्त बिहार में नीतीश राज में मिली थोड़ी सी राहत ही आम बिहारी को एक वरदान समान लग रही थी। कानून व्यवस्था में सुधर, बिजली सड़क में थोड़ा सा सुधर ही बिहार के लिए एक बड़ी सौगात था। नीतीश सुधरों के चलते ‘विकास पुरुष’ और ‘सुशासन बाबू’ की छवि गढ़ने में सपफल हो चुके थे।

एनडीए को 2009 के लोकसभा में मिली पराजय के बाद अब नीतीश राष्ट्रीय पफलक पर खुद को एनडीए का चेहरा बनता देखना चाह रहे थे। उनकी राह में लेकिन आ खड़े हुए नरेंद्र मोदी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ 2009 की हार के बाद अब ‘अटल, आडवाणी, मुरली मनोहर’ के स्थान पर नया नायक तलाशने में जुट चुका था। उसके सामने दो चेहरे थे। मध्यप्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान, और गुजरात के सीएम नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी। दोनों ही सीएम संघ की नजरों में खुद को बहेतर साबित करने में जुटे थे। हिन्दु राष्ट्र की अवधरणा को मूर्त रूप पहनाने को दशकों से छटपटा रहा संघ दोनों को परखने में जुटा था। ऐसे में 2010 अक्टूबर में प्रस्तावित राज्य विधन सभा चुनावों से ठीक पहले कुछ ऐसा हुआ जिसने संघ और भाजपा में भारी खलबली मनाने का काम किया। 2008 में बिहार ने भारी प्राकृतिक आपदा को झेला था। तब कई राज्यों ने बिहार सरकार को मदद पहुंचाई थी। गुजरात ने भी पांच करोड़ की ध्नराशी दी थी। 2010 जून में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारणी ने अपनी बैठक पटना में आयोजित की। उद्देश्य अक्टूबर में प्रस्तावित राज्य विद्यानसभा चुनावों से पहले प्रदेश की राजनीति को गर्माना था।

नरेंद्र मोदी भी इस कार्यकारणी में हिस्सा लेने पटना आये। उनकी आमद के दिन भाजपा ने बड़े विज्ञापन जारी किये जिनमें मोदी और नीतीश की तस्वीरें थी और था पांच करोड़ की राहत राशी बिहारी अस्मिता से जोड़ा, ना केवल पांच करोड़ की ध्नराशी वापसी का ऐलान किया, बल्कि तीर से दो शिकार साध्े का जिक्र नीतीश ने इसे बड़ा मुद्दा डाला। उन्होंने इस राहत राशी अपनी नाराजगी को सार्वजनिक करते हुए नीतीश ने भाजपा नेताओं के सम्मान में आयोजित रात्रा भोज को भी रद्द कर दिया।

पहला मुस्लिम मतों को रिझाने का तो दूसरा मोदी भविष्य में भाजपा के पीएम उम्मीदवार न बने, इसके लिए भाजपा को चेताने का। तात्कालिक तौर पर उनका निशाना ठीक लगता नजर भी आया। भाजपा नेतृत्व इस अपमान को सह गया। लेकिन न तो मोदी भूले न भाजपा भूली। 16 जून, 2013 का दिन भाजपा के लिए नीतीश के दूसरे वार का दिन था। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारणी 7 और 8 जून-2013 को गोवा में बुलाई गई थी। इस कार्यकारणी में नरेंद्र मोदी को 2014 के प्रस्तावित लोकसभा चुनावों का दायित्व सौपा गया था। आडवाणी खेमें के कई नेता इसमें शामिल नहीं हुए थे। भाजपा के भीतर संघ ने मोदी को 2014 में प्रधनमंत्रा पद का उम्मीदवार बनाने का निर्णय ले लिया था। आडवणी इससे खासे नाराज थे। भाजपा के कई अन्य दिग्गज भी मोदी को पचा नहीं पा रहे थे। अंततः संघ ने सीध्े मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषणा न कर उन्हें चुनाव प्रभारी बनाने का फैसला लिया। नीतीश समझ गए यह फैसला अंततः मोदी को प्रधनमंत्रा बनाने की दिशा में उठा पहला बड़ा कदम हैं। उन्होंने अगले ही दिन एनडीए से बाहर जाने की घोषाणा कर डाली। भाजपा कोटे के 11 ‘मंत्रा भी बर्खास्त कर दिये और र्ध्म निरपेक्षता के नाम पर उन्हीं लालू यादव से हाथ मिला लिया जिन्हें वे बिहार की बदहाली के लिए वे पानी पी.पी. कर कोसते नहीं अधते थे।

नीतीश कुमार के इस कृत्य से भाजपा बौखला गई। इसे विश्वासघात कह पुकारा। भाजपा नेता मुख्तार अली नकवी ने तब प्रेस कांप्रेफस में एक गीत सुनाया था। ‘दुश्मन न करे दोस्त ने वह काम किया है, जिदंगी भर का गम हमें इनाम दिया है।’ नीतीश पिफर से र्ध्मनिरपेक्ष हो गए। 2014 में भारी बहुमत से एनडीए केंद्र में सत्ताशीन हुआ। हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ पूरे देश में गूंजने लगा। ‘एक अणे मार्ग’ में बैठे नीतीश ने लेकिन हार नहीं मानी। वे अब खुद को मोदी के बरस्क र्ध्म निरपेक्ष ताकतों का चेहरा बनाने में जुट गए। राज्य विद्यानसभा के लिए 2015 में हुए चुनाव में विपक्षी गठवंध्न ने जीत दर्ज की। नीतीश पिफर सीएम बने, लालू यादव के बेटे तेजस्वी को मिला उपमुख्यमंत्रा पद। कांग्रेस में राहुल गांध्ी काल शुरू हो चुका था। नीतीश ने राहुल संग रिश्ते प्रगाड़ करने शुरू कर दिये। इस बार उनका टारगेट था कांग्रेस सहारे 2019 के चुनावों से पहले विपक्षी गठबंध्न का पीएम चेहरा बनना। राहुल गांध्ी किसी भी कीमत पर भाजपा को केंद्र की सत्ता से हराने को आतुर थे। ऐसा लगने लगा था कि वे नीतीश को पीएम उम्मीदवार घोषित करने से पीछे नहीं हटेंगे। भाजपा, विशेषकर मोदी विरोध्ी ताकतें भी नीतीश के पीछे आ खड़ी होने लगी थी कि एक बार पिफर नीतीश पलटी मार गए। 26 जुलाई 2017 को उन्होंने विपक्षी महागठबंध्न का साथ छोड़ दिया, मुख्यमंत्रा पद से इस्तीपफा दे डाला और अगले ही दिन भाजप संग मिलकर दोबारा सरकार बना डाली। इस बार उन्होंने र्ध्म निरपेक्षता का साथ छोड़ा क्योंकि वे लालू परिवार के कथित भष्ट्राचार से त्रास्त हो चले थे। इस नए नाटक की पटकथा शायद कुछ समय पहले से ही लिखी जाने लगी थी। 5 जुलाई 2017 को राज्य के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव पर सीबीआई ने भष्ट्राचार का एक मुकद्मा दर्ज किया था। इस मुकदमें में पूरा लालू परिवार का नाम था। 26 जुलाई नीतीश बाबू की अंर्तआत्मा ने उन्हें ललकारा और वे इस्तीपफा देने राज भवन पहुंच गए। 27 जुलाई को भाजपा संग उन्होंने सरकार बना डाली तो केंद्र की सरकार ने E.D. से तेजस्वी यादव पर मुकदमा दर्ज कर उन्हें दोबारा साथ आने का इनाम दिया।

इस बार ‘विश्वासघात-विश्वसघात’ चिल्लाने की बारी विपक्षी दलों की थी। स्वयं राहुल गांध्ी ने इसे पीठ में छूरा भौकने की उपमा दी। यह थी नीतीश कुमार की अद्भुत राजनीतिक यात्रा। इसमें आयाराम-गयाराम, विश्वासघात, सत्ता लोलूपता, महत्वाकाक्षां जैसे सभी ऐसे तत्व मौजूद हैं जो एक मसालेदार वॉलीवुड पिफल्म में पाये जाते हैं।

जाहिर है नीतीश कुमार एनडीए का पीएम चेहरा अब बन नहीं सकते। ये अवसर वे मोदी के हाथों गवां चुके हैं। विपक्ष शायद ही कभी उन पर भरोसा करने की बेवकूपफी और जोखिम उठायेगा। ऐसे में अब नीतीश की राजनीति बिहार तक सिमट गई राजनीति है यह उनके पीएम बनने के सपने की “End of th Road” तो है ही, बिहार में भी उनके राजनीतिक अवसान की शुरूआत है। इसे समझना कोई भारी गणित या राकेट साइंस नहीं है। वर्तमान भाजपा नेतृत्व की कार्यशैली से इसे समझा जा सकता है। नरेंद्र मोदी की राजनीतिक यात्रा इसकी गवाह है कि अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्होंने भी नीतीश कुमार की तरह हर हथियार का सहारा लिया। आडवाणी जी भाजपा में उनके सरक्षंक थे। गुजरात दंगो के बाद पार्टी का एक बड़ा वर्ग जिसमें अटल जी भी शामिल थे। मोदी को हटाने का मन बना चुके थें। आडवाणी ने तब ऐसा होने नहीं दिया। 2009 में प्रधनमंत्रा पद के उम्मीदवार आडवाणी 2014 में भी दावेदार थें इस बार लेकिन मोदी ने उन्हें होने नहीं दिया। पार्टी तब स्पष्ट रूप से दो हिस्सों में विभाजित थी। एक जो मोदी विरोध् के चलते आडवाणी संग थे तो दूसरा मोदी पर दांव लगा रहे थें। केंद्र में काबिज होने के साथ ही मोदी-शाह की जोड़ी ने आडवाणी खेमे को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर डाला।

2019 में पूरे दमखम के साथ सत्ता में आये मोदी भला क्योंकर नीतीश कुमार को ढोयेंगे? भला कैसे और क्यों नीतीश कुमार से मिले अपमान को वे भुला देंगे? चिराग पासवान का एनडीए से अगल होने इस बात का प्रमाण है कि अब बिहार में भाजपा अपना मुख्यमंत्रा चाहती है। लोक जनशक्ति पार्टी का एनडीए से बाहर जाना भाजपा का मास्टर स्ट्रोक साबित हो सकता है। यदि यह मास्टर स्ट्रोक चला तो भी नीतीश कहीं के नहीं रहेंगे।

निषाद नेता मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी को अपने कोटे से 11 सीटें देना भी भाजपा की अति पिछड़ों को लुभाने के चलते अति पिछड़ा वर्ग नीतीश कुमार का कोर वोट बैंक है। इसमें भाजपा की अप्रत्यक्ष सेंध्मारी नीतीश कुमार को कमजोर करेगी ही करेगी।

यदि नहीं चला तो भी नीतीश ज्यादा एक बार पिफर मुख्यमंत्रा बन सकते हैं लेकिन देश का प्रधनमंत्रा बनने का स्वप्न अब स्वप्न ही रहने वाला है। इसलिए अंग्रेजी की कहावत “End of the Road” नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा पर हर दृष्टिकोण से सही साबित होती नजर आ रही है।

You may also like

MERA DDDD DDD DD