राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं। वे निश्चित ही व्यथित हैं, उन्होंने पूरा दम-खम लगाकर अपनी पार्टी के लिए प्रचार किया, उनके भाषण सारगर्भित थे, उनमें यदि इतिहास बोध नहीं था तो ऐतिहासिक भूल भी, गलत तथ्य भी नहीं थे। उनका नारा ‘चौकीदार चोर है’ भी जमकर चलता नजर आ रहा था। कुछ माह पूर्व ही उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने भाजपा से तीन महत्वपूर्ण राज्य छीन लिए थे। तब मीडिया से लेकर सड़क तक चर्चा थी कि पप्पू अब असल नेता बन चुका है। कांग्रेसी तो छोड़िए, यूपीए गठबंधन के नेताओं को भी छोड़िए, गांधी परिवार से खासा परहेज बरतने वाले भाजपाई और संघी तक उन्हें सराहने लगे थे। फिर आया 2019 आम चुनाव का नतीजा और लीजिए राहुल को फिर से पप्पू बताया जाने लगा है। मेरी इस मुद्दे पर अलहदा राय है। मैं समझता हूं कमी अकेले राहुल गांधी की नहीं, बल्कि पूरे विपक्षी कुनबे की रही जिसने समय की नजाकत को भांपने की बड़ी चूक कर दी। और अब खिसयानी बिल्ली खंभा नोचे की तर्ज पर हार का ठीकरा राहुल गांधी के माथे पर डालने की भूल कर रहा है। देखिए इन चुनावों को लेकर कई ऐसी बातें हैं जिन पर अभी चर्चा करना उचित नहीं। फिर भी सनद रहे और वक्त में काम आए इसलिए यह कह रहा हूं कि ईवीएम को लेकर जो सवाल उठते रहे हैं उनका निवारण बेहद जरूरी है। यह जानना-समझना बेहद आवश्यक है कि क्यों कर जर्मनी की मुख्य अदालत ने ईवीएम मशीनों के जरिए चुनाव कराने पर रोक लगा दी, जिसके चलते वहां अब चुनाव बैलेट यानी मतपत्रों के आधार पर होते हैं। समझना और समझाया जाना आवश्यक है कि क्यों नीदरलैंड, आयरलैंड और इटली में ईवीएम बैन हैं। यह भी समझा जाना जरूरी है कि क्यों इग्लैंड में मतपत्रों के जरिए ही चुनाव हाते हैं। इन चुनावों के बाद सोशल मीडिया में ऐसी खबरों की बाढ़ आ गई थी कि ईवीएम बदली जा रही हैं, आरटीआई के जरिए एक खबर भी चली कि 20 लाख ईवीएम लापता हैं। चूंकि सोशल मीडिया झूठ का संसार है इसलिए ऐसी खबरों की सच्चाई पर बगैर प्रमाणिक जानकारी कुछ कहना उचित नहीं। तो वापस चलते हैं कांग्रेस की हार पर, विपक्षी गठबंधन की पराजय पर और राहुल गांधी पर। विपक्षी गठबंधन पर प्रधानमंत्री की टिप्पणी कि यह महामिलावटी गठबंधन है, इस हद तक सही नजर आता है कि कल तक जो एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोसते थे वे मोदी भय के चलते एक हो गए। गेस्ट हाउस कांड का रोना दशकों तक रोने वाली बहिन मायावती को अपने भतीजे से ऐसा प्रेम उमड़ा कि सब पिछले गिले-शिकवे भुला बैठीं। हाथ फिर भी कुछ नहीं आया तो इसका एक बड़ा कारण बसपा प्रमुख की राजनीतिक शैली है। वे दौलत के अंबार में बैठी हैं, उनके भव्य बंगले है। नोएडा स्थित अपने पैतृक गांव में इस गरीब की बेटी ने आलीशान महल खड़ा कर डाला है। बसपा अपने टिकटों का वितरण किस आधार पर करती है इससे सभी भली-भांति परिचित हैं। ऐसे में एक झूठा अहंकार कि दलित की बेटी सीएम हैं, कब तक उनके समाज के लोगों को बरगलाता? नतीजा देखिए सपा-बसपा अपना वोट बैंक एक-दूसरे के खाते में डाल पाने में विफल रहे। जाति आधारित राजनीति कर मौज करने वालों से भी जनता इन चुनावों में कुछ उकताई लगी। जाट नेता अजीत सिंह, उनके पुत्र जयंत, भुपेन्दर हुड्डा और उनके पुत्र दिपेन्दर सभी को जनता ने नकार दिया तो इसके पीछे एक बड़ा कारण बरसों से जनता को बरगलाए जाना रहा। मोदी भले ही हमें ना सुहाते हों, आमजन को उन्होंने यह समझा पाने में सफलता पाई कि वे न तो वंशवाद पर यकीन रखते हैं, ना जात-पात पर। उनका लक्ष्य केवल देश को प्रगति मार्ग में प्रशस्त करना है। पुलवामा आतंकी हमले के बाद तो मानो पूरा माहौल ही बदल गया। राष्ट्रवाद की आंधी चलने लगी। राहुल गांधी यहीं पर चूक कर गए। उन्होंने कांग्रेस का शानदार घोषणा पत्र जारी किया, किसानों से लेकर नौजवानों तक सभी के लिए अपनी पार्टी का स्पष्ट दृष्टिकोण सामने रखा। लेकिन चूक गए ‘आफ्सपा’ को लेकर। आफ्सपा कानून हटाने की बात उन्होंने ऐसे समय में कह डाली जब पूरा देश सर्जिकल स्ट्राइक से अभिभूत था। मोदी स्वयं हर चुनावी भाषण में सेना की शूरवीरता का जिक्र करते घूम रहे थे। वे मार्केटिंग के बेजोड़ बादशाह हैं। उन्हें समझ है कि कब क्या कहना है। अपने पिछले पांच सालों की नाकामियों को उन्होंने अकेले सर्जिकल स्ट्राइक का सहारा ले ऐसा ढका कि राफेल, जीएसटी, बेरोजगारी, पंद्रह लाख, किसानों की दुर्दशा आदि सब कुछ उसके भार तले दबकर रह गया। राहुल गांधी की एक बड़ी कमी मंदिरों के, धर्मगुरुओं के दरवाजे जाना, स्वयं को जनेऊधारी ब्राह्मण साबित करने का प्रयास आदि करना भी रहा। यह कांग्रेस की स्थापित लाइन से हटकर था। हालांकि यदि कांग्रेस की परफॉरमेंस अच्छी रहती तो इसे उनकी सफल रणनीति का हिस्सा करार दिया जाता। लेकिन अपनी समझ से उन्होंने ऐसा करके अपनी कमी का प्रदर्शन किया। कमी से मेरा तात्पर्य उनके राजनीतिक दृष्टिकोण से है। पुराने कांग्रेसी चावल उन्हें समझाने में सफल रहे कि कांग्रेस को अपनी लीक से हटकर कुछ हिंदुत्व की तरफ झुकाव दिखाना चाहिए। यह सच है कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस का प्रदर्शन इन चुनावों में बेहद खराब रहा, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकारें राहुल के नेतृत्व में ही बनी। साथ ही गुजरात में भी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा। ऐसे में राहुल गांधी यदि अपनी जिद में अड़े रहे तो निश्चित मानिए कांग्रेस और कमजोर होगी। इसके तीन मुख्य कारण हैं। पहला कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या गांधी परिवार की छत्रछाया की अनिवार्यता है। पीवी नरसिम्हा राव और उनके बाद सीताराम केसरी का दौर याद करिए। राजनीति में नौसिखिया सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनते ही कांग्रेस में जान आ गई थी। ऐसे में यदि गांधी परिवार से अलग कांग्रेस का कोई अध्यक्ष बनता भी है तो इसका कुछ लाभ होने वाला नहीं। कांग्रेसी नेता किसी भी अन्य का नेतृत्व स्वीकारने वाले नहीं। ऐसी मारकाट मचेगी कि जो कुछ पार्टी में बचा-खुचा है, वह भी समाप्त हो जाएगा। इसका कारण है कांग्रेस को ऑक्सीजन मिलती है नेहरू के उस विजन से जिसके चलते हम एक मजबूत लोकतंत्र बन सके। भले ही हम लाख वंशवाद का विरोध करें, यह सत्य है कि नेहरू- गांधी परिवार को इस विजन, इस नैरेटिव से जनता जोड़ कर देखने की आदी है। ऐसे में भावुकता या फिर हार का दंश न झेल पाने की कूवत के चलते राहुल ‘रण छोड़ दास’ बनते हैं तो इससे पार्टी को भारी नुकसान होगा। तीसरा बड़ा कारण है अल्पसंख्यक समाज जो भले ही क्षत्रपों के खाते में कुछ समय के लिए चला गया, उसकी आस कांग्रेस ही है। आने वाले समय में भाजपा और कांग्रेस ही देश की दो राष्ट्रीय पार्टियां रहनी तय हैं। ऐसे में यदि भाजपा हिन्दुत्व अपने एजेंडे में बनी रहती है तो अल्पसंख्यकों का आसरा केवल कांग्रेस रहेगी। हार के अपने कुछ कर्तव्य भी होते हैं। राहुल गांधी को चाहिए उस कर्तव्य मार्ग पर चलें, डटकर चलें। उन्हें कांग्रेस कार्य समिति ने अधिकार दे दिया है पार्टी को रिस्ट्रक्चर करने का। इस अधिकार को उन्हें हथियार बना ऐसे नेताओं की विदाई करनी होगी जो पार्टी के लिए भार बन चुके हैं। उनके पास प्रियंका के रूप में एक ऐसा चेहरा है जिसे आगे कर वे पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं से सीधे संपर्क स्थापित कर सकते हैं। प्रियंका का जादू निश्चित ही चलेगा। आज नहीं चला यह सच है, लेकिन 2024 में चलेगा यह तय है। इसका कारण है हमारे लोकतंत्र की नैसर्गिक कमजोरी। हम चेहरे पर फिदा होने वालों का मुल्क हैं। इसलिए जब मोदी मैजिक टूटने लगेगा तब प्रियंका का जादू सर चढ़कर बोलेगा। बहरहाल लब्बो-लुआब यह है कि गांधी परिवार कांग्रेस के लिए नितांत जरूरी है, राहुल गांधी को चाहिए वे रणछोड़ दास ना बनें, मजबूती से डटे रहें, सफलता अवश्य हाथ लगेगी। 1980 में जन्मी भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने के लिए उसके संस्थापकों ने दशकों संघर्ष किया था। यदि राहुल मैदान छोड़ते हैं तो इतिहास में कायर कहलाए जाएंगे।
नई सरकार शपथ ले चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्रिमंडल को बहुत सारी बधाई और शुभकामनाएं, इस अपेक्षा के साथ कि वे जनता के भरोसे पर खरे उतरेंगे।