चर्चिल की इस कड़ी आलोचना से व्यथित प्रधानमंत्री एटली ने वायसराय वैवेल को हटाने का निर्णय ले लिया। उनकी नजरों में भारतीयों के हाथों सत्ता सौंपने की कवायद के लिए महारानी विक्टोरिया के रिश्तेदार लॉर्ड लुई माउंटबेंटन सबसे योग्य उम्मीदवार थे। एटली ने अपने इस विचार से माउंटबेंटन को 18 दिसंबर, 1946 के दिन अवगत कराया लेकिन माउंटबेंटन ने इस पर अपनी तत्काल सहमति नहीं दी क्योंकि वे वापस अपनी नौ सेना की ड्यूटी पर लौटना चाहते थे। उन्हें कुछ अर्सा पहले ही ब्रिटिश नौ सेना में रियर एडमिरल-इन-कमांड बनाया गया था। 20 फरवरी, 1947 के दिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने ‘हाउस ऑफ कामंस’ में भारत को आजादी दिए जाने की आधिकारिक घोषणा कर दी। उन्होंने इस सदन में कहा ‘His Majesty’s Government desire to hand over their responsibility to authorities established by a constitution approved by all parties in India…but unfortunately there is no clear prospect that such a constitution…will emerge… His Majesty’s Government wish to make it clear that it is their definite intention to take the nesessary steps to effect the transference of power into responsible Indian hands by a date not later than June 1948…It is therefore essential that all parties should sink their differences in order that they may be ready to shoulder the great responsibilities which will come upon them next year’ (सम्राट की सरकार की इच्छा है कि भारत के सभी दलों द्वारा स्वीकृत संविधान अनुसार भारतीयों को सत्ता सौंप दी जाए….लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसे संविधान की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है।….सम्राट की सरकार यह स्पष्ट कर देना चाहती है कि वह निश्चयपूर्वक जून, 1948 तक भारतीयों के हाथों में सत्ता सौंपने के लिए कटिबद्ध है।…..इसके लिए आवश्यक है कि अपने मतभेद भुलाकर वह इस भारी जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हो जाएं।)
संकट पंजाब और बंगाल को लेकर

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-33
एटली के इस कथन का कांग्रेस और लीग ने अपने- अपने तरीकों से अर्थ निकाला और इसका गर्मजोशी से स्वागत किया। कांग्रेस ने इसकी व्याख्या पाकिस्तान के न बनने से की तो लीग ने माना कि ब्रिटिश सरकार समझ चुकी है कि किसी एक संविधान की बात करना संभव नहीं इसलिए वह पाकिस्तान दिए जाने के विकल्प पर विचार कर रही है। इस घोषणा के तुरंत बाद वायसराय वैवेल को हटा लॉर्ड माउंटबेंटन को भारत का नया और अंतिम वायसराय बना भारत में भेज दिया गया। 24 मार्च, 1947 को माउंटबेंटन ने अपने पद की शपथ ली और इसके साथ ही सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया तेज करने के लिए उन्होंने अपने कदम आगे बढ़ा दिए। कांग्रेस और लीग के नेताओं संग अपनी मुलाकातों के दौरान माउंटबेंटन को स्पष्ट हो गया कि अब बंटवारे को रोक पाना संभव नहीं है। नेहरू और लियाकत अली से मुलाकात के बाद 31 मार्च से 4 अप्रैल के मध्य गांधी संग माउंटबेंटन की बातचीत का दौर नए वायसराय के लिए बड़े आश्चर्य का कारण बना। गांधी ने उन्हें स्पष्ट कर दिया कि वे किसी भी सूरत में बंटवारे के लिए तैयार नहीं हैं। ब्रिटेन भेजी रिपोर्ट में गांधी संग अपनी बातचीत की बाबत माउंटबेंटन ने लिखा कि महात्मा ने प्रस्ताव दिया है कि ‘मिस्टर जिन्ना……को पहले सरकार बनाने का मौका दे दिया जाए।….यदि जिन्ना इसे स्वीकारते हैं तो कांग्रेस उनका भरपूर सहयोग तब तक करेगी जब तक जिन्ना सरकार भारतीयों के हितों के लिए काम करती रहेगी।’ वायसराय गांधी के इस प्रस्ताव सुन हतप्रभ रह गए थे। जब उन्होंने इसकी जानकारी नेहरू को दी तो बकौल स्टेनली वोलपर्ट नेहरू भी सकते में आ गए कि गांधी उनके बजाए सत्ता जिन्ना को सौंपने के लिए तैयार हैं। वोलपर्ट के मुताबिक नेहरू के प्रति अतिरिक्त सद्भाव रखने वाले माउंटबेंटन ने इस प्रस्ताव का जिक्र जिन्ना से कभी नहीं किया। यदि वे ऐसा करते तो बोल सकते हैं कि विभाजन की त्रासदी से भारत को दो-चार न होना पड़ता। ब्रिटेन द्वारा किसी भी सूरत में जून, 1948 तक भारत में सत्ता हस्तांतरण का ऐलान और लॉर्ड माउंटबेंटन के भारत का नया वायसराय बनते ही कांग्रेस और लीग के मध्य इस सत्ता हस्तांतरण को अपने-अपने पक्ष में लागू कराए जाने के लिए दांव-पेंच शुरू हो गए। जिन्ना एक बार फिर से भारतीय संघ के भीतर ऐसी प्रणाली बनाने की बात करने लगे जिसमें हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो स्वतंत्र राष्ट्र हों और संघ भीतर उनकी हैसियत बराबर की हो। माउंटबेंटन संग जिन्न की कई मुलाकातों ने यह स्पष्ट कर दिया कि जिन्ना पाकिस्तान की मांग से पीछे हटने को कतई तैयार नहीं हैं। साथ ही यह बात भी निकल कर आई कि वे पूरा बंटवारा न चाहते हुए एक ऐसे संघ (Union) की कल्पना कर रहे हैं जिसके पास सीमित अधिकार तो हों लेकिन इस संघीय सरकार में लीग और कांग्रेस का दर्जा बराबरी का हो। उस दौर के दस्तावेजों से स्पष्ट नजर आता है कि कांग्रेस किसी भी सूरत में जिन्ना से पिंड छुड़ाने का मन बना चुकी थी। माउंटबेंटन भी लीग और कांग्रेस के साथ अनगिनत वार्ताएं कर समझ चुके थे कि अब किसी संघ के अंतर्गत दो राष्ट्रों की संभावना शून्य है। 10 अप्रैल, 1947 के दिन जिन्ना के साथ तीन घंटे वार्ता करने के पश्चात् माउंटबेंटन ने अपने स्टाफ से कहा ‘Mr. Jinnah is a phycopathic case’ (मिस्टर जिन्ना दिमागी रोग के शिकार लगते हैं)। वायसराय के तमाम प्रयास अधर में लटके हुए थे तो दूसरी तरह देश की सांप्रदायिक स्थिति तेजी से बिगड़ने लगी थी। पंजाब प्रांत पूरी तरह दंगों की चपेट में आ चुका था। अप्रैल माह के भीतर-भीतर लगभग 35,000 नागरिकों की जानें इन दंगों में जा चुकी थीं। कांग्रेस ने वायसराय के सामने स्पष्ट शर्ते रख दी कि यदि बंटवारे की तरफ बातचीत आगे बढ़ती है तो भारत को पूरी तरह से स्वतंत्र राष्ट्र बनाना होगा जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य का कोई दखल कांग्रेस को स्वीकार नहीं होगा। इन वार्ताओं को किसी नतीजे पर न पहुंचते देख अंततः माउंटबेंटन ने भारत और पाकिस्तान, दो स्वतंत्र राष्ट्र, बनाने की दिशा में कदम आगे बढ़ा ही दिए। बातचीत का नया दौर अब इन दो राष्ट्रों की सीमा तय करने के लिए शुरू हो गया। लीग संपूर्ण पंजाब और बंगाल प्रांत पर अपनी दावेदारी करने लगी थी। यहां पर लॉर्ड माउंटबेंटन ने कूटनीति का सहारा लेते हुए जिन्ना और उनके करीबी लीगी नेता लियाकत अली को स्पष्ट और कड़े रूप में समझाने का काम किया कि यदि पंजाब और बंगाल को बांटने के लिए वे तैयार नहीं होते हैं तो उन्हें पाकिस्तान को हमेशा के लिए भूल जाना होगा। 2 जून, 1947 की रात माउंटबेंटन ने जिन्ना संग अपनी मुलाकात के दौरान कहा ‘…If that is your attitude, then the leaders of the Congress party and Sikhs will refuse final acceptance at the meeting in the morning; Chaos will follow and you will loose your Pakistan, probaly for good’ (….अगर आपका यही रवैया रहा तो सुबह होने वाली बैठक में कांग्रेस और सिख योजना पर अपनी मोहर लगाने से इंकार कर देंगे और पाकिस्तान आपके हाथों से हमेशा के लिए निकल जाएगा)। वायसराय की कूटनीति ने असर दिखाया और जिन्ना ने उनके प्रस्ताव पर अपनी हामी भर दी। 3 जून, 1947 की रात विभाजन की औपचारिक घोषणा वायसराय ने कर दी। ऑल इंडिया रेडियो में इस बाबत पहले लॉर्ड माउंटबेंटन बोले और उनके बाद नेहरू, जिन्ना और सिख नेता बलदेव सिंह का भाषण हुआ। जिन्ना इस घोषणा बाद पाकिस्तान तो पा गए लेकिन उनके समर्थकों में अपने कायद-ए-आजम के प्रति भारी आक्रोश फैल गया। नई दिल्ली के पांच सितारा होटल इम्पीरियल में मुस्लिम लीग की आखिरी बैठक 9-10 जून, 1947 को बुलाई गई जिसमें बंगाल और पंजाब प्रांत को पूरी तरह पाकिस्तान को न सौंपे जाने से नाराज उग्रपंथी लीग समर्थकों ने ‘जिन्ना मुर्दाबाद’, ‘जिन्ना को मारो’, ‘हमारे साथ धोखा हुआ’ जैसे नारे लगाने शुरू कर दिए। बहुत से ऐसे कट्टरपंथी तो जिन्ना को जान से मारने तक के लिए होटल में उन्हें तलाशने लगे। पुलिस के हस्तक्षेप से बमुश्किल ‘कायद-ए-आजम’ की जान बचाई जा सकती। ‘पाकिस्तान सिद्धांत’ के जन्मदाता मौलाना रहमत अली ने इसे ‘पूरी कौम के साथ सबसे बड़ी गद्दारी करार दे डाला।’ यह लीग की भारत में आयोजित अंतिम बैठक थी।
अब ब्रिटिश सरकार दो नए बनने जा रहे राष्ट्रों की सीमा निर्धारण के काम में जुट गई। लंदन के ख्याति प्राप्त वकील सर सिरिल रैडक्लिफ की अध्यक्षता में बने आयोग को दोनों राष्ट्रों की सीमा तय करने के लिए मात्र पांच हफ्ते का समय मिला। इस बीच वायसराय लॉर्ड माउंटबेंटन ने ब्रिटेन द्वारा 20 जून, 1948 तक देश छोड़ने की तारीख को 15 अगस्त, 1947 करने का फैसला ले लिया था। सीमा आयोग के साथ-साथ फौज और अन्य संसाधनों के बंटवारे की प्रक्रिया भी तेजी से शुरू कर दी गई। 8 जुलाई, 1947 को सर सिरिल रैडक्लिफ भारत पहुंचे। उन्हें मुख्यतः दो प्रांतों बंगाल और पंजाब के बंटवारे की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। रैडक्लिफ आयोग में अध्यक्ष के अलावा चार अन्य सदस्य नामित किए गए जिनमें से दो सदस्य लीग और दो अलग कांग्रेस से थे। पंजाब और बंगाल के लिए दो आयोग बनाए गए। लीग और कांग्रेस ने दोनों आयोगों के लिए अपने-अपने दो सदस्य नामित किए थे। पाकिस्तान चूंकि एक धर्म विशेष को आधार बना लीग द्वारा मांगा गया था इसलिए माउंटबेंटन से पहले वायसराय रहे लॉर्ड वैवेल संभावित पाकिस्तान के लिए सांकेतिक सीमाएं तय कर चुके थे जिसके अनुसार 92 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाला ब्लूचिस्तान प्रांत, 73 प्रतिशत मुस्लिम बाहुल्य सिंध प्रांत और लगभग 99 प्रतिशत मुस्लिम बाहुल्य नॉर्थ-वेस्ट फंटियर प्रोविंस का पाकिस्तान में शामिल होना तय था। संकट पंजाब और बंगाल को लेकर था। पंजाब में सिख बहुतायत में थे जो किसी भी सूरत में पाकिस्तान में शामिल नहीं होना चाहते थे लेकिन यहां के कुछ हिस्से मुस्लिम बाहुल्य होने के चलते पाकिस्तान के पक्षधर थे। हालात बंगाल में भी ठीक ऐसे ही थे जहां हिंदू और मुस्लिम आबादी बराबरी में थी। रैडक्लिफ इसी मसले का हल तलाशने के लिए नियुक्त किए गए थे। 8 जुलाई, 1947 को भारत पहुंंचे सर सिरिल रैडक्लिफ को मात्र पांच हफ्ते का समय एक ऐसे विशाल भूभाग को धर्म के आधार पर बांटने का मिला जिसकी भौगोलिक और राजनीतिक स्थितियों से वे पूरी तरह अजनबी थे। उनकी भारत आमद के ठीक दस दिन बाद ब्रिटेन की संसद ने भारतीय स्वतंत्रता का अधिनियम, 1947 पारित करते हुए दो सार्वभौम राष्ट्र बनाने की राह प्रशस्त कर दी। इसमें 28 जून, 1948 के बजाए 15 अगस्त, 1947 के दिन इन दो राष्ट्रों के निर्माण अर्थात् बंटवारे की बात कही गई। इसमें कहा गया कि सिंध प्रांत एवं ब्लूचिस्तान पूरी तरह पाकिस्तान का हिस्सा बनेंगे। बंगाल और पंजाब का बंटवारा होगा। असम भारत में रहेगा लेकिन उसके मुस्लिम बाहुल्य जिले सिलहर में रायशुमारी करा तय किया जाएगा कि वह किसके हिस्से में आएगा। ब्रिटेन के सम्राट नए राष्ट्रों की सरकार से सलाह कर कुछ अर्से के लिए दोनों राष्ट्रों में अपने प्रतिनिधि बतौर एक-एक गर्वनर जनरल की नियुक्ति करेंगे जिसका कार्य मुख्यतः इस अधिनियम को सुचारू रूप से लागू करना होगा। साथ ही इस एक्ट में सेना, नौकरशाही एवं परिसंपत्तियों के बंटवारे को लेकर स्पष्ट व्याख्या की गई।
क्रमशः