पांच राज्यों में चल रहे चुनावों का नतीजा 10 मार्च को आएगा। 10 मार्च के बाद ही शुरू होगा तमाम प्रकार के विश्लेषणों का दौर। यदि कांग्रेस इन पांच राज्यों में से एक पंजाब में अपनी सत्ता बचा पाई और उत्तराखण्ड तथा गोवा में वापसी कर पाई तब विश्लेषणों का फोकस कांग्रेस की आंतरिक कमजोरियों के बजाए मोदी के कम होते करिश्में पर जा टिकेगा। कुछ ऐसा ही उत्तर प्रदेश के नतीजे भी तय करेंगे। यदि उत्तर प्रदेश की सत्ता से भाजपा बेदखल हुई तो मोदी-योगी युग के समाप्त होने और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के मजबूत होने की बातें सर्वत्र सुनाई देंगी। और ऐसा यदि नहीं हुआ तो ‘मोदी विजन’ का महिमामंडन किया जाएगा। दोनों की स्थितियों में चुनाव नतीजों के असल कारणों पर गंभीर विमर्श न होना तय है। खासकर मुख्यधारा के मीडिया में। तो चलिए चुनाव नतीजों की परवाह किए बगैर कुछ खरी-खरी बात इन असल कारणों पर की जाए।
कांग्रेस की ऐतिहासिक भूलें

हमारी मुख्य ताकत है हमारी विविधता और हमारी भिन्नता। कभी आपने गौर किया इस पर? हम पूरे विश्व में अकेले ऐसे हैं जहां इतनी विविधता है। अनेक धर्म, अनेक भाषाएं, अनेक जातियां, फिर भी पिछले 74 बरसों से हम एक हैं। यही हमारा असल राष्ट्रवाद है, हमारी राष्ट्रीयता है। किसी भी अखिल भारतीय राजनीतिक दल में इस भिन्नता से ऊपर उठकर इन सबको अपने में समाहित करने की प्रवृत्ति और शक्ति का होना जरूरी है। कांग्रेस के पास यह शक्ति थी जिसे उसके नेताओं की छोटी सोच और सत्ता के लालच ने समाप्त कर डाला। 74 सालों के दौरान कांग्रेस का पतन होता चला गया और आज उसके पास इस राष्ट्रीयता को बचाए और बनाए रखने के लिए कोई विजन नहीं है। कांग्रेस ने अपनी गलतियों से न तो कभी सबक लिया और न ही राहुल गांधी के नेतृत्व वाली ‘शेष’ कांग्रेस ऐसा करती नजर आ रही है। उसकी यही कमजोरी दक्षिणपंथी सोच वाली भाजपा की असल ताकत है। वह खुलकर हिंदुत्व का कार्ड खेल रही है। उत्तर प्रदेश में उसने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा है क्योंकि उसे मुस्लिम मत चाहिए ही नहीं। उसका खेल बहुसंख्यक वोटर को अपनी तरफ आकर्षित करने का है। जब तक भाजपा ने खुद को नरम दल बना पेश किया वह भले ही कुछेक राज्यों और एक दफे केंद्र की सत्ता में काबिज हुई हो, ऐसी नहीं चमकी जैसा मोदी युग में देखने को मिल रहा है। दूसरी तरफ कांग्रेस ने अपने सिद्धांतों से समझौता कर अपना बेड़ा गर्क कर डाला है। राजीव गांधी के दौर में कांग्रेस ने एक के बाद एक ऐतिहासिक गलतियां की जिसका खामियाजा भुगतते-भुगतते आज वह अपने चरम दुर्दशा काल में पहुंच चुकी है। होना तो यह चाहिए था कि साम्प्रदायिकता से वह खुलकर मोर्चा लेती। हुआ ठीक उलट। 1980 में सत्ता वापसी के बाद इंदिरा गांधी ने सिखों को खुद के खिलाफ जाते देता तो वह हिंदुओं को लुभाने की राजनीति करने लगीं। कश्मीर में उन्होंने मुसलमान वर्सेज हिंदू कर डाला। राजीव गांधी ने एक कदम आगे बढ़कर मुस्लिम कट्टरपंथियों और हिंदू उग्रपंथियों को एक साथ साधने की जो रणनीति बनाई उससे मुस्लिम भी कांग्रेस से दूर हुआ और राम मंदिर के बहाने भाजपा ने अपना खेल जमकर खेल डाला। अस्सी और नब्बे के दशकों में कांग्रेस का दोहरा चरित्र आज की जीर्ण-शीर्ण कांग्रेस का असल जिम्मेदार है। याद कीजिए कैसे राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों का साथ दिया और राम मंदिर का ताला खोल हिंदुओं को पुचकारने की ऐतिहासिक गलती करी थी। नरसिम्हा राव ने एक कदम आगे बढ़कर बाबरी मस्जिद के ध्वंस के दौरान निष्क्रिय रह कांग्रेस की बची-खुची साख का भी डूबोने का काम कर डाला। नरसिम्हा राव ने न केवल कांग्रेस के सबसे बड़े गुण धर्मनिरपेक्षता का भट्ठा बैठाया बल्कि उसके सामाजिक न्याय की भी रीड़ तोड़ने का काम किया। भाजपा के साथ-साथ कई क्षेत्रीय ताकतों का उदय इसी दौर में कांग्रेस की कीमत पर होते हम सबने देखा है। कांग्रेस की एक बड़ी दुर्बलता साम्प्रदायिकता संग समझौते के साथ-साथ जातिवाद संग मेल-जोल बढ़ाना भी रही। उत्तर प्रदेश और बिहार में आज कांग्रेस की दुर्दशा के लिए उसका यही मेल-जोल जिम्मेदार है। इन दोनों ही राज्यों में कभी कांग्रेस की तूती बोला करती थी। जब जातिवाद की राजनीति परवान चढ़ने लगी तो एक बार फिर से कांग्रेस ने समझौता परस्त राजनीति का सहारा लिया। होना तो यह चाहिए था कि वह इस बीमारी से लड़ती। डटकर इसका मुकाबला करती। किया उसने ठीक उलट। नतीजा इस समझौता परस्ती के कारण आज वह इन दोनों ही राज्यों में समाप्त हो चली है। दलित समाज में कांग्रेस की जबरदस्त पैठ थी। इस पैठ में सेंधमारी हुई और यह समाज कांशीराम के संग हो लिया। ब्राह्मण और राजपूत राम मंदिर के नाम पर भाजपा ने लपक लिए। बचे मुस्लिम तो बाबरी मस्जिद विध्वंस के चलते उनका भी कांग्रेस से मोहभंग हुआ। उत्तर प्रदेश में वे समाजवादी के बगलगीर हो गए और बिहार में लालू प्रसाद यादव के। आज हालात कांग्रेस के लिए इतने विकट हैं कि समाज का कोई भी तबका उसके साथ खड़ा नजर नहीं आ रहा है। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों बाद जब जनता के मन-मिजाज को टटोलने का काम राजनीतिक विश्लेषक करेंगे तब सतही बातों पर ज्यादा फोकस रहना तय है। यदि भाजपा का सितारा बुलंद रहा तो मोदी मैजिक हेडलाइन बनेगा, एक के बाद एक ‘विशेषज्ञ’ इस पर अपना ज्ञान उड़ेलेंगे और यदि इसके विपरीत हुआ तो भाजपा जन अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाई की सर्वत्र चर्चा होगी। असल विश्लेषण इस सबके बीच कहीं खो जाएगा। असल मुद्दा है धर्म और जाति। इन पांचों राज्यों में राजनीतिक दृष्टि से सबके महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश है। उत्तर प्रदेश में यदि सत्ता परिवर्तन हुआ तो भी अन्यथा यदि समाजवादी पार्टी मजबूत विपक्ष के रूप में उभरी तब भी, असल कारण मोदी-योगी राज का जन अपेक्षाओं में खरा न उतरना नहीं बल्कि धर्म और जाति समीकरण होंगे। योगी मुस्लिम मतदाता के प्रति बेपरवाह हैं इसलिए इस मतदाता का सपा के खेमे में जाना समझ में आता है। हिंदू लेकिन यदि भाजपा के खिलाफ जाता है तो इसका क्या कारण बीते पांच वर्षों में केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार की विफलताएं मात्र हैं? मैं समझता हूं इन विफलताओं के साथ-साथ एक बड़ा फैक्टर क्षत्रिय जाति को छोड़ अन्य जातियों का योगी राज में खुद को उपेक्षित, अपमानित और प्रताड़ित महसूस करना है। उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा राजनीति को प्रभावित करने वाला कारक जाति है। जो भाजपा का कोर भक्त वोट बैंक है यानी हिंदू उसे बड़ी नाराजगी है कि योगी राज में उसके साथ मान-सम्मान का व्यवहार नहीं हुआ। इसे आप स्वामी प्रसाद मौर्या, ओम प्रकाश राजभर आदि के उदाहरण से समझ सकते हैं। आप इसे उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या के जरिए भी समझ सकते हैं। याद करिए उन तस्वीरों को जिसमें प्रदेश सरकार का नंबर दो मंत्री एक प्लास्टिक की कुर्सी में, मंच के कोने में बैठा नजर आता है और मुख्यमंत्री एक विशाल गेहरुएं सिंहासन में। ये तस्वीरें पिछड़ी जाति के भक्त वोटर को खासी तकलीफ देती हैं। किसान नेता राकेश टिकैत का रोना याद कीजिए। मोदी सरकार ने किसान आंदोलन को जनवरी 2021 में ही ठिकाने लगा डाला था। 28 जनवरी को टिकैत का रोना लेकिन पूरी जाट बिरादरी को आंदोलित कर गया और किसान आंदोलन में फिर से प्राण आ गए। 2017 के लोकसभा चुनाव में जो जाट पूरी मजबूती से भाजपा के साथ खड़ा था, वही आज उससे कोसों दूर जा पहुंचा है। मोदी-शाह वाली भाजपा ने गजब कर डाला है। जिस अल्पसंख्यक वोट बैंक को रिझाने के लिए राजनीतिक दल तृष्टीकरण का सहारा लेते थे, वे सभी आज खुलकर इस वर्ग का साथ लेने से बच रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कभी समाजवादी ‘एमवाई’ कार्ड के सहारे अपनी राजनीति करती थी। इन चुनावों में अखिलेश इस ‘एमवाई’ गठजोड़ के ‘एम’ यानी मुसलमान का साथ तो चाह रहे हैं लेकिन फोकस उनका बहुसंख्यक हिंदू को भाजपा से तोड़ने पर बना हुआ है जिसके चलते वे इस ‘एम’ फैक्टर से दूरी बनाए हुए हैं। नतीजा ओवैसी सरीखे कट्टरपंथियों की बन आई है। खुद को उपेक्षित देख अपमानित हो रहा यह ‘एम’ फैक्टर औवेसी के पीछे खड़ा होने को मजबूर हो चला है।
धर्म और जाति की यह राजनीति किसकी देन है? शत-प्रतिशत कांग्रेस की। यदि वह अपने मूल्यों संग समझौता न करती तो आज देश की राजनीति इस कदर, इतनी प्रदूषित न होती। उसकी भूलों का नतीजा ही तो है कि आज राहुल, प्रियंका, अखिलेश, अरविंद समेत सभी गैर दक्षिपंथी खुद को हिंदु साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे। इन्हीं भूलों का नतीजा है कि हमारी राष्ट्रीयता की सबसे बड़ी कसौटी, सबसे बड़ी ताकत हमारी गंगा जमुनी संस्कृति दम तोड़ चुकी है और एक बार फिर से हम धर्म और जाति की गोलबंदी के कैदी हो चले हैं।