चिमामांडा न्गोज़ी अदिची (Chimamnda Nagozi Adichie) पश्चिम अफ्रीकी देश नाइजीरिया की एक मशहूर लेखिका और नारीवादी संघर्ष के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान स्थापित कर चुकी ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें अफ्रीकी साहित्य से नई पीढ़ी को जोड़ने का श्रेय दिया जाता है। अदिची का एक कथन मुझे आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे डॉ कुमार विश्वास के चलते याद हो आया है। वे कहती हैं ‘You can have ambition but not too much. You should aim to be successful but not too successful. Otherwise you will threaten the man’ (आप महत्वाकांक्षी हो सकते हैं लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। आप सफलता पाने का लक्ष्य रख सकते हैं लेकिन बहुत ज्यादा सफलता का नहीं। अन्यथा आप मनुष्य के लिए खतरा बन जाएंगे)। डॉ कुमार विश्वास ने कुछ दिन हुए एक न्यूज एजेंसी को एक बयान दे भारी सनसनी मचाने का प्रयास किया। इस बयान में उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर खालिस्तानी समर्थक होने का आरोप लगा डाला। बकौल कुमार विश्वास ‘पंजाब एक राज्य नहीं बल्कि एक भावना है। ऐसे में एक आदमी ने पिछले चुनाव में अलगाववादियों और खालिस्तानी समर्थकों का समर्थन लिया था, जिसके लिए मैंने मना भी किया था, लेकिन आज भी वो अपने विचार पर कायम हैं, वो आदमी सत्ता के लिए कुछ भी कर सकता है, उसे सिर्फ सत्ता चाहिए।’
‘जनविश्वास’ तोड़ने के अपराधी

कुमार ने यह बयान 16 फरवरी के दिन जारी किया यानी पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग से चार दिन पहले। अपने इस बयान में कुमार ने कहा कि अरविंद केजरीवाल पिछले चुनाव में किसी भी कीमत पर पंजाब का मुख्यमंत्री बनना चाह रहे थे। पंजाब में पिछले विधानसभा चुनाव 2017 में हुआ था। कुमार ने पूरे पांच बरस तक केजरीवाल की बाबत, विशेषकर इस आरोप की बाबत चुप्पी साधे रखी और ऐसे समय में बोल उठे जब तमाम चुनावी सर्वेक्षण आम आदमी पार्टी की पंजाब में जीत का दावा कर रहे हैं। कुमार ने अपनी ‘राष्ट्रभक्ति’ और अरविंद केजरीवाल की ‘राष्ट्रद्रोही’ प्रवृत्ति पर बोलने के लिए जो वक्त चुना, वह उनके बयान को अविश्वसनीय और उन्हें ‘अविश्वासी’ चरित्र का प्रमाणित करता मुझे नजर और समझ आता है। साथ ही यह उनकी अरविंद केजरीवाल संग उस अदावत से भी जुड़ता है जिसके चलते आम आदमी पार्टी ने उन्हें राज्यसभा के लिए अपना उम्मीदवार नहीं बनाया था। चलिए इसे जरा विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं ताकि समझा जा सके कि अति महत्वाकांक्षा के चलते किस प्रकार एक जन आंदोलन की असमय मृत्यु हो गई, किस प्रकार इस आंदोलन से जुड़े कुछ अतिमहत्वाकांक्षी आंदोलनकारियों ने राजनीति में इंट्री ली, किस प्रकार उनमें हर कीमत पर सत्ता पाने की भूख बलवती हुई और किस प्रकार इस भूख ने खुद उनके भीतर एक-दूसरे के प्रति अविश्वास जन्मा जिसकी परिणति का एक रूप कुमार विश्वास का ताजातरीन बयान है जो कुछ अर्से के लिए मीडिया की सुर्खियां बना है।
हालिया इतिहास है इसलिए भी पूरी तरह हमारे मन-मस्तिष्क से विलुप्त नहीं हुआ होगा। 2011 में अन्ना हजार के नेतृत्व में एक बड़ा जन आंदोलन शुरू हुआ था। आंदोलनकारियों की मांग थी कि देश में सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त किया जाए। इसके लिए उन्होंने जन लोकपाल नामक संस्था के गठन किए जाने का प्रस्ताव सरकार और जनता के सामने रखा। इस आंदोलन को देशभर में व्यापक जनसमर्थ न मिला। यहां तक कि देशप्रेम से ओत-प्रोत युवा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अपनी नौकरी छोड़ इस आंदोलन में शामिल हो गए। आंदोलन की सफलता का श्रेय समाज सेवी अन्ना हजार के साथ-साथ उनकी कोर टीम को मिला। इस कोर टीम में शामिल थे अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास, संजय सिंह समेत कई ऐसे चेहरे जो 2012 आते-आते आंदोलन के जरिए राजनीति में प्रवेश करने के लिए लालायित हो उठे।
अन्ना हजारे इसके लिए तैयार न थे। नतीजा रहा आंदोलन का बगैर किसी सार्थक नतीजे तक पहुंचे समाप्त होना और केजरीवाल के नेतृत्व में 26 नवंबर, 2012 के दिन आम आदमी पार्टी का अस्तित्व में आना। राजनीति में शुचिता की बहाली के वायदे संग यह पार्टी 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में उतरी और 28 सीटें जीत इतिहास रचने में सफल रही। दिल्ली की जनता ने 15 बरस से सत्ता पर काबिज कांग्रेस को पूरी तरह नकार दिया। भाजपा इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी (31 सीटों को जीत) उभरी जरूर लेकिन बहुमत का आंकड़ा छू पाने में विफल होने के चलते सरकार न बना सकी। सत्ता पाने के लिए नवगठित पार्टी ने पहला समझौता तब करते हुए 8 सदस्यों वाली कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बना डाली। केजरीवाल लेकिन तब तक समझौतावादी प्रवृत्ति की जकड़ में पूरी तरह नहीं आए थे। नतीजा मात्र 49 दिनों के बाद उनके इस्तीफे के रूप में सामने आया। 2014 में आम चुनाव हुए, जिनमें नरेंद्र मोदी का करिश्माई नेतृत्व भाजपा की केंद्र में सत्ता पाने का कारण बना। इन चुनावों के नतीजे दिल्ली में आप के लिए बेहद निराशाजनक रहे। प्रदेश की सातों लोकसभा सीटें भाजपा के खाते में चली गई। केजरीवाल के इस्तीफे के बाद से ही दिल्ली में राष्ट्रपति शासन रहा था। 7 फरवरी 2015 को एक बार फिर राज्य विधानसभा के लिए चुनाव हुए। 10 फरवरी के दिन आए नतीजों ने सबको हैरत में डाल दिया। 70 में से 67 सीटों पर आप के प्रत्याशी जीत गए थे। 10 फरवरी को ही डॉ ़कुमार विश्वास का जन्मदिन होता है। रात कुमार के घर जश्न मना। आप के सभी नेता और विधायक इस जश्न में शामिल थे। अन्ना आंदोलन के समय से ही मेरा टीम अन्ना, बाद में टीम अरविंद संग गहरा नाता बन चुका था। कुमार उससे कहीं पहले से मेरे मित्र रहे हैं। इस जश्न में मैं भी शामिल हुआ। यहां तक की यात्रा में कुमार और अरविंद के रिश्तों को मधुर कहा जा सकता है। प्रचंड बहुमत की सरकार बनने के बाद सत्ता का आंतरिक संघर्ष आप भीतर गहराने लगा। अरविंद और कुमार के रिश्तों में तल्खी खासी तेज होती चली गई। हालांकि रिश्ते इन दोनों के मध्य बेहद सौहार्दपूर्ण कभी नहीं रहे थे। 2013 में पहली आप सरकार के गठन, सरकार के मात्र 49 दिनों में गिरने से लेकर 10 फरवरी 2015 तक कई घटनाएं ऐसी होते मैंने देखी जिनकी बिना पर मैं कह सकता हूं कि केजरीवाल कुमार विश्वास को खास पसंद नहीं करते थे। यह नापसंदगी 2015 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद अनेकों कारणों के चलते बढ़ती चली गई। जिसका एक बड़ा नुकसान कुमार विश्वास को पार्टी द्वारा राज्यसभा के लिए न भेजा जाना रहा। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी से कुमार विश्वास का ‘विश्वास’ तभी से पूरी तरह दरकना शुरू हो गया। 3, जनवरी 2018 को आप ने राज्यसभा के लिए तीन नामों की घोषणा कर सभी को हैरत में डालने का काम किया। संजय सिंह, एनडी गुप्ता और सुशील गुप्ता को पार्टी ने राज्यसभा भेजने की घोषणा की। इसमें से अकेले संजय सिंह ऐसे थे जो अन्ना आंदोलन के समय से ही अपनी जुझारू छवि चलते राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो चुके थे। बाकी दो को न तो तब कोई पहचानता था, न हीं आज। मीडिया की सुर्खियों में तब इन तीन सीटों के लिए तीन नाम, कुमार विश्वास और आशुतोष कहा करते थे। इनमें से एक तो राज्यसभा पहुंच गए। बाकी दो अरविंद केजरीवाल ने डंप कर डाले। इसके बाद से ही कुमार विश्वास का आप संग नाता पूरी तरह टूट गया। मैं जहां तक अपने इन पुराने साथियों को समझ पाया हूं उसके आधार पर निःसंकोच कह सकता हूं कि इनके मध्य लड़ाई सिद्धांतों की नहीं, बल्कि निजी महत्वाकांक्षाओं की रही है। कुमार विश्वास आज खुद के राष्ट्रभक्त होने का प्रमाण पत्र खुद ही जारी कर रहे हैं। वे केजरीवाल पर गंभीर आरोप लगा रहे हैं। चुनावी समय में इन आरोपों के पीछे का सच समझ पाना कठिन नहीं। यदि कुमार को राज्यसभा का लालसा नहीं होती (ऐसा दावा वे गाहे-बगाहे करते रहते हैं) और यदि केजरीवाल के खालिस्तानियों संग बढ़ती कथित नजदीकी से सही में वे चिंतित, पीड़ित और व्यथित हुए होते तो 2017 में ही उन्होंने इसका इजहार कर दिया होता। लेकिन तब राष्ट्रभक्ति पर राज्यसभा भारी पड़ गई। कुमार को अंतिम समय तक ‘विश्वास’ था कि पार्टी उन्हें राज्यसभा जरूर भेजेगी। मेरी समझ से संजय सिंह, कुमार और आशुतोष इसके सही हकदार भी थे। केजरीवाल ने लेकिन एनडी गुप्ता और सुशील गुप्ता को राज्यसभा के योग्य समझा। संजय सिंह तो मजबूरीवश केजरीवाल को राज्यसभा भेजने पड़े थे। प्रश्न लेकिन राज्यसभा जाने अथवा न जाने का नहीं है। प्रश्न जन आंदोलन के गर्भ से निकले इन आंदोलनकारियों की नैतिकता का है। पहले अन्ना हजारे को इन सभी ने मिलकर डंप किया। फिर जिस मूल्य आधारित राजनीति को आधार बना सत्ता में आए, उन मूल्यों को कहीं गहरे दफन कर सत्ता में बने रहने की महारथ हासिल करने में जुट गए। आज आम आदमी पार्टी हर कीमत में सत्ता पाने को लोलुप ऐसों का जमघट मात्र बनकर रह गई है जिस जमघट की पहले से भारतीय राजनीति में कमी नहीं है। कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, द्रमुक, अन्ना द्रमुक, राकांपा, जद, तृणमूल आदि इसी जमघट के तो अलग-अलग नाम हैं। रही बात डॉ ़कुमार विश्वास की तो उनके ताजातरीन वक्तव्यों ने मेरी धारणा को पुष्ट कर डाला है कि ज्यादा महत्वाकांक्षा मनुष्य के चरित्र का ह्रास तो करती ही है, वह उसे विवेकहीन और झूठा तक बना डालती है।