पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-31
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के बाद आजाद हिंद फौज के नेताओं पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा शुरू किया गया। यह मुकदमें खुली अदालत में आयोजित किए गए थे। नवंबर 1945 में सबसे पहले बोस के तीन अति विश्वस्त साथी-शाहनवाज खान, प्रेम सहगल और गुरूबख्श सिंह ढिल्लो पर शुरू मुकदमें में इन क्रांतिकारियों की पैरवी के लिए कांग्रेस के दिग्गज नेता नेहरू, भूलाभाई देसाई और तेज बहादुर सप्रू सामने आए। देश भर में इन क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी और मुकदमों के खिलाफ भारी असंतोष फैल गया था जिसने बेहद हिंसक रूप ले लिया। कलकत्ता में तो दंगे भड़क गए जिसमें तीस की मृत्यु हो गई और सैकड़ों घायल हो गए। इन दंगों ने तत्कालीन वायसराय की इस आशंका को पुष्ट करने का काम कर दिया कि अब भारत में ब्रिटिश राज अपने अंतिम चरण पर आ पहुंचा है। हालांकि नेहरू के भांति जिन्ना ने इन मुकदमों के दौरान बतौर वकील कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई लेकिन शाहनवाज खान के प्रति मुसलमानों में जबरदस्त प्रेम और समर्थन को समझते हुए मुस्लिम लीग ने भी बोस के साथियों को अपना समर्थन देने में ही अपनी भलाई समझी थी। पूरे देश में इन वीर क्रांतिकारियों के समर्थन में नारा गूंजने लगा था-‘लाल किले से आई आवाज, सहगल ढिल्लो और शाहनवाज।’
इसी दौरान वायसराय वैवेल ने भारतीय नेताओं संग बातचीत के बाद प्रांतीय सभाओं एवं केंद्रीय सभा के लिए आम चुनाव कराए जाने की घोषणा कर दी। 19 सितंबर, 1945 को घोषित इन चुनावों का खास महत्व है क्योंकि प्रांतीय सभाओं के जरिए ही संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव किया जाना तय किया गया था। इन चुनावों में राजे- रजवाड़ों और नवाबी रियासतों के हिस्सा न लेने चलते प्रस्तावित 375 सदस्यों वाली केंद्रीय सभा के बजाए 102 उन सीटों पर चुनाव हुए जो सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारत का हिस्सा थी। इसी प्रकार 12 प्रांतीय सभाओं के लिए चुनावों की घोषणा 19 सितंबर, 1945 को वायसराय वैवेल ने की। केंद्रीय सभा की 102 सीटों में से 57 सीटें जीत कांग्रेस इस सभा में बहुमत हासिल करने में सफल रही। मुस्लिम लीग हालांकि केवल 30 सीटों में जीत दर्ज करा पाई लेकिन उसने यह साबित कर दिया कि मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में उसे कांग्रेस से कहीं अधिक समर्थन प्राप्त है। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि अल्पसंख्यक मुसलमान पाकिस्तान बनाने की कवायद में पूरी तरह से शामिल हैं। जिन्ना ने पंजाब में आयोजित एक सभा में इस जीत से गद्गद हो उद्घोषणा कर डाली कि-‘The day is not far away when Pakistan shall be at your feet’ (वह दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान तुम्हारे चरणों में होगा) 1 जनवरी, 1946 में प्रांतीय सभाओं के चुनाव परिणाम सामने आए। कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 90 प्रतिशत गैर आरक्षित सीटें जीत ली। 12 प्रांतों की कुल 1,585 सीटों में से कांग्रेस को 923 सीटें हासिल हुईं तो लीग को 425 सीटां पर विजय मिली। यहां भी केंद्रीय सभा की तरह मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में लीग का प्रदर्शन शानदार रहा। कांग्रेस ने इस जीत के बाद असम, बिहार, बॉम्बे (अब मुंबई), संयुक्त प्रांत, मद्रास और नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर प्रांत में अपनी सरकार का गठन कर लिया। बंगाल और सिंध प्रांत में लीग की सरकार बनी जबकि पंजाब प्रांत में कांग्रेस और अकाली दल की गठबंधन की सरकार बनी। वायसराय वैवेल अब एक अंतरिम राष्ट्रीय सरकार के गठन की दिशा में आगे बढ़ने लगे।
इसी बीच ब्रिटिश सरकार के समक्ष एक ऐसा संकट आन खड़ा हुआ जिसने उसकी चिंताओं में भारी इजाफा कर डाला। 18 फरवरी के दिन रॉयल इंडियन नेवी (भारतीय नौ सेना) के बीस हजार नौ-सैनिकों ने अपनी खराब परिस्थितियों का हवाला देते हुए विद्रोह का बिगुल बजा दिया। यह नौ-सैनिक उन्हें मिलने वाले खराब भोजन और रहने की बेहद दयनीय दशा से आक्रोशित हो ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हड़ताल पर चले गए। हालात इस तेजी से बिगड़े कि 20 फरवरी आते-आते मुंबई के बंदरगाह पर इन सैनिकों का कब्जा हो गया। इन नौ-सैनिकों ने सरकार के समक्ष रखी अपनी मांगों में बेहतर सुविधाएं दिए जाने के साथ-साथ कुछ राजनीतिक मांगे भी रख वायसराय वैवेल की परेशानियों में भारी बढ़ोतरी करने का काम कर दिया। हड़ताल समाप्त करने के लिए रखी गई शर्तों में सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई, आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सैनिकों की बगैर शर्ते रिहाई आदि शामिल थीं। मुंबई के साथ-साथ कराची, विशाखापट्टनम्, कलकत्ता, जामनगर, म्रदास समेत कई नौ-सैनिक ठिकानों तक इस हड़ताल का भारी असर शुरू हो गया। हालात पर काबू पाने के लिए कई बंदरगाहों पर सेना की तैनाती करनी पड़ी। कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने इस विद्रोह को समर्थन देने से इंकार कर दिया। दोनों ही दल इस आशंका से ग्रसित थे कि शीघ्र मिलने जा रही आजादी से ठीक पहले इस प्रकार का सैन्य विद्रोह भविष्य में आजाद भारत के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने जरूर इस विद्रोह को अपना खुला समर्थन दे 22 फरवरी को पूरे देश में बंद का एलान करा था। इस बंद के दौरान कलकत्ता, मद्रास और कराची की सड़कों पर लाखों की तादात में लोग लाल झंडा लिए अंग्रेजी सरकार के खिलाफ नारे लगाते घूमें। अंततः सरदार बल्लभ भाई पटेल की मध्यस्थता बाद इन नौ-सैनिकों ने अपनी हड़ताल वापस लेते हुए आत्मसमर्पण कर दिया था। इस व्रिदोह ने ब्रिटिश सत्ता की चूलें हिलाने का काम किया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री कल्मेंट एटली ने स्वीकारा कि ‘अब भारतीय थल, जल और वायुसेना भरोसे के लायक नहीं रह गई हैं।’
23 मार्च, 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री कल्मेंट एटली ने भारतीय नेताओं के संग वार्ता के लिए अपने मंत्रिमंडल का एक तीन सदस्यीय दल भारत भेजा। इस कैबिनेट मिशन ने भारतीय नेताओं के समक्ष एक अतिगोपनीय प्रस्ताव रखा जिसके अनुसार ‘यूनियन ऑफ आल इंडिया’ का गठन करते हुए भारत को एक संघीय सरकार के अंतर्गत तीन हिस्सों -हिंदु बहुल प्रांतों, मुस्लिम बहुल प्रांतों और राजे-रजवाड़े वाले प्रांतों में बांटने की बात कही गई थी। इस प्रस्ताव में केंद्र (संघीय) सरकार के अधीन रक्षा, विदेशी मामले और संचार विभाग मात्र दिए जाने का प्रस्ताव था। एक अन्य प्रस्ताव ब्रिटिश भारत को हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बांट कर भारतीय राज्यों को इनमें से किसी एक के साथ जुड़ने की बात कही गई। कांग्रेस ने त्रिस्तरीय महासंघ बनाए जाने के प्रस्ताव को कैबिनेट कमीशन संग हुई बातचीत के दौरान खारिज कर डाला। अपने दूसरे प्रस्ताव पर भी लीग और कांग्रेस के मध्य सहमति बना पाने में विफल रहा मिशन भारतीय नेताओं के मध्य किसी एक बिंदु पर सहमति बनाने का प्रयास करने में जुट गया।
लंबी जद्दोजहद के बाद भी यह कैबिनेट मिशन लीग और कांग्रेस के नेताओं को न तो एक वृहद भारतीय महासंघ और न ही संविधान सभा गठित किए जाने के लिए सर्वमान्य फॉर्मूला तैयार कर पाने के लिए राजी कर पाया। थके-हारे मिशन ने अंततः 19 मई, 1946 को अपनी तरफ से एक योजना तैयार कर उसे सार्वजनिक कर डाला। इसमें कहा गया कि पूरी तरह से अलग राष्ट्र बनाने की मुस्लिम लीग की मांग पूरी किया जाना अव्यवहारिक होगा क्योंकि इससे अन्य अल्पसंख्यकों द्वारा भी अलग राष्ट्र की मांग की जाने लगेगी। मिशन ने एक न्यूनतम संघ बनाए जाने का प्रस्ताव किया जिसके पास मात्र विदेशी मामले, रक्षा एवं संचार की जिम्मेवारी और अधिकार हों। प्रांतों एवं राजे-रजवाड़ों को बाकी के सारे अधिकार दिए जाने और इस संघ के लिए संविधान सभा बनाए जाने की बात इस योजना का हिस्सा थी। मुस्लिम लीग ने मिशन के प्रस्ताव को स्वीकार लिया लेकिन अब अंतरिम सरकार बनाने के मुद्दे पर कांग्रेस और लीग में टकराव शुरू हो गया। कांग्रेस केंद्रीय सभा की 102 सीटों में से 57 सीटें जीत बहुमत हासिल कर चुकी थी। ब्रिटेन चाहता था इस सरकार में लीग भागीदारी करे। जिन्ना ने इसके लिए दो शर्तें सामने रख दीं। पहली शर्त इस सरकार में कांग्रेस के बराबर ही मंत्री बनाना और दूसरी कांग्रेस के मंत्रियों में से किसी का भी मुस्लिम न होना थी। दोनों ही शर्तें कांग्रेस स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हुई। केंद्रीय सभा में बहुमत होने के कारण उसका प्रतिनिधित्व इस सरकार में अधिक होना स्वाभाविक था तो अपने राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं को अपने कोटे से मंत्री बनाना अथवा न बनाना उसका आंतरिक मसला था। कांग्रेस इस बात से आशंकित थी कि यदि वह अपने किसी मुस्लिम नेता को मंत्री परिषद में शामिल नहीं करती है तो इसका सीधा अर्थ निकलेगा की वह मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि स्वीकार कर चुकी है। सरदार बल्लभ भाई पटेल जिन्ना की इस मांग के सबसे ज्यादा खिलाफ थे। उनका कहना था इस शर्त को मानने का अर्थ होगा ‘सारे मुसलमानों को कांग्रेस से बाहर धकेल देना।’ इस गतिरोध को निपटाने में नाकाम रहे मिशन के सदस्यों और वायसराय वैवेल ने अंतरिम सरकार के गठन को टालने का फैसला लेते हुए एक ‘काम चलाऊ’ सरकार बनाए जाने की घोषणा 25 जून, 1945 को कर दी। इस सरकार जिसकी कमान वायसराय के पास थी, को संविधान सभा गठित करने और भारत के लिए संविधान बनाने की जिम्मेदारी तय की गई। जिन्ना इस फैसले से बेहद आहत हो गए। उन्हें लगने लगा था कि पाकिस्तान की मांग को दरकिनार कर एक महासंघ बनाए जाने के लिए सहमत हो उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत पर बड़ा एहसान किया है जिसकी एवज में लीग को ही अंतरिम सरकार बनाने का अवसर मिल जाएगा। ऐसा लेकिन हुआ नहीं जिसमें नाराज जिन्ना ने 29 जुलाई, 1946 को बॉम्बे (अब मुंबई) में आयोजित लीग के अधिवेशन में ‘सीधी कार्रवाई’ (Direct Action) का ऐलान कर दिया। इस प्रस्ताव में कहा गया ‘चूंकि मुसलमान-भारत कोशिश कर-करके थक चुका है लेकिन उसे शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीकों से भारतीय समस्या का समाधान निकाल पाने में सफलता नहीं मिली है, चूंकि अंग्रेजों के साथ मिलकर कांग्रेस भारत में उच्च जाति के हिंदुओं का राज कायम करना चाहती है, चूंकि हाल की घटनाओं ने साबित कर दिया है कि भारत में राजनीतिक फैसले ताकत के दम पर हो रहे हैं, न कि ईमानदारी और इंसाफ की बिनाह पर, चूंकि यह अब स्पष्ट हो गया है कि भारत के मुसलमान पूरी तरह से स्वतंत्र पाकिस्तान बनाए बिना चैन से नहीं बैठेंगे … वक्त आ गया है कि पाकिस्तान हासिल करने के लिए हम सीधी कार्यवाही करें और अपने हकों और गौरव की रक्षा करें।’ इस ‘सीधी कार्रवाई’ के लिए 16 अगस्त, 1946 को लीग ने पूरे भारत में बंद रखने की घोषणा कर डाली।