पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-77
इंदिरा जब पाकिस्तान के खिलाफ विश्व के नेताओं का समर्थन जुटाने के लिए विदेशी दौरे पर थीं, पूर्वी पाकिस्तान में हालात तेजी से बिगड़ते चले गए। ‘मुक्ति वाहिनी’ को मिल रहे भारतीय समर्थन से नाराज पाकिस्तान ने 3 दिसंबर, 1971 को भारतीय वायुसेना के कई ठिकानों पर एक साथ हवाई हमला बोल दिया। शीघ्र ही दोनों देशों के मध्य भीषण युद्ध की शुरुआत हो गई। पाकिस्तानी राष्ट्रपति को पूरा भरोसा था कि उन्हें न केवल चीन से सीधी मदद प्राप्त होगी, बल्कि अमेरिका भी इस मुद्दे में उनके साथ रहेगा। ऐसा लेकिन हुआ नहीं। भारत-सोवियत मैत्री संधि के चलते विश्व की महाशक्तियों ने पाकिस्तान के पक्ष में बयानबाजी जरूर की लेकिन सैन्य हस्तक्षेप करने का साहस उन्होंने नहीं किया। नतीजा भारत के पक्ष में रहा। भारतीय सेनाओं ने पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर रहमान की ‘मुक्ति वाहिनी’ की मदद से वहां युद्धरत पाकिस्तानी सेना की चारों तरफ से घेराबंदी कर डाली थी। पाकिस्तान द्वारा आक्रमण किए जाने के दो दिन बाद ही भारत ने 5 दिसंबर, 1971 को पूर्वी पाकिस्तान को बतौर स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश मान्यता देने की घोषणा कर दी। 16 दिसंबर को अंततः अपनी हार स्वीकारते हुए नब्बे हजार पाक सैनिकों ने भारतीय सेना के समक्ष समर्पण कर दिया। इंदिरा रातोंरात देशवासियों के लिए ‘मां दुर्गा’ का अवतार बन गईं। संसद में विपक्षी दलों ने भी उनकी सराहना एक सुर में कर माहौल चौतरफा इंदिरामयी बना डाला।
फरवरी, 1971 में हुए आम चुनावों में मिली शानदार जीत के बाद इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व में भारी परिवर्तन देखने को मिलता है। ‘गूंगी गुड़िया’ अब व्यक्तिवादी राजनीति की शिखर पुरुष बन ऐसे निर्णय लेने लगी थी जिसकी परिणति अंततः तानाशाही होती है। नेहरू के करीबी मित्र और समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने 13 मार्च, 1971 के अपने पत्र में इंदिरा गांधी को चुनावी जीत पर बधाई देते हुए लिखा था कि ‘…तुमको देश की जनता की सेवा का अपूर्व अवसर मिला है। मुझे आशा है कि गंभीरता से सोच-विचार कर आज की चुनौतियों का सामना धीरज और विनम्रता से करोगी …़राष्ट्रपति निर्वाचन के समय का तुम्हारा आचरण मुझे पसंद नहीं आया था, यद्यपि मैं जानता हूं कि तब तुम्हारे राजनीतिक जीवन-मरण का प्रश्न था। अब जब तुम्हें निर्द्वंद्व सत्ता मिली है मेरी भगवान से प्रार्थना है कि वह तुम्हारे विवेक को शुद्ध रखें।’ इंदिरा लेकिन अपने पिता के मित्र, जो उन्हें प्यार से ‘इंदु’ कह पुकारते थे, की सलाह को पूरी तरह नजरअंदाज कर अब उस रास्ते पर चल पड़ी थीं जो पूरी तरह से उनके पिता नेहरू की राह से जुदा था। पाकिस्तान संग जब रिश्ते तनाव के चरम पर थे, तभी इंदिरा सरकार संसद में 24वां संविधान संशोधन विधेयक लेकर आईं। इस विधेयक में संसद को संविधान प्रदत्त मूलभूत अधिकारों को कमजोर करने, संविधान के किसी भी अनुच्छेद को संशोधित करने और राष्ट्रपति को हर अवस्था में ऐसे संशोधनों को स्वीकृति देने के लिए बाध्यता का प्रावधान था। इस विधेयक में यह भी कहा गया था कि संसद में पारित संविधान संशोधन विधेयकों को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। इस विधेयक के जरिए केंद्र सरकार का उद्देश्य उच्चतम न्यायालय द्वारा 1967 में दिए गए एक निर्णय को पलटना था। ‘गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य’ नामक एक मुकदमें में अपना निर्णय सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि संसद किसी भी मौलिक अधिकार को समाप्त करने का अधिकार नहीं रखती है। संविधान के अनुच्छेद 368 में ‘संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया’ को परिभाषित किया गया है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘इस संविधान के संशोधन का आरंभ संसद के किसी सदन में इस प्रयोजन के लिए विधेयक पुनःस्थापित करके ही किया जा सकेगा और जब विधेयक प्रत्येक सदन में उस सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उस सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया जाता है तब वह राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, जो विधेयक को अपनी अनुमति देगा और तब संविधान उस विधेयक के निबंधनों के अनुसार संशोधित हो जाएगा।’ उच्चतम न्यायालय द्वारा 1967 में ‘गोलकनाथ बनाम राज्य सरकार’ मामले में दिए गए निर्णय में संविधान के अनुच्छेद 13 को आधार बनाया गया था। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि -‘राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग (मूल अधिकार) द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती हैं या न्यून करती हैं और इस खंड (अनुच्छेद 13) के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।’ उच्चतम न्यायालय के इस आदेश चलते संसद मौलिक अधिकारों के साथ छेड़छाड़ न करने के लिए बाध्य हो गई थी। इंदिरा सरकार नवंबर, 1971 में 24वां संविधान संशोधन विधेयक ले आई जिसको पारित करा उसने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलट डाला और संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने का असीमित अधिकार पा लिया। सरकार के इस कदम को विपक्षी दलों ने तानाशाही पूर्ण तब करार दिया था। उस दौर के समाचार पत्रों के संपादकीय भी इंदिरा सरकार के इस कदम से खासे विचलित हो लिखे गए थे। विधि विशेषज्ञ वी .जी. रामचंद्रन ने ‘सुप्रीम कोर्ट केसेज जर्नल’ में लिखा-‘If a new stand is taken that the Constitution of India is not supreme and that Parliament has superior powers to change any provision of the Constitution, then it follows that the Judiciary and the Executive are but subordinate to the will of Parliamant as expressed in any legislative measure… We wonder if the present series of amendments are the last. These two amendments are not ‘trinkering’ with the Constitution. It is a veritable slaughter of the Constitution.’ (यदि यह स्वीकार लिया जाए कि भारत का संविधान सर्वोच्च नहीं है और संसद को संविधान के किसी भी हिस्से को बदलने का पूरा अधिकार है तो इसका अर्थ यह होगा कि न्यायपालिका और कार्यपालिका संसद के अधीन हो जाएगी… हमें संदेह है कि वर्तमान में किए गए संविधान संशोधन अंतिम नहीं हैं। ये दो संशोधन हमारे संविधान के साथ छेड़छाड़ नहीं हैं, बल्कि यह संशोधन के नाम पर संविधान की हत्या किए जाने समान हैं।)
एक अमेरिकी अंग्रेजी दैनिक ने लिखा-‘The implications are breath taking. Parliament now has the power to deny the seven freedoms, abolish constitutional remedies available to citizens, and to change the federal character of the union.’ (इसके नतीजे बेहद दूरगामी हैं। अब संसद के पास यह अधिकार है कि वह आमजन को उसके सात मौलिक अधिकारों से वंचित कर दे और संविधान प्रदत्त नागरिकों को उपलब्ध सभी उपाय समाप्त कर देश के संघीय चरित्र को बदल दे)
24वें संविधान संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति ने नवंबर, 1971 में अपनी मंजूरी दे दी। इंदिरा इतने पर ही लेकिन रुकने को तैयार नहीं थीं। जुलाई, 1971 में इंदिरा सरकार ने 25वां संविधान संशोधन कानून संसद में रख दिया। इस संशोधन विधेयक के जरिए केंद्र सरकार ने संविधान प्रदत्त एक अन्य महत्वपूर्ण ‘संपत्ति का अधिकार’ को कमजोर करने का काम कर डाला। इस संशोधन के बाद सरकार को यह अधिकार मिल गया कि वह किसी भी नागरिक की निजी संपत्ति को जनहित में भी अपने कब्जे में ले सकती है और ऐसी संपत्ति को लिए जाने की दशा में वह उक्त संपत्ति का मुआवजा खुद तय कर सकती है जिसे किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। इंदिरा सरकार द्वारा लाए गए ये दो संविधान संशोधन विधेयक संविधान की मूल धारणा के पूरी तरह विपरीत थे और आम नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन करते हुए केंद्र सरकार की शक्तियों में असीमित बढ़ोत्तरी करने वाले थे। इन्हीं दो संविधान संशोधन विधेयकों के चलते केंद्र सरकार और न्यायपालिका में टकराव बढ़ा था। ‘समर्पित नौकरशाही’ के साथ-साथ ‘समर्पित न्यायपालिका’ अब इंदिरा गांधी की नजरों में बेहद जरूरी हो चली थी। आगे चलकर उन्होंने एक ‘समर्पित न्यायपालिका’ की चाह चलते वह कर दिखाया जिसका कुप्रभाव आज तक महसूस किया जा रहा है। इस पर चर्चा लेकिन बाद में। इंदिरा सरकार पर इस दौरान भ्रष्टाचार को लेकर भी नाना प्रकार के आरोप लगने लगे थे। पाकिस्तान संग जब विवाद चरम पर था, एक अजीबो-गरीब घटना सामने आई जिसने प्रधानमंत्री की छवि तक को प्रभावित कर डाला। इसे ‘नागरवाला कांड’ कह पुकारा जाता है। यह ऐसा कांड है जिसका सच पूरी तरह कभी सामने नहीं आ पाया। 24 मई, 1971 के दिन भारतीय स्टेट बैंक की दिल्ली स्थित संसद मार्ग शाखा के मुख्य कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा को कथित तौर पर सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन आया। फोन करने वाले व्यक्ति ने मल्होत्रा की बात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से करवाई जिन्होंने मल्होत्रा को निर्देश दिए कि वे साठ लाख रुपए बैंक से निकाल कर एक व्यक्ति जिसे उन्होंने ‘बांग्लादेश का बाबू’ कह पुकारा, को देकर आएं। मल्होत्रा ने तत्काल प्रधानमंत्री के निर्देशों का पालन किया और साठ लाख रुपया बैंक से निकालकर इस व्यक्ति को सौंप दिए। इसके बाद मल्होत्रा प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंचे जहां उन्होंने इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव पीएन हक्सर से मुलाकात कर इन साठ लाख रुपयों की रसीद चाही। हतप्रभ हक्सर ने मल्होत्रा को बताया कि प्रधानमंत्री ने ऐसा कोई फोन उन्हें नहीं किया है। साथ ही उन्होंने मल्होत्रा को तत्काल इस धोखाधड़ी की रिपोर्ट पुलिस में करने का आदेश दिया। नागरवाला को तत्काल ही दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर 60 लाख की रकम भी बरामद कर ली। दिल्ली पुलिस ने मात्र कुछ घंटों में ही इस केस को सुलझाने का दावा तब किया था। नागरवाला भारतीय सेना का एक सेवानिवृत्त कैप्टन रुस्तम सोहराब जी नागरवाला निकला जो भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ के लिए काम करता था।