मेरी बात
इस सप्ताह (3 अक्टूबर से 9 अक्टूबर) की शुरुआत दो ऐसी खबरों से हुई जिन पर थोड़ी विस्तार से चर्चा जरूरी है। पहली खबर अंग्रेजी दैनिक अखबार ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ के प्रथम पृष्ठ में सोमवार 3 अक्टूबर के दिन प्रकाशित हुई। खबर का शीर्षक है ‘At Hindu Mahasabha’s Kolkata Pandal, Gandhi look alike is the ‘asura’ (हिंदू महासभा के कोलकाता पंडाल में गांधी जैसा नजर आने वाला एक असुर)। खबर के अनुसार अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने कोलकाता में दुर्गा पूजा के अवसर पर लगाए एक पंडाल में महात्मा गांधी जैसी नजर आने वाली एक तस्वीर असुरों के मध्य लगाई है, जिनका संहार करती मां दुर्गा नजर आ रही हैं। महात्मा के इस अति आपत्तिजनक चित्रण पर बवाल मचने बाद पश्चिम बंगाल हिंदू महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष ने सफाई देते हुए यह तो स्वीकारा कि उनके पंडाल में असुर के तौर पर प्रदर्शित एक तस्वीर गांधी की काया से मेल खाती है लेकिन उनके अनुसार यह एक संजोग मात्र है। उन्होंने साथ ही यह भी कह डाला कि ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधी की भूमिका को लेकर उनकी आलोचना की जानी जरूरी है। हमारे नेता सुभाष बोस और भगत सिंह हैं। हम गांधी की आलोचना करने से नहीं डरते। वे इज्जत के काबिल नहीं हैं। हम ‘गांधी मुक्त भारत’ का स्पष्ट संदेश देना चाहते हैं और केंद्र सरकार से पूछना चाहते हैं कि वह नाथूराम गोडसे की पुस्तक ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’ को सार्वजनिक क्यों नहीं कर रही है।’ कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस के अलावा भाजपा ने भी हिंदू महासभा को गांधी के इस बेहुदे चित्रण के लिए लताड़ा है। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता सामिक भट्टाचार्य के अनुसार इस प्रकार का आचरण कतई स्वीकार नहीं है और प्रशासन को चाहिए कि वह आयोजकों के खिलाफ कार्यवाही करे। ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ के इसी अंक में एक अन्य समाचार भी प्रथम पृष्ठ में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ है। इस समाचार का शीर्षक है ‘RSS gen secy flags poverty, jobs, inequality’ (संघ महासचिव ने गरीबी, बेरोजगारी और असमानता पर निशाना साधा)। समाचार के अनुसार रविवार, गांधी जयंती के दिन संघ के अनुवांशिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच द्वारा आयोजित एक वेबिनार में संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने गरीबी, बेरोजगारी और बढ़ती असमानता पर चिंता जताई। उन्होंने इस वेबिनार में कहा ‘देश में गरीबी एक असुर समान हमारे सामने खड़ी है। इस असुर का अंत करना जरूरी है। 20 करोड़ नागरिक आज भी गरीबी रेखा के नीचे हैं। 23 करोड़ जनता की प्रतिदिन कमाई 375 रुपया मात्र है। चार करोड़ बेरोजगार हैं। श्रमिक सर्वेक्षण के अनुसार बेरोजगारी दर 7 ़6 प्रतिशत पहुंच चुकी है। आर्थिक असमानता लगातार बढ़ रही है। कहा जा रहा है कि हम विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? एक प्रतिशत देश की 20 प्रतिशत कमाई पर कब्जा जमाए हैं तो दूसरी तरफ पचास प्रतिशत जनता के हिस्से देश की कुल कमाई का मात्र तेरह प्रतिशत है।’ होसबोले इतने पर ही नहीं रूके। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा ‘देश के एक बड़े हिस्से के पास स्वच्छ पानी और पौष्टिक भोजन उपलब्ध नहीं है।’
ये दोनों इसलिए काबिल-ए-गौर और काबिल- ए-चर्चा हैं क्योंकि दोनों ही ऐसे मंचों से ताल्लुक रखते हैं जो सत्ताधारी भाजपा का हम-राहगीर है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के विचारों से ठीक उलट कथन आपको यदि विस्मयकारी लगता है तो अपनी समझ को दुरस्त करें। भले ही भाजपा अथवा प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार, उनके नेतृत्व वाले राज्यों के मुख्यमंत्री और वहां की सरकारें महात्मा गांधी का महिमामंडन करें, संघ प्रमुख मोहन भागवत उन्हें एक मात्र राष्ट्रपिता कह पुकारें, सच यही है कि गांधी कभी भी संघ, उसके अनुवांशिक संगठनों और उसके राजनीतिक संगठन भाजपा को नहीं सुहाए हैं। गांधी दरअसल सबके लिए मजबूरी बन चुके हैं कि उन्हें स्वीकारा जाए। इसका एकमात्र कारण यह है कि गांधी सरीखा व्यक्तित्व इस देश में तो क्या, समकालीन दौर में पूरे विश्व में दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आता है। गांधी भगवान नहीं थे, भगवान के दूत भी नहीं थे, वे एक सामान्य परिवार में जन्में ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने आत्मबल, सत्य के प्रति अपने आग्रह और विचारों के प्रति अपने समर्पण के जरिए अपने व्यक्तित्व को ईश्वर नाम की संस्था के समांतर खड़ा करने का काम, लगभग असंभव काम, कर दिखाया। इसलिए उनके द्वारा स्वतंत्रता संग्राम काल में लिए गए निर्णय सही रहे हों या गलत, गांधी की निष्ठा और देश-प्रेम कभी भी निशाने पर नहीं लिए जा सकते हैं, प्रयास चाहे कोई कितना भी क्यों न करे। पश्चिम बंगाल हिंदू महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष चंद्रचूड़ गोस्वामी ने कितना आजादी के इतिहास और गांधी की भूमिका का अध्ययन किया है, यह मैं नहीं जानता लेकिन दावे के साथ कह सकता हूं कि वे न तो गांधी को समझते हैं और न ही समझने की समझ रखते हैं। एक ऐसे संगठन (हिंदू महासभा) का एक प्रांतीय पदाधिकारी गांधी की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका को लेकर सवाल खड़े कर रहा है और देश को ‘गांधी मुक्त’ बनाए जाने की बात कह रहा है, जिस संगठन की भूमिका आजादी के महायज्ञ में पूरी तरह शून्य और नकारात्मक रही। हिंदू महासभा ने किसी भी राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी कभी नहीं की। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान वह अंग्रेज सत्ता के साथ थी। तबके बंगाल प्रांत की सरकार में इस संगठन के नेता मुस्लिम लीग के साथ सत्ता का आनंद तब ले रहे थे जब इस आंदोलन को निर्ममता पूर्वक कुचला जा रहा था। विनायक दामोदर सावरकर के हाथों में तब हिंदू महासभा की कमान थी। उन्होंने अपने अनुयायियों को एक खुला खत लिखकर इस आंदोलन के बहिष्कार का आह्नान किया था। बंगाल प्रांत की सरकार में शामिल इस महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो इस कदर ब्रिटिश सत्ता के वफादार थे कि उन्होंने बंगाल के ब्रिटिश गवर्नर को एक गोपनीय पत्र लिख आश्वस्त कर डाला कि उनकी सरकार और हिंदू महासभा हर संभव ब्रिटिश सरकार का साथ देगी और आंदोलन को दबाने का पूरा प्रयास करेगीं। यह तो चंद उदाहरण मात्र हैं। पूरा इतिहास हिंदू महासभा के ऐसे कारनामों से भरा पड़ा है। त्रासदी देखिए आजादी के मात्र पिचहत्तर बरस बाद आज ऐसा संगठन गांधी को ‘असुर’ साबित करने की हिमाकत कर रहा है तो प्रश्न उठता है इसके पीछे उसे किसकी शह है। और जब स्वयं प्रधानमंत्री मोदी-गोधी की संस्तुति कर रहे हों, यह संगठन ऐसा दुस्साहस करने की हिम्मत कहां से पा रहा है?
रही बात संघ के वरिष्ठ प्रचारक दत्तात्रेय होसबोले द्वारा गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता आदि पर चिंता जाहिर करने की तो इससे दो बातें समझ में आती हैं। पहली यह कि संघ भीतर मोदी सरकार की नीतियों को लेकर बेचैनी बढ़ रही है और दूसरी यह कि संघ और भाजपा के शीर्ष पर रिश्तों में खटास आने लगी है। जहां तक पहली बात का सवाल है तो ऐसा पूर्व में भी होते हमने देखा है। तब, जब अटल जी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार केंद्र में काबिज थी। याद करिए कैसे उन दिनों यही संगठन स्वदेशी जागरण मंच अटल सरकार की आर्थिक नीतियों को अपने निशाने पर रखता था। याद कीजिए कैसे संघ के प्रचारक एस ़गुरुमूर्ति अटल सरकार पर निशाना साधा करते थे। के ़एन ़ गोविंदाचार्य को भी याद कीजिए जिन्हें वर्ष 2000 में अटल जी की नाराजगी चलते भाजपा महासचिव पद और भाजपा से मुक्त कर दिया गया था। गोविंदाचार्य भी संघ के प्रचारक तब हुआ करते थे और कहा जाता था कि उनके जरिए संघ अटल जी की नकेल अपने हाथों में रखना चाहता है। संघ का अटल जी पर बड़ा दबाव था कि वे संघ संस्थापक हेडगवार और दूसरे सरसंघ चालक गोलवरकर को भारत रत्न से सम्मानित करें। संघ अटल सरकार की आर्थिक नीतियों से भी खासा नाराज तब रहा करता था। तब संघ की कमान के ़एस ़सुदर्शन के हाथों में थी जिनके अटल जी संग रिश्ते बेहद तल्ख थे। अटल सरकार की विदेश नीति, अल्पसंख्यक नीति और आर्थिक नीतियां संघ को कतई नहीं सुहाती थीं। 1999 में लाहौर गए अटल जी ने पाकिस्तान के गठन को भारत द्वारा स्वीकारे जाने की बात कह संघ को खासा बैचेन कर दिया था क्योंकि संघ तब भी और आज भी अपने ‘अखंड भारत’ के सिद्धांत की पैरोकारी करता है। इन सब मंतातरों के बावजूद संघ ने अटल सरकार को अस्थिर करने का कभी प्रयास नहीं किया तो मात्र इसलिए क्योंकि सत्ता के जरिए अपने उद्देश्यों को पाने की उसकी रणनीति अटल सरकार के केंद्र में काबिज होने से ताकत पाने लगी थी। आज भी हालात वैसे ही हैं। संघ वर्तमान सरकार की आर्थिक नीतियों से सहमत नहीं है। 2019 के आम चुनावों से पहले संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक ने मोदी सरकार की नीतियों से असहमति जताते हुए कहा था ‘चुनाव तक छेड़ना नहीं, जीतने के बाद छोड़ना नहीं।’ उन दिनों बहुत चर्चा हुआ करती थी कि मोदी से नाराज संघ अपने कार्यकर्ताओं को चुनाव मैदान में नहीं उतार रहा है। ऐसा लेकिन हुआ नहीं। संघ ने पूरी ताकत से भाजपा को चुनाव लड़ाया और अद्भुत संख्या बल तक पहुंचाया। सोचिए ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि नब्बे के दशक से सक्रिय राजनीति में रहने तक अटल जी अपनी लोकप्रियता चलते जिस प्रकार संघ की जरूरत थे, मजबूरी थे ठीक उसी प्रकार मोदी भी संघ की जरूरत कह लीजिए अथवा मजबूरी हैं। क्योंकि उनकी लोकप्रियता की कोई काट हाल-फिलहाल तक संघ के पास नहीं है। 2014 के आस-पास संघ की देश भर में लगभग 45,000 शाखाएं हुआ करती थीं जो 2019 में 60,000 पहुंच गईं। इस बढ़ोतरी के पीछे मोदी करिश्मा एक बड़ा कारण रहा।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्योंकर संघ से जुड़े संगठन अथवा लोग समय-समय पर अपनी ही सरकारों के खिलाफ या सरकार की घोषित नीति के खिलाफ बोल उठते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि जो वे कहते है, करते हैं वह उस वर्ग की उत्तेजना शांत करने के लिए किया जाता है जो संघ की अवधारणा से खुद को जोड़ भाजपा को सत्ता में लाने का कारक बनता है। ऐसा वर्ग जब-जब बेचैन हो असल मुद्दों की तरफ जाने का प्रयास करता है तो उसकी बेचैनी को थामने के लिए इस प्रकार के बयान, घटनाएं घटित कराई जाती हैं ताकि उनकी बेचैनी को भी काबू में रखा जा सके और सत्ता को अहसास कराया जा सके कि उसकी ताकत जिसके दम और बल पर टिकी है, उसकी ज्यादा अनदेखी करना उसे भारी पड़ सकता है।