पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-53
आजादी से आमजन के मोहभंग की शुरुआत नेहरूकाल के दौरान ही होने लगी थी। इस मोहभंग का एक बड़ा कारण कांग्रेस नेताओं की सुविधा लोलुपता, भ्रष्टाचार और आमजन के कष्टों के प्रति उदासीन हो जाना था। राष्ट्रकवि का दर्जा पाए रामधारी सिंह दिनकर ने आजादी की पहली वर्षगांठ पर एक कविता लिखी जिसका शीर्षक है ‘पहली वर्षगांठ’। यह कविता कवि के साथ-साथ आमजन की पीड़ा को भी सामने लाती है-
‘आजादी खादी के कुरते की एक बटन,
आजादी टोपी एक नुकीली तनी हुई।
फैशनदारों के लिए नया फैशन निकला,
मोटर में बांधों तीन रंगे वाला चिथड़ा
औ गिनों की आंखे पड़ती हैं कितनी हम पर,
हम पर यानी आजादी के पैगम्बर पर।
1954 में दिनकर जी ने इसी पीड़ा को लेकर ‘भारत का यह रेश्मी नगर’ कविता लिखी-
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर,
दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में।
है विकल देश सारा अभाव के तापों से,
दिल्ली सुख से सोयी है नरम रजाई में।
कांग्रेस संगठन और सरकार में तेजी से बढ़ रहे भ्रष्टाचार का जिक्र भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘प्रश्न और मरीचिका’ में भी आता है- ‘1952 के चुनाव में पूरे देश में नेहरू की कांग्रेस की बड़ी जीत हुई। उदय को लगा कि देश में नेहरू की टक्कर का कोई नेता नहीं है। इस बड़ी जीत के बाद नेहरू के साथ की भीड़ बहुत शक्तिशाली हो गई। नेहरू के निकट की इस भीड़ में बहुत सारे भ्रष्ट, चरित्रहीन और बेईमान लोग थे। ये कांग्रेस के नए लोग थे। उनके पीछे नेहरू की शक्ति थी। पुराने कांग्रेसी धीरे-धीरे पीछे हट रहे थे, संगठन से अलग होते जा रहे थे।’
साहित्य से इतर नेहरू राज में भ्रष्टाचार के मामलों में सबसे पहले आता है फौज के लिए जीप खरीदने में हुआ भ्रष्टाचार। नेहरू के अति विश्वस्त कांग्रेसी नेता वीके कृष्ण मेनन 1948 में ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त थे। पाकिस्तान के साथ चल रही अघोषित लड़ाई के चलते भारतीय थल सेना के लिए जीपों की खरीद का निर्णय लिया गया था। वीके कृष्ण मेनन ने ब्रिटेन की एक कंपनी को दो हजार जीप का ऑर्डर दे दिया। ये पुरानी जीपों का ऑर्डर था। इस कंपनी ने 155 जीप भारत भेजी जिन्हें सेना ने उपयोग के लिए अनुपयुक्त पाया था। मेनन ने इस ऑर्डर को रद्द कर एक अन्य कंपनी को 1970 जीपों का ऑर्डर दिया। यह कंपनी मात्र 49 जीप सप्लाई कर पाई थी। भारत सरकार को इस सौदे में बड़ा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। मेनन ने तमाम नियम-कानून को धता बताते हुए करीब 80 लाख रुपए एक ऐसी कंपनी को बतौर एडवांस दे डाले जो इस काम के लिए कतई उपयुक्त नहीं थी। नेहरू सरकार में भ्रष्टाचार का आरोप इस सौदे चलते विपक्षी दलों ने तब लगाए थे लेकिन सरकार ने किसी भी जांच के लिए स्पष्ट मना कर डाला था। बाद में कृष्ण मेनन को नेहरू सरकार में रक्षा मंत्री बना दिया गया था। 1957 में एक और घोटाले ने तत्कालीन सरकार को कठघरे में ला खड़ा किया था। इसे ‘एलआईसी-मुंदड़ा घोटाला’ कहा जाता है जिसको सामने लाने का काम कांग्रेस के रायबरेली, उत्तर प्रदेश से सांसद फिरोज गांधी ने किया था। फिरोज गांधी नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी के पति थे। यह आजाद भारत का पहला वित्तीय घोटाला था जिसने नेहरू सरकार को न केवल शर्मसार किया, बल्कि तत्कालीन वित्त मंत्री वीवी कृष्णनामचारी का इस्तीफा तक कराने का काम किया। कोलकाता के व्यवसाई हरीदास मुंदड़ा ने वित्त मंत्रालय के उच्च अधिकारियों के साथ मिलकर राष्ट्रीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) पर दबाव बना अपनी कंपनियों में 1 ़24 करोड़ का पूंजी निवेश कराया था। यह पूंजी निवेश ऐसी कंपनियों में किया गया था जो पहले से ही घाटे में चल रही थी। नतीजा एलआईसी का पूंजी निवेश डूब गया। फिरोज गांधी ने संसद में इस मामले को उठाते हुए प्रमाण दिए कि इस पूंजी निवेश को एलआईसी ने केंद्र सरकार के दबाव में किया था। नेहरू ने मामले की जांच के लिए न्यायमूर्ति एमसी छागला की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया जिसने 24 दिन के रिकॉर्ड समय में अपनी जांच पूरी कर फिरोज गांधी के आरोपों को प्रमाणित करने का काम किया। हरिदास मुंदड़ा को गिरफ्तार किया गया और वित्त मंत्री वीवी कृष्णाचारी का इस्तीफा हुआ। फिरोज गांधी इससे पहले 1956 में उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया के भ्रष्टाचार को सामने ला चुके थे जिसके चलते ही डालमिया समूह के स्वामित्व वाले जीवन बीमा कंपनी समेत 245 बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर नेहरू सरकार ने राष्ट्रीय जीवन बीमा निगम की स्थापना की थी। ‘जीप घोटाले’ के तुरंत बाद 1951 में कांग्रेस के एक सांसद एचजी मुदगल का भ्रष्टाचार सामने आया था। मुदगल पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने बुलियन मर्चेंट एसोसिएशन से दो बार हजार-हजार रुपयों की रिश्वत संसद में प्रश्न पूछने की बाबत ली है। यह मामला जब नेहरू के समक्ष पहुंचा तो उन्होंने तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष जीवी मालवंकर से सलाह मशविरा कर इस आरोप की जांच एक संसदीय कमेटी से कराई थी। 24 सितंबर, 1951 को कमेटी की रिपोर्ट सदन में रखी गई और प्रधानमंत्री ने सदन से मुदगल को निष्कासित किए जाने का प्रस्ताव पेश किया। उन्होंने संसद में इस प्रस्ताव को पेश करते हुए कहा ‘This case is as bad as it could well be. If we consider even such a case as a marginal case or as one where certain laxity might be shown, I think it will be unfortunate especially because this is the first case of this kind coming before the house’ (यह मामला उतना ही खराब है जितना यह हो सकता था। यदि हम इसे एक मामूली घटना मान कुछ ढील देने की सोचते हैं, तो मैं समझता हूं कि यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा क्योंकि यह ऐसा पहला मामला है जो इस सदन के समक्ष आया है।)
मुदगल ने निष्कासन से बचने के लिए संसद भीतर ही अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी लेकिन नेहरू ने सदन में नया प्रस्ताव पेश कर यह तर्क दिया कि मुदगल का इस्तीफा सदन की अवमानना है अतः उन्हें निष्कासित ही किया जाना चाहिए। नेहरू के कड़े रुख चलते अंततः संसद से मुदगल को निष्कासित किया गया था। भ्रष्टाचार ने अपने पांव आजादी मिलने के साथ ही किस तेजी से फैलाने शुरू कर दिए थे, का प्रमाण ‘साइकिल इम्पोर्ट घोटाला’ (1951), ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में वित्तीय घोटाला’ (1956) और जयंत धर्मा तेजा ऋण घोटाला (1960) से भी मिलता है।
कांग्रेस नेताओं में आए विचलन और सरकार में पूंजीपतियों के बढ़ते दबाव को यशपाल ने अपने उपन्यास ‘झूठा-सच’ के दूसरे खंड में कुछ यूं चित्रित किया-‘अंग्रेज सरकार के पुराने रायबहादुर और खैरखवाह अमन सभा और सरकारी अमलदारी से लाभ उठाने वाले लोग कांग्रेस के मेम्बर बनकर सफेद नुकीली टोपी पहनने लगे थे। कांग्रेस को भी इससे लाभ हो रहा था। अब कांग्रेस का चंदा चार- चार आने और रुपए-रुपए की रसीदों से इक्ट्ठा नहीं किया जाता था, चुनाव फंड में चंदा मीलों और कंपनियों से बीस -चालीस हजार और लाख-दो लाख रुपए के चेकों से आता था। कांग्रेस से संबंध रखने वाले लोगों की आमदनी पहले से अधिक हो गई थी। जो लोग सौ-सवा सौ की नौकरी करते थे अब अपने संबंधी के मंत्री पद पा जाने या किसी महत्वपूर्ण कमेटी के मेम्बर हो जाने पर जहां-तहां हजार-बारह सौ पाने लगे थे। मैट्रिक नहीं पास हुए मंत्री के बेटे सरकारी विभागों के अध्यक्ष बनकर हजार रुपए मासिक पाकर भी संतुष्ट नहीं थे। मंत्रियों के दामादों के लिए मैनेजिंग डायरेक्टर से कम कोई पद सोचा ही नहीं जा सकता था।’
सत्ता का केंद्रीयकरण
नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में सत्ता का केंद्रीयकरण तेजी से हुआ जो स्वस्थ लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए किस कदर घातक सिद्ध हो सकता है यह आजादी के पिचहत्तरवें वर्ष में तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों के क्षरण से समझा जा सकता है। सरदार पटेल की मृत्यु पश्चात् नेहरू कांग्रेस में एकमात्र ऐसे कद्दावर नेता बचे थे जिनकी न केवल भारत, बल्कि अंतरराष्ट्रीय पटल में भी महत्वपूर्ण उपस्थिति और पकड़ थी। सामाजिक वैज्ञानियों का मानना है कि नेहरू निःसंदेह बेहद लोकतांत्रिक विचारों के थे और लोकतंत्र पर उनकी गहरी आस्था थी लेकिन वे विरोध को तभी तक स्वीकारते थे जब तक वह उनके नियंत्रण में रहता था। जवाहरलाल नेहरू शायद खुद के भीतर एक तानाशाह के अंकुरित हो रहे बीज को भांपने लगे थे। लोकप्रियता और लोकस्वीकार्यता के अपने चरम दौर के दौरान उनके द्वारा छद्म नाम से लिखा गया एक लेख कुछ इस तरीफ ही इशारा करता है। यह लेख ‘चाणक्य’ नाम से कोलकाता से प्रकाशित होने वाले ‘मॉडर्न रिव्यू’ में 1937 में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में नेहरू ने खुद को कठघरे में खड़ा कर कई ऐसी बातें कहीं जो आजादी पश्चात् उनके प्रधानमंत्री बनने बाद काफी हद तक सही साबित हुई। नेहरू ने खुद की बाबत लिखा-
‘‘राष्ट्रपति जवाहरलाल की जय!’’
प्रतीक्षा करती हुई भीड़ के बीच से तेजी से गुजरते हुए राष्ट्रपति ने सिर उठाकर देखा, उनके साथ उठे और नमस्कार की मुद्रा में जुड़ गए और उनका थकान भरा, दृढ़ चेहरा एक मुस्कान से प्रदीप्त हो गया। यह मुस्कान उनकी अपनी भावुकता की परिचायक थी, और जिन लोगों ने उसे देखा, उन पर इसका तुरंत प्रभाव पड़ा, और उन्होंने भी
क्रमशः