नेहरू लेकिन आजादी पश्चात नौकरशाही में आवश्यक बदलाव-सुधार नहीं कर पाए। 1964 में अपनी मृत्यु से कुछ अर्सा पहले ही एक विदेशी पत्रकार ने जब उनसे पूछा कि वे अपनी सबसे बड़ी सफलता किसे मानते हैं तो नेहरू का जवाब था-‘I could not change the administration, it is still a colonial administration’ (मैं प्रशासन नहीं बदल सका, यह अभी भी एक औपनिवेशिक प्रशासन है।) नेहरू के ठीक विपरित सरदार वल्लभ भाई पटेल अंग्रेजों द्वारा तैयार की गई नौकरशाही के प्रबल प्रशंसक थे और वे उसे भारत का ‘इस्पाती ढांचा’ कह पुकारते थे। आजाद भारत की पहली सरकार निश्चित ही राजसत्ता के लिए औपनिवेशिक नौकरशाही का विकल्प तैयार कर पाने में विफल रही। फ्रांसिसी अर्थशास्त्री और इतिहासकार चार्ल्स ब्रिटेलहेम के अनुसार ‘भारत की प्रशासनिक व्यवस्था औपनिवेशिक काल जैसी ही बनी रही। उसे उसी रूप में बगैर कोई सुधार किए जारी रखा गया।’ इस बात की पुष्टि 1949 से 1950 के दौरान केंद्र सरकार द्वारा तेलंगाना में शुरू हुए किसान-मजदूर आंदोलन को पुलिस बल की सहायता से दबाए जाने से होती है। इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए 12,000 पुलिसकर्मी तेलंगाना में तैनात किए गए थे जिनके साथ सशस्त्र वामपंथी आंदोलनकारियों की मुठभेड़ में ऐसे 800 आंदोलनकारी मारे गए थे। केंद्र सरकार का पुलिस बजट नेहरूकाल में तेजी से बढ़ा। 1951-52 में यह मात्र नब्बे लाख था जो 1970-71 में बढ़कर आठ करोड़ पहुंच गया। 1947 से 1970 के दरम्यान 476 बार विभिन्न इलाकों में सेना की तैनाती किया जाना भी पुष्टि करता है कि आजादी के बाद भी पुलिस व्यवस्था के सहारे सत्ता चलाने का ब्रिटिश तरीका जारी रहा।’ ब्रिटिश प्रशासनिक ढांचे के प्रति कांग्रेस के रुख और झुकाव को 1937 में विभिन्न प्रांतों में बनी कांग्रेस सरकारों के काम-काज से बेहतर समझा जा सकता है। इन चुनावों में कांग्रेस के अधिकांश प्रत्याशी जमींदार, व्यापारी तथा धनी ठेकेदार थे जिनकी धन-शक्ति का उपयोग कांग्रेस ने इस चुनावों में किया था। चुनाव बाद सरकार बनाने की कवायद के दौरान बड़े पैमाने पर दल-बदल भी कांग्रेस ने अपने पक्ष में ऐसे पूंजीपतियों और बाहुबलियों की मदद से कराया था। 6 प्रांतों में अपनी सरकार बनाने में सफल रही कांग्रेस ने औपनिवेशक प्रशासनिक ढ़ांचे संग मधुर संबंध बना सत्ता चलाने का रास्ता चुना था। इस बात की पुष्टि इस दौर के ब्रिटिश अधिकारियों के कथन से होती है। बॉम्बे प्रांत में कांग्रेस सरकार के साथ काम करने वाले ब्रिटिश आईसीएस अधिकारी डोनाल्ड साइमिंग्टन के अनुसार ‘It was a momentous occassion when, in the month of April, we came under the rule of the party which had been agitating agaist the British Raj for more than twenty years. But, if anyone at the time expected dramatic and revolutionary changes, he was in for an anticlimax. our new Government had enough sense and experience to realise that nine-tenths of its work would lie in the field of day to day administration, and that spectacular reform must be a fringe activity’ (यह एक महत्वपूर्ण अवसर था जब अप्रैल के महीने में हम उस पार्टी के शासन में आ गए जो बीते बीस सालों से अधिक समय से ब्रिटिश राज के खिलाफ संघर्ष कर रही थी। लेकिन अगर उस समय किसी को भी नाटकीय और क्रांतिकारी परिवर्तन की उम्मीद थी, तो उसके लिए यह सत्ता परिवर्तन एक विरोधी चरमोत्कर्ष निकला। हमारी नई सरकार के पास पर्याप्त समझ और अनुभव था। वह समझते थे कि उनके काम का अधिकांश हिस्सा दिन-प्रतिदिन के प्रशासनिक कार्यों में लगेगा और क्रांतिकारी सुधार एक किनारे की गतिविधि रहेंगे।) ठीक इसी प्रकार मद्रास प्रांत में सचिव सीएच मास्टरमैन के उद्गार भी मद्रास में बनी कांग्रेस सरकार की बाबत कुछ ऐसा ही कहते हैं-‘He (Rajaji) told me once that he had much greater confidence in the judgement of his British secrataries than in his Indian colleagues’ (राजाजी चक्रवती राजगोपालचारी) ने एक बार मुझसे कहा था कि उन्हें अपने ब्रिटिश अधिकारियों के निर्णयों पर ज्यादा भरोसा रहता है बनिस्पत अपने भारतीय अधिकारियों के।) कोलकाता विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर सुरंजन दास ने इस विषय पर अपने शोध पत्र में व्यापक प्रकाश डाला है। बिहार में 1937-39 के दौरान कांग्रेस सरकार द्वारा किसान सभा की गतिविधियों पर पुलिस कार्रवाई, मद्रास में समाजवादी कार्यकर्ताओं पर मुकद्दमें दर्ज किए जाने और बॉम्बे में कांग्रेस विरोधी सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं और संगठन पर आपराधिक कानूनों के तहत कार्रवाई इसकी पुष्टि करते हैं कि सत्ता में आने के साथ ही कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार की नीतियों का अनुसरण करना शुरू कर दिया था। दास कांग्रेस की जमींदारों के प्रति ‘सहृदयता’ का उदाहरण डॉ ़ राजेंद्र प्रसाद के उस कथन के जरिए सामने रखते हैं जिसमें बतौर मुख्यमंत्री प्रसाद ने किसानों को जमींदारों संग सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए जाने की बात कही थी। सरदार पटेल ने इसी बाबत एक कदम आगे बढ़कर अप्रैल 1938 में कह डाला था-‘We do not want a Lenin here…Those who preach class hatred are enemies of the country’ (हमें अपने यहां कोई लेनिन नहीं चाहिए ़ ़ ़जो वर्ग संघर्ष की बात करते हैं वह देश के दुश्मन हैं।) दास ने उस काल में श्रमिक असंतोष का आंकड़ा देते हुए इस बात को रेखांकित किया है कि इस असंतोष का समाधान तलाशने के बजाए विभिन्न प्रांतों की सरकारों ने पूंजी के खिलाफ उबल रहे आक्रोश को सरकारी मध्यस्थता के जरिए दबाने का काम तब किया था। इस दौरान कामगारों द्वारा की गई हड़तालों में 158 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी और कामबंदी के मामलों में 230 प्रतिशत का उछाल आया था। उदाहरण के तौर पर बिहार में टाटा आयरन और स्टील कंपनी में हुए श्रमिक असंतोष के दौरान बिहार पुलिस का सहारा लिया जाना है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर कानपुर में श्रमिक असंतोष को दबाने के लिए धारा 144 लागू की गई और श्रमिक नेताओं को जेल में डाला गया था। सुरंजन दास इस बाबत अर्थशास्त्री आरपी दत्ता का कथन सामने रखते हैं। बकौल दत्ता ‘The dominant moderate leadership in effective control of the Congress machinary and the Ministries was in practice developing an increasing cooperation with imperalism…and acting more and more openly in the interests of the upper class landlords and industrialists, and was showing an increasingly marked hostility to all militant expression of forms of mass Struggle’ (कांग्रेस भीतर मजबूत उदार नेतृत्व का संगठन, सरकारी तंत्र और मंत्रालयों में दबदबा बढ़ने लगा था जो साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ संबंध विकसित करने और जमींदारों-उद्योगपतियों के हितों को लेकर खुलकर काम कर रहा था। किसी भी प्रकार के जनसंघर्ष के प्रति इस गुट की आक्रमकता तेजी से बढ़ने लगी थी।)
नेहरू कांग्रेस में आए इस भारी विचलन से भलिभांति परिचित थे और बेहद व्यथित और व्याकुल भी। कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों की बाबत उनका एक कथन इसकी पुष्टि करता है। नेहरू ने लिखा ‘The Congress has now attracted into its fold thousands who are not eager for achieving Swaraj or to join the fight, but are merely seeking personal gains…(The) Congress has lost the…oppurtunity of action, of fighting imperialism directly and thus of deriving more strength’ (कांग्रेस ने ऐसे हजारों को अब अपनी छत्रछाया में ले लिया है जिनका लक्ष्य स्वराज प्राप्त करना अथवा इस संग्राम में हिस्सा लेना नहीं है बल्कि केवल निजी लाभ प्राप्त करना है..कांग्रेस ने साम्राज्यवाद के खिलाफ सीधी लड़ाई का अवसर गंवा दिया है।)
ब्रिटिश नौकरशाही में व्यापक संस्थागत सुधार न कर पाने के लिए नेहरू को जिम्मेवार ठहराने का चलन उस दौर के साहित्य में भी स्पष्ट हो उभरा है। भगवतीचरण वर्मा अपने उपन्यास ‘प्रश्न और मरीचिका’ में 1947 से 1962 के दौर की कहानी कहते हैं। वर्मा अपने पात्रों के माध्यम से नेहरूकाल में नौकरशाही का दबदबा होने और कांग्रेस के मंत्रियों की उन पर निर्भरता को सामने कुछ यूं लाते हैं- ‘शर्मा और जनार्दन सिंह भी भारत-चीन मैत्री को लेकर उत्साहित नहीं थे। उनको लगता है कि कुछ भी होने वाला नहीं है। देश में पूरी ताकत ब्यूरोक्रेसी के पास है और यह ऊपर से नीचे तक भ्रष्ट है। ये भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट आपस में बहुत एकता रखते हैं उन लोगों ने जनप्रतिनिधियों को महत्वहीन बना दिया था। जो शक्ति संविधान ने जनप्रतिनिधियों को दी थी वह भी बहुत प्रभावी नहीं हो पा रही थी, क्योंकि वे खुद अपने चुनाव के लिए दूसरों पर निर्भर थे। जीते बिना शक्ति नहीं और जीतने के लिए उन्हें पैसे और ताकत की जरूरत थी। इस पूरी प्रक्रिया में उन्हें ब्यूरोक्रेटस की मदद की जरूरत होती थी। इसी कारण वे कमजोर हो जाते थे। उन्हें ब्यूरोक्रेसी को पूरी आजादी देनी पड़ती थी। वरना ये नेता अपने को सत्ता में नहीं रख सकते थे। उदय ने जनार्दन से पूछा-क्या नेहरू इसे जानते नहीं? इसका उत्तर जनार्दन ने दिया कि नेहरू गांधी के अनुयायी हैं और खुद हृदय परिवर्त्तन में विश्वास रखते हैं। उन्होंने भारत की दरिद्रता को भारतीय समस्या के मूल के रूप में देखा है। वे विदेश से कर्ज ले रहे हैं। औद्योगिकरण और रोजगार इससे जुड़े हुए हैं। इसके सहारे वे भारत की समस्या को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं और उन्हें विश्वास है कि भारत इसी तरह आगे बढ़ सकता है। वह इसके लिए पांच-दस प्रतिशत बेइमानी को भी बर्दाश्त करने के लिए तैयार रहे हैं। पर उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं कि अगर इस पांच-दस प्रतिशत बेईमानी को न रोका गया तो पूरी व्यवस्था ही भ्रष्ट हो जाएगी।’
क्रमशः