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Editorial

हिंसक होते समाज के खतरे

जब पूरे समाज में भारी विचलन, दुराचार, भ्रष्ट्र आचरण सामाजिक दायित्यों के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव, मूल्यों का अवमूल्यन आदि चरम पर हो तो समझ यही है कि किसी से भी नैतिकता की अपेक्षा न की जाए। लेकिन हम ऐसा करते हैं। पुलिस के भ्रष्ट्राचार पर कुंठित- क्रोधित होते हैं, नेताओं से अपेक्षा रखते हैं कि वे उच्च सामाजिक जीवन मूल्यों पर चलेंगे, न्यायालय से न्याय में पारदर्शिता और सरकारों से राजकाज में पारदर्शिता की अपेक्षा भी रखते हैं। चारों तरफ भय, भूख, भ्रष्ट्राचार, अन्याय और अविश्वास के बीच जीने को विवश हम एक बात लेकिन भूल जाते हैं कि इस सब हाहाकार में हम कितने शामिल हैं? कितने दोषी हैं? अपने दायित्वों के प्रति पूरी तरह बेपरवाह हम दूसरे को आयना दिखाने में इतना डूबे हैं कि कब इस हाहाकार में अपने हिस्से की आहुति के भागीदार बन जाते हैं, इसे न तो समझने का, न ही मानने का प्रयत्न करते हैं। नतीजा दिनों दिन भ्रष्ट्र, हिंसक, असहिष्णु समाज में हमारे सामने है। दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में वकीलों और पुलिस के बीच हिंसा इसी सच का छोटा सा उदाहरण है। वकालत को एक ऐसे पेशे का दर्जा प्राप्त है जिसका मुख्य दायित्य न्याय की रक्षा करना, न्याय के लिए संघर्ष करना और न्याय से वंचित लोगों को उनका हक दिलाना है। 1961 में बना एक कानून है जिसे ‘एडवोकेट एक्ट’ कहा जाता है। इसमें इस पवित्र कहे जाने वाले पेशे से जुड़े व्यक्तियों की बाबत नियम हैं। यह एक्ट वकीलों से अपेक्षा करता है कि वे न्यायाधीश से अपने निजी संबंधों का हवाला देकर अपने कलाइन्ट यानी मुवक्किल से धन लेना, यदि किसी मुकदमे में कोई संपत्ति का विवाद हो तो ऐसी संपत्ति को स्वयं खरीदने का काम करना, मुकदमे से जुड़े रिकॉर्ड एवं एवीडेन्स के संग छेड़छाड़ करना, न्यायालय की अवमानना करना आदि कृत्यों से दूर रहेंगे। इसे वकीलों के लिए दुराचरण माना गया है। तीस हजारी कोर्ट में हुई हिंसक घटना के बाद मैंने इस एडवोकेट एक्ट, 1961 को पढ़ा, पढ़कर हंसा, फिर दुखी भी हो गया। कितनी आदर्श व्यवस्था है। संविधान निर्माताओं ने आजाद भारत के लिए ऐसे ही ‘राम राज्य’ की कल्पना की थी। ऐसा संविधान तैयार किया जिसे यदि अमल में लाया जाता तो निश्चित ही हमारा देश ‘सोने की चिड़िया’ इन सत्तर-बहत्तर वर्षों में बन चुका होता। विचलन लेकिन सत्ता भारतीयों के हाथ में आने के साथ ही शुरू हो गया। राम, भगवान राम तक राजनीति के शिकार हो त्याग के स्थान पर भोग, दवा के बजाए रोग बना दिए गए। ऐसे मुल्क में, ऐसे समाज में भला वकीलों से कैसे अपेक्षा की जाए कि वे वकालत को पवित्र पेशा मान आचरण करेंगे? मुझे ‘एडवोकेट एक्ट’, 1961 पढ़ हंसी इसलिए आई क्योंकि मैंने अपने अधिकांश वकील मित्रों को इस एक्ट में बताई गई दुराचरण की परिभाषा में शत-प्रतिशत खरा उतरते देखा है। निचली अदालतों का हाल तो हमारे मुल्क में बेहद दयनीय है। भ्रष्ट्राचार का आलम यह कि वकील साहबान किसी भी प्रकार के मुकदमे में जमानत कराने के लिए अपनी तय फीस से पहले जज साहब की फीस बता डालते हैं।

मुकदमों को मेरिट के बजाए बैंटिग के, जुगाड़ के आधार पर यहां लड़ने की रवायत बन चुकी है। सच, कटु सच यह कि हमारे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक भ्रष्ट्राचार से अछूते नहीं हैं। ऐसे माहौल में, ऐसे समाज में सदाचार की अपेक्षा करना निजी मूर्खता नहीं तो और क्या है? गांधी की 150वीं जयंती मना रहे देश में कानून के दो पहरेदारों में हिंसा इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि हम इन सत्तर- बहत्तर बरसों में एक बेहद भ्रष्ट्र और निकृष्ट समाज में बदल चुके हैं। ऐसा समाज जिसे गांधी की 150वीं जयंती मनाने का कोई अधिकार नहीं है। दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में पुलिस और वकीलों के बीच हिंसा के मूल में समाज में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्ति के साथ-साथ हमारे पुलिस बलों का अमानवीय चरित्र और वकीलों का अपने पेशे से लगातार दुराचरण, दोनों बराबर के दोषी हैं। वकील और पुलिस के बीच ऐसा कोई पहली बार देखने को नहीं मिल रहा है। कानून के ये दोनों रखवाले स्वयं को कानून से ऊपर मानते आए हैं। एक नहीं अनेक ऐसे उदाहरण मैं दे सकता हूं जहां छोटी-छोटी बातों को मुद्दा बना वकीलों ने न केवल हिंसा की, बल्कि अपने को सही साबित करने के लिए हड़ताल का सहारा भी लिया। बगैर इस बात की चिंता किए कि उनके हड़ताल पर चले जाने से आम आदमी को कितनी परेशानी होगी। गूगल में जाकर सर्च कीजिए तो ऐसे घटनाओं पर असंख्य पेज उपलब्ध पायेंगे। हमारी पुलिस भी कमतर नहीं है। आम आदमी को मच्छर से भी बदतर समझने वाली पुलिस का चरित्र आजादी से पहले वाली ब्रिटिश पुलिस से भी ज्यादा बदतर है। थानों में जघन्य अपराध तक की एफआईआर दर्ज नहीं की जाती हैं। अपराधियों को पकड़ने के बजाए उनसे सैटिंग करने में पुलिसकर्मी ज्यादा महत्व देते हैं। इन सत्तर बरसों में हमारी पुलिस फोर्स इतनी भ्रष्ट्र, इतनी निर्मम हो चुकी है कि अपराधी तो छोड़िए, निर्दोष नागरिकों की हत्या कर उसे इन्काउंटर साबित करने तक से बाज नहीं आती। 2005 में ‘दि संडे पोस्ट’ एक समाचार प्रकाश में लाया था। इस समाचार का शीर्षक था ‘गौतमबुद्ध नगर की हत्यारी पुलिस’। त्रासदी देखिए अहिंसा के प्रवर्तक गौतमबुद्ध के नाम पर बने जिले की पुलिस तीन मासूम बच्चों को थाने के लॉकअप में मार डालती है और समाज सोता रहता है। जब हमारे संवाददाता आकाश नागर ने इस घटना की मुझे जानकारी दी थी तो मैंने मानने से इंकार कर दिया था। कारण तब तक मुझे लोकतांत्रिक मूल्यों पर, अपनी पुलिस फोर्स पर और लोकतंत्र के कथित चौथे स्तंभ पर बेहद भरोसा हुआ करता था। मुझे लगा यदि ऐसा कुछ कांड हुआ होता तो निश्चित ही मेरे संगी साथी यानी ग्रेटर नोएडा शहर के पत्रकार बंधु इस पर खासा बवाल काटते। लेकिन मैं गलत और आकाश नागर सही साबित हुए। हमारी खोजी रिपोर्ट से प्रमाणित हुआ कि तीन मासूम, कबाड़ बीनने वाले बच्चों को नशे में धुत एक ‘सुपरकॉप’ की उपाधि पाए पुलिस इन्सपेक्टर ने मार डाला। मुझे यह भी पता चला कि इस खबर की खबर लोकतंत्र के कथित चौथे स्तंभ के कर्णधारों को खूब थी, लेकिन सब खामोश रहे।

लॉकअप में पुलिस द्वारा हत्या का यह कोई अनूठा मामला नहीं था। हमारे पुलिस बलों का यही चरित्र है। अभी कुछ दिनों पूर्व झांसी में उत्तर प्रदेश पुलिस ने पुष्पेंद्र यादव नाम के एक खनन व्यापारी को इन्काउंटर कर ढेर कर दिया। जब इसकी पड़ताल करने आकाश नागर एक ट्रेनी पत्रकार राहुल कुमार के साथ झांसी पहुंचे तो साफ हो गया कि कथित इन्काउंटर पूरी तरह फर्जी है। पुष्पेंद्र यादव एक मामूली खनन व्यवसायी था जिसको पुलिस संग लेन-देन के विवाद चलते अपनी जान गंवानी पड़ी। दुखद यह कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी पुलिस फोर्स के इस दुर्दांत व्यवहार को जायज ठहरा रहे हैं। दिल्ली की तीस हजारी अदालत में हुई वकील-पुलिस हिंसा के पीछे सबसे बड़ा सच हमारे समाज का हिंसक होते जाना है। दोषी चाहे जो भी हो, यह तय है कि हमाम में नंगे सभी हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले में हस्तक्षेप करते हुए पुलिस बल पर कार्यवाही की है। लेकिन वकीलों की गुंडई पर कोई एक्शन नहीं लिया गया है। यही कारण है कि इस घटना के तुरंत बाद दिल्ली की साकेत अदालत में वकीलों ने एक पुलिसकर्मी संग हाथापाई कर डाली। बहुत संभव है कि तीस हजारी मामले में गलती पुलिसकर्मियों की ज्यादा रही हो। उनका चरित्र ही ऐसा है। बर्बर है। लेकिन वकीलों को यह हक किसने दिया कि वे मारपीट पर उतरें? कानून के रखवाले कहे जाने वालों को कानून हाथ में लेने का अधिकार भला किसने दिया? स्पष्ट है इस अराजकता के मूल में इस प्रकार के आचरण पर लगातार पर्दा डालने की परंपरा का होना है। हाईकोर्ट, दिल्ली ने त्वरित कार्यवाही केवल पुलिसकर्मियों के खिलाफ की है, जबकि दोषी वकीलों को चिन्हित कर उन्हें भी हिरासत में लिया जाना चाहिए ताकि इस प्रकार की अराजक स्थिति से भविष्य में बचा जा सके। लेकिन संगठित आतंकवाद जो हमारे वकीलों के पास बजरिए हड़ताल मौजूद है, उसके खौफ चलते एकतरफा कार्यवाही ऐसे सभी मामलों में होती आई है जिसका नतीजा वकीलों का कानून को अपनी जेब में रख आचरण करने का बन चुका है। राम मनोहर लोहिया का कथन याद आ रहा है। साठ के दशक में जब वे संसद पहुंचे तब उन्होंने कहा था कि इस मुल्क की गाड़ी बेतहाशा, अनियंत्रित भाग रही है। यदि समय रहते इस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो इसका एक्सिडेंट होना निश्चित है। लोहिया का कथन सही निकला। अब भले ही सच्चाई से मुंह मोड़ हमारे प्रधानमंत्री उन्नत लोकतंत्र, विकसित राष्ट्र, ट्रिलियन डालर इकोनॉमी का सपना दिखाते रहें, सच मेरी समझ से यही है कि हमारी ट्रेन पटरी से पूरी तरह उतर चुकी है।

इस ट्रेन को वापस टै्रक में लाने की जिम्मेदारी हम सभी की है। समस्या यह कि हम तटस्थ रहने के आदि हो चुके समाज हैं। हमें लगता है कि हमारी सभी समस्याओं के लिए कृष्ण दोबारा धरती पर अवतरित होंगे। यही कारण है हमारी तटस्थता का, हमारी निष्क्रियता का, जिसके चलते बहत्तर वर्षों की यात्रा में हमारे मुल्क की, हमारे समाज की दशा इतनी खराब हो चली है। आज से मात्र दो दशक पहले जब कोई प्रदूषण पर चिंता प्रकट करते हुए कुछ कहता तो हम ध्यान नहीं देते थे, आज ऐसी तमाम आशंकाएं सच साबित होती स्पष्ट नजर आ रही हैं। देश की राजधानी की सांस जहरीली हो चुकी है। कुछ ऐसा ही समाज में फैल चुकी अराजकता का मुद्दा है। यदि समय रहते नहीं चेते तो तय मानिए हम सिविल वार की तरफ बढ़ रहे हैं। वह समय दूर नहीं जब यह आशंका भी हकीकत में तब्दील हो जाएगी।

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