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Editorial

कांग्रेस का अहंकार बना विभाजन की बुनियाद

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-20

 

भारत सरकार अधिनियम 1935 के लागू होने के तुरंत बाद ब्रिटिश भारत में प्रादेशिक सरकारों के गठन के लिए चुनाव कराए गए। ग्यारह प्रांतों-मद्रास, केंद्रित प्रांत, बिहार, उड़िसा, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे प्रेसिडेंसी, असम, नॉर्थ-वेस्ट फ्रन्टियर प्रांत, बंगाल, पंजाब और सिंध के लिए 1936 के अंत में यह चुनाव हुए जिनका नतीजा फरवरी 1937 में घोषित किया गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को आठ प्रांतों में बहुमत मिला। पंजाब और सिंध में कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा था। इन दोनों ही प्रांतों में मुस्लिम लीग का भी प्रदर्शन बेहद खराब रहा था। सभी ग्यारह प्रांतों के लिए 1585 सीटों पर हुए चुनाव में कांग्रेस को 707 सीटें मिली तो मुस्लिम लीग मात्र 118 सीटों में जीत दर्ज करा पाई। मुस्लिमों के लिए आरक्षित 482 सीटों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा था। इन 482 सीटों में से उसने कुल 58 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिसमें से मात्र 26 सीटों पर उसे सफलता मिली। मुस्लिम लीग के लिए भी इन 482 सीटों पर नतीजा खास नहीं रहा। वह मात्र 25 प्रतिशत (120 सीट) पर ही सफल रही थी। इन नतीजों ने स्पष्ट कर दिया कि न तो कांग्रेस और न ही मुस्लिम लीग पूरी तरह से अल्पसंख्यक मुसलमानों का विश्वास हासिल कर पाई। ज्यादातर मुस्लिम सीटों पर प्रांतीय दलों के प्रत्याशियों ने जीत दर्ज करा जिन्ना और मुस्लिम लीग को भारी आघात पहुंचाने का काम कर दिखाया। कांग्रेस को सबसे बड़ी सफलता संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में मिली। यहां की कुल 228 सीटों में से कांग्रेस ने 138 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे जिनमें से 133 ने जीत हासिल कर कांग्रेस को यहां पूर्ण बहुमत दिला दिया। मुस्लिम लीग का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा था। उसे मात्र 29 सीटों पर विजय मिली। कुल मिलाकर कांग्रेस को पांच प्रांतों में स्पष्ट बहुमत मिला। बॉम्बे प्रेसिडेंसी में वह बहुमत के करीब पहुंची और असम, बंगाल तथा नॉर्थ-वेस्ट फ्रन्टियर प्रांत में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि यदि इन चुनावों में मिली सफलता के बाद कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) और बॉम्बे प्रेसिडेंसी (अब महाराष्ट्र) में सरकार का गठन किया होता तो 1947 के विभाजन की विभीषिका से बचा जा सकता था। मोहम्मद अली जिन्ना का कांग्रेस और हिंदू-मुस्लिम एकता से असल मोहभंग इन चुनावों बाद हुआ। जिन्ना चाहते थे कि संयुक्त प्रांत और बॉम्बे प्रेसिडेंसी में कांग्रेस और लीग मिलकर गठबंधन सरकार बनाए। जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल इसके पक्ष में नहीं थे। उन्होंने गठबंधन सरकार बनाने के लिए एक ऐसी शर्त जिन्ना के समक्ष रख दी जिसे मान पाना मुस्लिम लीग के लिए खुद के पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा था। सरदार वल्लभ भाई पटेल बॉम्बे प्रसिडेंसी में संयुक्त सरकार बनाने के पक्ष में इस शर्त पर राजी थे कि मुस्लिम लीग के सदस्यों को कांग्रेस पार्टी में शामिल होना होगा। ठीक इसी प्रकार की शर्त कांग्रेस ने संयुक्त प्रांत में गठबंधन सरकार बनाने के लिए लीग के सामने रख दी। इतना ही नहीं नेहरू ने अपने विशवस्त सलाहकार और वरिष्ठ कांग्रेस नेता रफी अहमद किदवई के जरिए मुस्लिम लीग के चुने गए प्रतिनिधियों को कांग्रेस में शामिल कराने के प्रयास शुरू कर दिए। वरिष्ठ पत्रकार दुर्गादास जिन्होंने इस पूरे दौर को बतौर पत्रकार नजदीक से देखा और समझा, अपनी पुस्तक ‘India from Curzon to Nehru and After’ में लिखते हैं ‘The oppurtunity for a Congress -League entente was thrown to the winds. Rafi made matters worse by encouraging defections from the ranks of League. (This was an evil precedent, as the defection-ridden politics of the late sixties was to show.) The Congress ministry was formed and the League assumed the role of a militant opposition in combination with the party of landlords’ (कांग्रेस और लीग की मिली-जुली सरकार बनाने का अवसर गंवा दिया गया। रफी ने लीग के नेताओं को कांग्रेस में दल-बदल करने के प्रयास कर पूरे मामले को और खराब कर डाला (यह एक खराब परंपरा की शुरुआत थी जिसने आगे चलकर साठ के दशक में दल-बदल की राजनीति को बढ़ावा दिया) कांग्रेस की सरकारें प्रांतों में बन गईं और मुस्लिम लीग अन्य सामंतवादी दलों के साथ एक आक्रामक विपक्ष की भूमिका में आ गया)। नेहरू और पटेल ने जिन्ना के समक्ष ऐसी शर्त रख दी जिसे स्वीकार कर पाना असंभव था। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद अपनी जीवनी श्प्दकपं ूपदे तिममकवउश् में कांग्रेस की इस भूल को कुछ यूं रेखांकित करते हैं-‘Jawahar lal is one of my dearest friends and his contribution to india’s national life is second to none . I have nevertheless to say with regret that this was not the first time that he did immense harm to the national cause. He had committed an almost equal blunder in 1937 when the first elections were held under Government of india Act, 1935. In these elections, the muslim league had suffered a great set back through out the country except in Bombay…if the league’s offer of cooperation had been accepted, the muslim league party would for all practical purpose merge with the congress’ (जवाहर लाल मेरे अभिन्न मित्र हैं और देश के लिए उनका योगदान किसी से कम नहीं है। किंतु मैं खेद के साथ कहना चाहता हूं कि यह पहली बार नहीं जब उन्होंने राष्ट्रीय हित के साथ भारी आघात किया हो। उन्होंने ऐसी ही एक महाभूल 1937 में प्रांतीय सरकारों के लिए हुए चुनावों बाद की थी।…यदि तब लीग के प्रस्ताव को कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया होता तो निश्चित ही लीग का विलय हर तरीके से कांग्रेस संग हो जाता)।


इन चुनावों से पहले तब जिन्ना के मन में हिंदू- मुस्लिम एकता का भाव बना हुआ था। 28 अप्रैल, 1936 के दिन दिए जिन्ना के एक वक्तव्य से इसकी पुष्टि होती है। उन्होंने कहा था ‘while Muslims are therfore justified in putting their own affairs in order and in organizing the mselves, it doesnot mean that, they should not stand as firmly by the national interests. In fact, they should prove that their patriotism is un sullied and that their love for India and her progress in no less than any other community in the country (मुसलमानों द्वारा अपने मुद्दों के लिए संगठित होना पूरी तरह जायज है, लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वे राष्ट्रीय हितों के मसलों संग मजबूती से नहीं खड़े हों। असल में उन्हें तो प्रमाणित करना चाहिए कि उनकी देशभक्ति और भारत के लिए उनकी मोहब्बत, किसी भी अन्य कौम से कमतर नहीं है) प्रांतीय चुनावों के लिए जनसमर्थन हासिल करने कश्मीर गए जिन्ना का श्रीनगर में दिया एक भाषण इस दृष्टि से खासा महत्वपूर्ण है कि जिन्ना बहुसंख्यक हिंदुओं संग मिलकर काम करना चाहते थे, उनकी शर्त या इच्छा मात्र इतनी थी कि अल्पसंख्यकों का भरोसा जीतने के लिए पहल बहुसंख्यक को करनी होगी। 9 जून, 1931 को श्रीनगर में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए कहा’I say from the bottom of my heart that I have worked for it and that I will continue to work for it. I believe that without this unity there is no hope for Biritish Indians to rule India. I do not understand your problems here. I, there fore, won’t hazard my opinion. But I will, however, urge one thing upon you and the leaders that to make the minorities- Hindus-always feel that they will receive justice and fair play in the state. it is the duty of the majority to make them feel so. I have tried this principle in British India and have not succeeded in convincing some of the leaders that their is no hope for their freedom without this principle being adopted. I will say that without minorities feeling that there will be fair play on the part of the majority, you will always have a sour festering in your body politic  (मैं अपने हृदयबल से यह कहना चाहता हूं कि मैंने हमेशा इस एकता के लिए काम किया है और करता रहूंगा। मेरा मानना है कि इस एकता के बगैर ब्रिटिश भारत के नागरिक भारत पर कभी अपना राज स्थापित नहीं कर पाएंगे। मैं आपकी समस्याएं (कश्मीरियों की) नहीं जानता हूं इसलिए उन पर टिप्पणी नहीं करूंगा लेकिन मैं आप सबसे प्रार्थना करता हूं कि यहां के अल्पसंख्यकों-हिंदुओं को भरोसा दिलाएं कि उनके साथ हमेशा इस राज्य में न्याय होगा। यह बहुसंख्यकों का कर्त्तव्य है कि वह अल्पसंख्यकों का भरोसा जीते। मैंने इस सिद्धांत को ब्रिटिश भारत में लागू करने का भरकस प्रयास किया है लेकिन मैं कुछ नेताओं को समझा पाने में विफल रहा हूं कि बगैर इस सिद्धांत का पालन किए आजादी की कल्पना करना व्यर्थ है। मैं कहना चाहता हूं कि अल्पसंख्यकों को जब तक यह विश्वास नहीं होगा कि उनके साथ बहुसंख्यक न्याय सम्मत व्यवहार करेंगे, हमारी राजनीतिक व्यवस्था में यह एक घाव (नासूर) के समान पनपता रहेगा)।


हिंदू-मुस्लिम एकता की पुरजोर वकालत करने वाले इस राजनेता का प्रांतीय सभाओं के चुनाव बाद कांग्रेस से पूरी तरह मोहभंग होना उनके एक कट्टरपंथी मुस्लिम नेता में तब्दील होने की शुरुआत भर थी। कांग्रेस ने ग्यारह में से आठ प्रांतों में अपनी सरकार बना डाली। मुस्लिम लीग किसी भी प्रांत में सरकार का हिस्सा न बन सकी। इससे खिन्न और उत्तेजित जिन्ना ने मुस्लिम लीग के लखनऊ में 1937 में हुए वार्षिक अधिवेशन में कांग्रेस संग पूरी तरह अपना नाता तोड़ने की बात कही थी। यह वही अधिवेशन था जिसमें पहली बार जिन्ना को ‘कायद-ए-आजम’ कह पुकारा गया जिसका शाब्दिक अर्थ है मुसलमानों का महान नेता। इस अधिवेशन में जिन्ना ने कहा था कि मुसलमानों को कभी भी कांग्रेस से न्याय नहीं मिल सकता क्योंकि वह कई जुबानों में बात करती है। जिन्ना का कांग्रेस से इस कदर खफा होना आगे चलकर उनका एक मुस्लिम परस्त नेता में बदलने और भारत विभाजन का पैरोकार बन उभरने का कारण बना।  

क्रमशः

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