उत्तराखण्ड में जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनेताओं और राजनीतिक दलों के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चला है। एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाने का सिलसिला भी गति पकड़ चुका है। विचारधारा का कोई मोल है नहीं। अभी तक जो धर्मनिरपेक्ष थे, वे भगवामयी होने में देर नहीं लगा रहे। पुरौला के विधायक राजकुमार पहले भाजपा में थे फिर कांग्रेस में आ गए। अब एक बार फिर से भगवा की शरण में पहुंच गए हैं। 2012 में भाजपा छोड़ते समय जो कुछ भी उन्होंने भाजपा और भाजपा नेताओं की बाबत कहा होगा, अब वही कुछ कांग्रेस के बारे में कहते घूम रहे हैं। नाना प्रकार की चर्चाओं का, अफवाहों का बाजार गर्म है कि कई अन्य कांग्रेसी नेता भी भाजपा में शामिल होने की कतार में लगे हैं। तो दूसरी तरफ भाजपा से कांग्रेस में आने वालों के संभावित नाम भी फिजा में तैर रहे हैं। यानी जो भगवामयी हैं वे धर्मनिरपेक्ष होने को आतुर हैं और जो कथित तौर पर धर्मनिरपेक्ष हैं उन्हें भगवा यकायक सुहाने लगा है। ‘गिव एंड टेक’ यानी कुछ दो-कुछ लो का खेल शुरू हो चुका है। आने वाले कुछ महीनों में यह जमकर खेला जाएगा। विचार-विचारधारा, शुचिता, जनसरोकार आदि तेजी से विलुप्त हो ही चुके हैं। न तो राजनेताओं को इनकी कोई जरूरत अब बची है, न ही जनता जनार्दन को। यदि दोनों में से एक भी इनके प्रति कुछ समर्पित होता, आस्थावान होता तो देश, लोकतंत्र, समाज वर्तमान अधोगति को प्राप्त न हुआ होता।
देवभूमि के गहराते दाग
सार्वजनिक जीवन से शुचिता का लगभग पलायन बेहद चिंता का विषय है। राज्य सरकार में शामिल एक मंत्री हरक सिंह रावत इन दिनों दावा कर रहे हैं कि उनके ‘भगीरथ’ प्रयास के चलते ही पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत 2014 से 2017 के दौरान जेल जाने से बचे थे। हरक सिंह का कहना है कि उस दौर में राज्य के मुख्यमंत्री हरीश रावत ‘ढैंचा बीज घोटाले’ की जांच के लिए गठित त्रिपाठी आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से दोषी पाए गए त्रिवेंद्र रावत को गिरफ्तार कर जेल भेजना चाहते थे, लेकिन तब बतौर कृषि मंत्री हरक सिंह रावत ने अपनी संस्तुति कुछ इस प्रकार करी कि हरीश रावत त्रिवेंद्र सिंह की गिरफ्तारी का फैसला न ले सके। हरक सिंह इसे अपनी उपलब्धि मान रहे हैं। वे इसे उनके द्वारा त्रिवेंद्र सिंह रावत पर किया गया एहसान बता रहे हैं। कमाल है, अद्भुत है, राज्य में मुख्यधारा का मीडिया हरक सिंह रावत के इन बयानों को मात्र मामूली खबर समझ प्रकाशित कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ले रहा है। कोई भी यह सवाल नहीं उठा रहा कि यदि त्रिवेंद्र सिंह रावत किसी प्रकार के भ्रष्टाचार में संलिप्त थे तो क्योंकर हरक सिंह ने उन्हें बचाने का खेल खेला और क्योंकर तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने मंत्री की सलाह को तरजीह देते हुए एक न्यायिक आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर डाला?
हम जल्द भूलने की बीमारी से ग्रस्त समाज हैं, हम धर्म और जाति पर बंटे समाज हैं। हमें नैतिकता, शुचिता आदि से भला क्या लेना-देना। यदि होता तो जब 2017 में भाजपा आलाकमान ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया था तभी हम सड़कों पर उतरते, विरोध- प्रदर्शन करते। कहते एक आयोग द्वारा दोषी राजनेता को मुख्यमंत्री बनाया जाना हमें स्वीकार नहीं। लेकिन हम भला ऐसा क्यों और कैसे करते? हम स्वयं सिर पांव तक अनैतिक और भ्रष्ट जो हैं। भाजपा ने जीत का जश्न मनाया। गढ़वाल ने एक गढ़वाली के सीएम बनने का जश्न मनाया, कुमाऊं और तराई ने इस जश्न में दलगत आधार पर, जाति के आधार पर अपनी शिरकत की। सबने भूला दिया ‘ढैंचा बीज घोटाला’। शार्ट टर्म मेमोरी लॉस हर किसी को सुहाती है। भूल गए या भूलना उचित समझा कि जिस व्यक्ति को राज्य की कमान सौंपी गई है वह मात्र सात बरस पहले ही भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरा था और मात्र चार बरस पहले यानी 2013 में सुशील चन्द्र त्रिपाठी आयोग ने इस भ्रष्टाचार की विस्तृत जांच कर त्रिवेंद्र सिंह रावत को स्पष्ट रूप से वर्ष 2010 में किसानों के लिए खरीदे गए बीज में भारी घोटाले का दोषी मानते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि ‘श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत Prevention of Corruption Act 1988 की धारा 13 (1) (D) (III) की परिधि में आते हैं। अतः राज्य सरकार इसका विधिवत परीक्षण कर तदनुसार अग्रेतर कार्यवाही करे।’ हरीश रावत सरकार ने इस पर ‘अग्रेतर कार्यवाही’ के नाम पर त्रिवेंद्र सिंह रावत एवं उनके साथ भ्रष्टाचार के दोषी पाए गए वरिष्ठ अफसरों को ‘बाइज्जत बरी’ कर डाला। इसी ‘बाइज्जत बरी’ करवाने के खेला का श्रेय हरक सिंह रावत इन दिनों ‘लूटने’ का प्रयास करते नजर आ रहे हैं।
अंग्रेजी की एक कहावत ‘You scratch my back and I will scratch yours’ अर्थात् ‘तुम मेरी पीठ खुजलाओ, मैं तुम्हारी खुजलाऊंगा।’ उत्तराखण्ड में पिछले बीस बरसों के दौरान यही होता आ रहा है। पहली निर्वाचित सरकार यानी नारायण दत्त तिवारी की सरकार में हुए कथित घोटालों का ढोल पीटते हुए भाजपा ने 2007 में एक जांच आयोग बना दूध का दूध, पानी का पानी किए जाने की बात कही थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त न्यायाधीश एएन वर्मा को यह जांच सौंपी गईं, इस आयोग का तीन बार कार्यकाल बढ़ाया गया, चार बार अध्यक्ष बदले गए लेकिन न तो तरीके से कोई भी जांच हुई, न ही किसी कांग्रेसी नेता को दोषी ठहराया गया। 2012 में फिर कांग्रेस सत्ता में आई तो तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने भाजपा शासनकाल को महा भ्रष्ट बताते हुए एक जांच आयोग रिटार्यड आईएएस के ़आर ़ भाटी की अध्यक्षता में बना डाला। इस आयोग को निशंक शासनकाल के घोटालों के साथ-साथ खण्डूड़ी शासनकाल के घोटालों की लंबी लिस्ट सौंप जांच करने को कहा गया। भाटी आयोग ने तराई बीज निगम में हुई खरीद घोटाले की निस्तृत जांच कर निगम के तत्कालीन अध्यक्ष हेमंत द्विवेदी को दोषी माना। लेकिन द्विवेदी पर कोई कार्यवाही आज तक नहीं हुई। भाटी बेहद ईमानदार व्यक्ति थे। उन्होंने अन्य मामलों की जांच न करने का फैसला लिया। उनके बाद त्रिपाठी आयोग बनाया गया जिसने ‘ढैंचा बीज घोटाले’ पर विस्तृत जांच कर त्रिवेंद्र सिंह रावत को भ्रष्टाचार का दोषी करार दिया। हरीश रावत ‘सहृदय’ व्यक्ति निकले। उन्होंने त्रिवेंद्र सिंह रावत को बरी कर राजनीति में दोस्ती की नई मिसाल कायम की।
प्रश्न यह नहीं है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत को किसके चलते राहत मिली और वे कानूनी कार्यवाही से कैसे बच गए। प्रश्न भ्रष्टाचार को लेकर राज्य के राजनीतिक दलों में आपसी अंडरस्टैंडिंग से जुड़ा है जिसे शुद्ध हिंदी में, कानूनी भाषा में ‘दुरभि संधि’ कहा जाता हैं एक-दूजे को प्रति दिन पानी पी-पीकर कोसने वाले ये राजनेता घोटालों पर दहाड़ते बहुत हैं, सत्ता पर आने पर कोई एक्शन लेकिन नहीं लेते। एक-दूसरे की पीठ खुजाने का काम करते हैं। ऐसा केवल हमारे राज्य में नहीं, पूरे देश में यही आलम है। उत्तर प्रदेश को ले लीजिए। अखिलेश यादव और मायावती को महाभ्रष्ट कहने वाली भाजपा का शासन समाप्ति की तरफ है, लेकिन अभी तक अखिलेश-माया के कथित घोटालों की जांच ही चल रही है। ऐसा होता आया है, आगे भी होता रहेगा। इसके लिए इन राजनेताओं से कहीं अधिक जिम्मेदार लोकतंत्र का ‘लोक’ है जो स्वयं सिर से पांव तक भ्रष्ट है, धर्म और जाति के दलदल में गहरे धंसा है। अभी चुनावी ड्रामा शुरू ही हुआ है। पुरौला के विधायक राजकुमार कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुए तो बजाए उनकी नैतिकता, उनके आचरण पर प्रश्न उठाने, पुरौला की जनता ने उनको जयकारा लगाया है। आने वाले समय में दलबदल का खेला जब-जब होगा, लोक ऐसा ही करेगा। हरक सिंह रावत का पूरा राजनीतिक जीवन सबके सामने है। नैतिक-अनैतिक का उन्हें कोई बोध नहीं वे आदतन दल-बदलू हैं। आर्थिक भ्रष्टाचार से लेकर चारित्रिक भ्रष्टाचार के आरोपों से वे घिरे रहते हैं। फिर भी वे हरेक राजनीतिक दल के लिए ‘मूल्यवान धरोहर’ समान हैं क्योंकि उनके साथ लोकतंत्र का लोक खड़ा है। वह लोक जो उनसे कुछ पाने की आशा तो रखता है, कुछ पाता नहीं है, फिर भी उनके साथ है। मान लीजिए हरक सिंह एक बार फिर दल-बदल कर भाजपा छोड़ कांग्रेस में आ जाते हैं तो निश्चित ही हरीश रावत उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ेंगे। उन्हें जनसरोकारी नेता बताएंगे। ठीक वैसे ही जैसे केदारनाथ आपदा के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को धिक्कारने वाले भाजपाइयों ने बहुगुणा को गले लगाते समय कहा था। बहुगुणा जब तक कांग्रेस में थे, भाजपा की नजरों में महापापी थे, अब कृष्ण समान हो गए हैैं। राजकुमार का दल बदलना तो टेªलर मात्र है, पिक्चर अभी बाकी है। खेला तो शुरू ही हुआ है। देखते जाइए आगे-आगे होता है क्या।