मनुष्य को बचाना आज जरूरी हो गया है। आज वह राष्ट्र और राजनीति से इतनी बुरी तरह बंट्टा चुका है कि जन्म, शादी और मौत में भी वह मनुष्य नहीं, बल्कि कुछ अट्टाकटा जीव है। जो थोड़ा-बहुत इस दिशा में हुआ है, वह उतना ही लड़ाई और विजय का फल है जितना प्रेम का। शायद प्रेम से ज्यादा विजय का। असली दुनिया तब बसेगी जब मनुष्य सचमुच वर्णसंकर अथवा दोगला हो जाएगा। -राममनोहर लोहिया
माजवादी विचारक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनेता और पत्रकार राममनोहर लोहिया का निधन 12 अक्टूबर 1967 को हुआ था। यानी आजादी के मात्र बीस बरस बाद। उन्होंने लेकिन आजाद मुल्क की दशा-दिशा और भविष्य को, पालने से बाहर निकलने के लिए आतुर, शिशु राष्ट्र के शैशवकाल में ही भांप लिया था।
लोहिया के विचारों के बरक्स यदि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को रख परखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि आज सबसे ज्यादा जरूरी मनुष्य को बचाना हो गया है। राममंदिर अथवा बाबरी मस्जिद, चाहे न्यायालय का फैसला जो भी आए, इतना तय है कि इससे रोजी-रोटी तक के लिए बेहाल मुल्क की आवाम को कुछ हासिल होने वाला नहीं। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई समाप्त हो चुकी है। मुष्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ 6 अगस्त से प्रतिदिन इस मामले की सुनवाई कर रही थी। 17 अक्टूबर को सुनवाई पूरी हो गई और अब कयास लग रहे हैं कि जस्टिस गोगोई की सेवानिवृत्ति यानी 17 नवंबर से पहले ही इस पर कोर्ट का फैसला आ जाएगा। कहावत पुरानी है कि विश्वभर में ज्यादातर युद्ध ‘जर, जोरू और जमीन’ के लिए होते आए हैं। यह पूरा मामला भी जमीन के एक टुकड़े से जुड़ा है। उत्तर प्रदेश के अयोध्या में स्थित 2 .77 एकड़ जमीन पर हिंदू और मुसलमान अपना-अपना दावा ठोंकते हैं। हिंदुओं का मत है कि यहीं उनके अराध्य भगवानश्री राम का जन्म हुआ था इसलिए इस जमीन पर राम का भव्य मंदिर बनना चाहिए। मुसलमान यहां के हिस्से पर बनी मस्जिद पर अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते। छह दिसंबर 1992 को हिंदू अतिवादियों ने जिनका नेतृत्व या जिनका ‘मार्गदर्शन’ देश की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति बन चुकी भाजपा, उसके सहयोगी संगठन विश्व हिंदू परिषद्, बजरंग दल और इन सभी के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कर रहे थे, ने मस्जिद का ढांचा गिरा दिया। तब केंद्र में धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली कांग्रेस की सरकार थी और प्रदेश में हिंदू राष्ट्र की अवधारणा का सपना लिए जन्मी भाजपा की।
धर्मनिरपेक्ष पार्टी के नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव दिल्ली में बैठ पूरे घटनाक्रम को तटस्थता से देखते रहे और लालकøष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती जैसे भाजपा नेताओं की मौजूदगी में ढांचा ढहा दिया गया। इसके बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में भूमि के मालिकाना हक को लेकर एक मुकदमा दायर हुआ। यानी आस्था के प्रश्न को सुलझाने के लिए नहीं, बल्कि जमीन के मालिकाना हक पर फैसला पाने के लिए पूरा मामला न्यायालय पहुंचा। 30 सितंबर 2010 को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया जिसके अनुसार इस 2 .77 एकड़ जमीन का एक तिहाई हिस्सा रामलला विराजमान के हिस्से, एक तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड और एक तिहाई निर्मोही अखाड़े को दिया गया। तब फैसले से सभी पक्ष असंतुष्ट नजर आए थे। हिंदुओं ने रामलला विराजमान हिस्से पर भव्य मंदिर तो सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपने हिस्से पर मस्जिद बनाने की बात शुरू कर दी थी। 2011 में दोनों ही पक्षों ने इस निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर डाली। इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने जो फैसला सुनाया था उसमें स्पष्ट रूप से धार्मिक आधार पर न्यायाधीशों के बीच मतांतर रहा। दो हिंदू जजों ने माना कि इस जमीन पर बनी इमारत मस्जिद नहीं मानी जा सकती, क्योंकि उसे एक मंदिर को ढहाकर मुगलशासन की नींव रखने के लिए बनाया गया था। तीसरे जज जो मुसलमान थे, ने अपने निर्णय में मंदिर होने की बात से असहमति जताते हुए अपना फैसला दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट की जो संविधान पीठ पूरे मामले की सुनवाई कर रही है उसमें चार हिंदू तो एक मुस्लिम न्यायाधीश हैं। जाहिर है जब 1949 में यहां रामलला की मूर्ति स्थापित की गई थी और पूजा-अर्चना शुरू की गई, तब से आज तक देश का माहौल और चरित्र खासा बदल चुका है। इस दौर में देश की बहुसंख्यक आबादी के मन में कहीं न कहीं यह गहरा बैठ चुका है, बैठाया जा चुका है कि राष्ट्र पर उनका हक अन्य किसी भी धर्म के अनुयायी से कहीं ज्यादा है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला, माना जा रहा है कि केवल जमीन के मालिकाना हक तक ही सीमित न होकर सभी पहलुओं पर यानी हिंदुओं की आस्था, सामाजिक सरोकार, समीकरण और ऐतिहासिक संदर्भों को साथ लिए होगा। प्रश्न लेकिन यह कि क्या रामलला का भव्य मंदिर यदि बन भी गया तो देश की मूलभूत समस्याएं समाप्त हो जाएंगी? क्या जिस घोर आर्थिक संकट से देश जूझ रहा है, उसका समाधान हो जाएगा?
बहत्तर बरस का भारत और सत्तर बरस के चीन का फर्क समझिए तब शायद कुछ भेजे में घुस पाए कि कैसे हम धर्म, जाति के भंवर में फंस चीन के मुकाबले सदियों पीछे हो गए हैं। हमारा फोकस कभी भी अपने राष्ट्र को विकसित राष्ट्र बनाने का रहा ही नहीं। बड़े-बड़े जुमलों का सहारा जरूर हमारे रहनुमा इन बहत्तर बरसों में लेते रहे लेकिन भारत की गाड़ी अनियंत्रित चली, नतीजा सामने है। चीन आर्थिक ताकत बन, सामरिक ताकत बन विश्व के पटल में आज अमेरिका को चुनौती दे रहा है, वहीं हम मंदिर- मस्जिद के विवाद से ही नहीं उबर पाए हैं। इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया और देश की सत्ता में प्रचंड बहुमत के सहारे 1971 में काबिज हो गईं। गरीबी हटी क्या? क्या भारत के भाग्य विधाता ‘हरचरणा’ के दुखों को दूर कर पाए? वल्र्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार साढ़े सात करोड़ यानी कुल जनसंख्या का लगभग 5 .5 प्रतिशत हिस्सा आज भी बेहद गरीबी में जी रहा है। 2011 की एक वल्र्ड बैंक रिपोर्ट 23 .6 प्रतिशत भारतीयों यानी लगभग साढ़े सत्ताइस करोड़ भारतीयों की प्रतिदिन आय 88 रुपया बताती है। कुल 2640 रुपया प्रतिमाह। अलग-अलग आंकड़े हमारी गरीबी की बाबत इंटरनेट में मिलते हैं जो हमारे पड़ोसी चीन की तुलना में बेहद खराब है। हमारी प्रति व्यक्ति मासिक आय 10, 534 रुपया है तो वहीं चीन की 56,000 रुपया है। विश्व में प्रति व्यक्ति आय के पायदान में हम 145वें स्थान पर हैं तो चीन 72वें स्थान पर। 1987 में दोनों देशों का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) लगभग बराबर था। 2019 में चीन की जीडीपी हमसे पांच गुना अधिक है। 1987, यानी वह समय, जब चीन औद्योगिक क्रांति, इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट और सामरिक क्षमता पर अपनी समस्त ऊर्जा लगाया था, हम गली-कूचों में ‘कसम राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे’ की बुनियाद स्थापित करते डोल रहे थे। 1984 में राजीव गांधी प्रचंड बहुमत, ऐसा बहुमत जिसको अभी तक कोई छू नहीं सका है, के साथ केंद्र की सत्ता में काबिज हुए थे। राजीव गांधी निश्चित ही उदारवादी और प्रगतिशील विचारों के नेता थे। आज यदि हम विश्व में अपनी आईटी क्षमताओं के लिए पहचान स्थापित कर पाए हैं, तो इसकी नींव में राजीव गांधी की प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच है जिसने कंप्यूटर की दुनिया से हमें अवगत कराया। लेकिन धर्म और जाति के दुष्प्रभाव से राजीव भी बच न सके। उनकी राजनीतिक पारी की शुरुआत ही बेहद दुखद इतिहास, शर्मनाक इतिहास की जनक बन गई। 1984 में सिखों का नरसंहार क्या कभी हम भूल पाएंगे? क्या कांग्रेस इस अपराध के दाग से अपने दामन को साफ कर पाएगी। और फिर शाहबानो मामले में राजीव सरकार का मुस्लिम तुष्टिकरण, 1984 में हिंदू मतदाता को रिझाने के लिए राम मंदिर के ताले खुलवाना आदि लम्हों की खता से कांग्रेस और यह देश बाहर निकल पाएगा? मेरी समझ से घाव में मरहम भले ही समय लगा चुका हो, घाव ऐसे हैं कि उनका दाग मिटने वाला नहीं। ठीक वैसे ही जैसे 2002 में गोधराकांड के बाद मुस्लिमों के नरसंहार के दाग रामभक्तों की पार्टी के दामन से नहीं छूटने वाले। ऐसे में रामंदिर का आयोध्या में निर्माण भारत के लिए क्या ऐसा अनूठा कर पाएगा जिससे कि पटरी से उतर चुकी अनियंत्रित भाग रही हमारी गाड़ी वापस टैªक पर आ सके? सोचिएगा जरूर, क्योंकि यह गंभीर प्रश्न है जिसका सीधा
असर हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य पर पड़ता है। क्या राम मंदिर निर्माण होने की स्थिति में देश में दिनों-दिन खराब हो रहे साम्प्रदायिक माहौल में फर्क पड़ेगा? क्या
बेरोजगारी के आंकड़ों में कमी आएगी? क्या हमारा लगभग चैपट हो चुका व्यापार एक बार फिर संवरेगा? क्या लोकतांत्रिक मूल्यों का जो क्षरण हम महसूस कर रहे हैं, जिसे देश के सबसे बड़े न्यायमूर्ति ‘लोकतंत्र खतरे में है’ कहने को विवश हैं, उसमें बदलाव आएगा? क्या राम भगवान स्वयं एक बार फिर से राम राज्य की स्थापना के लिए स्वयं धरती पर अवतरित होंगे? क्या धर्म और जाति के नाम पर अमानुष हो चुका आम भारतीय फिर से मानुष हो पाएगा? मेरी समझ से इनमें से कुछ भी राममंदिर निर्माण के बावजूद हमें हासिल होने से रहा। तब क्यों हम इस मंदिर-मस्जिद के झगड़े में पड़ते हैं? क्यों नहीं विवादित स्थल में जनता जनार्दन के लिए एक अति आधुनिकतम अस्पताल बनाने की हम सोचते। राम हमारे घट-घट के, हमारे मन प्राण के अराध्य हैं। भला एक स्थान विशेष में उन्हें बैठाकार ऐसा क्या हमें हासिल हो जाएगा जिससे अभी हम वंचित हैं? राम सही अर्थों में अपने समय के महानायक थे। राज परिवार में जन्मे जरूर, लेकिन गरीब- गुरबा के, दलित-शोषित के, महिलाओं के दर्द को उन्होंने गहरे महसूसा। स्वयं अपने पिता की रानियों की दुर्दशा उन्होंने अपने पिता के रानीवास में देखी, अपनी मां कौशल्या के दर्द को नजदीक से समझा। वनवास की अवधि के दौरान उन्होंने वनवासियों के मध्य चेतना जगाने का काम किया तो वहीं शबरी और अहिल्या के शोषण और स्वर्ग के राजा इन्द्र के कपट को भी समझ, न्याय के लिए संघर्ष किया। ऐसा महापुरुष भला क्योंकर अपने जन्मस्थान पर अपना मंदिर बनवाना चाहेगा। वह भी तब जब इस मंदिर के लिए भारी खून-खराबा हो, मनुष्य-मानुष न रहकर अमानुष हो एक-दूसरे के खून का प्यासा हो जाए। राममनोहर लोहिया ठीक कहते थे कि आज जरूरत मनुष्य को बचाने की है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे चर्च आदि निजी आस्था के विषय हैं। यदि ईश्वर है, अल्लाह है, जीसस है तो कण-कण में विद्यमान है। तब उसके लिए खून-खराबा करना, अमानुष बनना सबसे बड़ा अपराध है जिससे हर कीमत पर बचना जरूरी है।