शासक चाहे कहीं का भी हो अपनी विफलताओं से अपने Failures से जनता का दिमाग हटाने के लिए हमेशा से कुछ न कुछ ऐसा करता है जो Immediate तौर पर उसको कुछ राहत दे सके। इंदिरा गांधी 1971 में पाकिस्तान को हराने के बाद और 1972 में पाक के दो फाड़ के बाद Larger then life leader बन उभरी थीं। लेकिन चंद महीने बाद ही उनकी छवि दरकने लगी तो उन्होंने Emergency का सहारा ले लिया। चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण क्यों किया इसके लिए उस दौर के चीन की आंतरिक स्थिति को समझना जरूरी है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता माओ से तुंग का भी कद Larger then life था। उन्होंने चीन की आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए पंचवर्षीय योजना शुरू की जिसे Great leap forward (एक बड़ी छलांग) कहा गया। यह छलांग लेकिन बुरी तरह लुढ़क गई, Flop हो गई। माओ ने अपने देश को अन्न में आत्मनिर्भर बनाने के लिए सामूहिक कृषि (Community farming) पर इस Policy के अंतर्गत जोर दिया। लोगों की खेती की जमीन सरकार ने छीन ली। इससे पैदावार बढ़ने के बजाय घट गया। Community farming concept विफल हो गया। चीन में भारी भुखमरी के चलते लगभग 4.5 करोड़ लोग मारे गए। 1958 से 1962 के बीच चीन की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। माओ की नेतृत्व क्षमता को लेकर उनकी पार्टी के भीतर ही प्रश्न उठने लगे। 1959 में हालात इतने बिगड़े कि माओ को People Republic of China के चेयरमैन पद से इस्तीफा देना पड़ा, यह वही समय था जब डेंग जियापिंग पार्टी में तेजी से उभरे थे। माओ की Great leap forward ने न केवल चीन में भुखमरी की स्थिति पैदा कर डाली, बल्कि कई प्रदेशों में Armed Rebillion (सशस्त्र विरोध) भी शुरू हो गया। ट्रेनें लूटी जाने लगीं, अनाज के गोदामों को लूटा गया। गांव के गांवCommunist Party of China के खिलाफ हो गए। CPC पर करप्शन, तानाशाही, जोर-जबरदस्ती, Forced labor के आरोप लगने लगे। हालात इतने खराब थे कि 25 लाख के करीब तो हिंसा के चलते मरे। 10 से तीस लाख ने आत्महत्या कर ली। ऐसे विकट समय में तिब्बत में भी सशस्त्र विरोध चीन के खिलाफ शुरू हो गया। हालांकि 14वें दलाई लामा संग चीन का Seventeen point Agreement 1951 में हो चुका था और दलाई लामा को चीन ने तिब्बत सरकार का प्रमुख मान लिया था लेकिन इस शर्त पर कि तिब्बत को चीन का हिस्सा माना जाएगा और चीनी फौजें तिब्बत में रहेंगी . . .। दलाई लामा ने कोई और विकल्प (Alternative) न होने के चलते इस समझौते को मान तो लिया था लेकिन तिब्बतियों के बीच आक्रोश की ज्वाला (चीन के खिलाफ) शांत नहीं हुर्ह थी। Great forward leap विफलता ने जहां चीन में CPC को कमजोर किया, सशस्त्र विरोध शुरू हुए तो तिब्बत में भी चीनी फौज के साथ तिब्बती हथियारबंद समूहों की झड़पें तेज होने लगी। फिर आया 1959, तिब्बत में चीन की मुखालफत बढ़ती जा रही थी तो दूसरी तरफ CPC के खिलाफ चीन में आक्रोश बढ़ रहा था, Economy बर्बाद हो चली थी। 30 मार्च 1959 को दलाई लामा ल्हासा छोड़ भारत भाग आए। चीन के साथ 17 Point Agreement टूट गया। चीन तिब्बत पर काबिज हो गया और उसने दलाई लामा परंपरा से इतर पंचम लामा परंपरा के धर्मगुरु को तिब्बत का नेता घोषित कर दिया। नेहरू सरकार दलाई लामा को राजनीतिक शरण देना माओ को भीतर तक तिलमिला गया। माओ कई कारणों से व्यक्तिगत रूप से एंटी नेहरू थे। चीन के सोवियत संघ के साथ संबंध इस दौर में जहां खराब होने लगे थे वहीं भारत और सोवियत संघ के बीच प्रगाढ़ता बढ़ रही थी। चीनी प्रधानमंत्री झू इनलाई और नेहरू के बीच इस दौर में हुआ पत्राचार स्पष्ट करता है कि नेहरू किसी भी सूरत में सीमा निर्धारण पर चीन के आगे झुकने को राजी नहीं थे। नेहरू की नीति स्पष्ट थी। सीमा विवाद तार्किक तरीके से शांतिपूर्वक सुलझाने के लिए चीन को International Community के सामने Support किया जाए। साथ ही नेहरू सोवियत संघ और उसके धुर विरोधी अमेरिका को भी साध रहे थे। इतना ही नहीं जहां दलाई लामा को राजनीतिक शरण दे भारत ने चीन को स्पष्ट कर दिया था कि वह दबाव में आने वाला नहीं, वहीं तिब्बत को चीन का हिस्सा मानने की नीति भी उन्होंने अपना कर भारत की धरती पर तिब्बत के गुरिल्ला नेताओं को शरण देने से इंकार कर दिया था। 1959.60 में नेहरू ने नेपाल, भूटान और बर्मा संग प्रगाढ़ संबंध बना डाले। बर्मा में 1959 में भारत ने बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण शुरू कराया ताकि चीन यदि बर्मा की तरफ बढ़े तो भारत उसका विरोध कर सके। नवंबर 1959 में नेपाल ने International Community को सूचित किया कि चीन उसकी सीमाओं की तरफ बढ़ रहा है तो नेहरू ने नेपाल को हर तरह की मदद का ऐलान कर डाला।
सोवियत संघ से चीन की दूरी बढ़ना और नेहरू का अंतरराष्ट्रीय नेता बन उभरना
1959 में माओ को नाराज करने वाली दो घटनाएं हुईं। अपने शासन के दस वर्ष पूरे करने पर PRC ने एक बड़ा आयोजन बीजिंग में किया। भारत ने इसमें भाग नहीं लेकर चीन को खासा नाराज कर डाला। यहां यह गौरतलब है कि माओ के बरक्स नेहरू का कद अंतरराष्ट्रीय पटल पर खासा बड़ा था। भारत की देखा-देखी निर्गुट देशों के कई सदस्य राष्ट्रों ने भी इसमें भाग नहीं लिया। हालांकि सोवियत संघ के साथ चीन के संबंध 1959 आते-आते तल्ख हो चले थे लेकिन Communist Unity दिखाने के लिए सोवियत संघ के चेयरमैन निकिता खुर्शचेव एक बड़े डेलिगेशन के साथ इस कार्यक्रम में शामिल हुए। 1 अक्टूबर 1959 को आयोजित इस कार्यक्रम से पहले खुर्शचेव अमेरिका यात्रा पर थे। कहा जाता है चीन सेना की इस अवसर पर आयोजित परेड के दौरान खुर्शचेव और माओ परेड की सलामी लेते हुए बतिया रहे थे। अमेरिका के संबंध में चल रही बातचीत के दौरान खुर्शचेव ने जब अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनआवर की तारीफ की तो माओ नाराज हो उठे। तब तक अमेरिका ने चीन को मान्यता नहीं दी थी। माओ को लगा खुर्शचेव उसका अपमान कर रहे हैं। खुर्शचेव की यह यात्रा माओ की भारी नाराजगी के चलते संबंध सुधारने में नाकाम रही। दिसंबर 1959में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनआवर की तीन दिवसीय भारत यात्रा चीन की नाराजगी और चिंता को बढ़ाने का काम किया। नेहरू ने आइजनआइवर का जबरदस्त स्वागत किया। उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गई। दिल्ली के एतिहासिक रामलीला मैदान में अमेरिकी राष्ट्रपति ने एक विशाल रैली को संबोधित किया। संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को भी संबोधित किया। आइजनआवर भारत आने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थे। इसे नेहरू के कद का कमाल ही कहा जाएगा कि NAM नेता होने, सोवियत संघ के दोस्त होने के बावजूद आइजनआवर को वह भारत ला पाए। USA के साथ हमारी दोस्ती की तरफ बढ़ा यह पहला कदम था। आइजनआवर का भारत आना इस दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण रहा। 1960 की शुरुआत में 15 फरवरी को निकिता खुर्शचेव भारत आए इतने कम अंतराल में दो महाशक्तियों के प्रमुखों का भारत आना नेहरू के कद, भारत के महत्व और चीन के प्रति International Community के भावों को दर्शाता है। बीजिंग में इन दोनों यात्राओं को लेकर खासा तनाव पैदा हो चला था। चीन को सबसे ज्यादा डर भारत-रूस की गहराती मित्रता से था क्योंकि कम्युनिस्ट देश होने के बावजूद रूस और चीन में अलगाव बढ़ने लगा था। मास्को में Warsav Pact को लेकर 4 March 1960 को एक महत्वपूर्ण बैठक हुई। Warsav Pact रूस का अपने पड़ोसी मुल्कों के साथ 1955 में किया गया संधि पत्र है। इस बैठक के बाद खुर्शचेव ने माओ को लेकर जो कुछ कहा वह न केवल बेहद महत्वपूर्ण है, बल्कि Great Leap forward policy के विफल रहने, माओ के PRC के Chairmanship छोड़ने और आर्थिक तबाही की कगार पर खड़े चीन के शीर्ष नेता माओ को बेहद Demean करने वाला है। खुर्शचेव ने इस बैठक के बाद आयोजित भोज में माओ की बाबत पूछे जाने पर कहा “Mao is nothing more than a pair of worn-out galoshes standing discarded in a corner” यानी माओ एक घीसे-पीटे रबड़ के जूतों के समान हैं जिसे कोने में फेंक दिया गया है। ऐसे समय में जब चीन चौतरफा घिरा हुआ था, वह भारत संग सीमा विवाद सुलझाने के लिए भारत के दबाव में आ गया। जो चीनी प्रधानमंत्री नेहरू को सीमा विवाद पर बातचीत के लिए बीजिंग बुलाने पर अड़े थे, वे झुके और अंततः उन्हें खुद भारत आना पड़ा। इस पांच दिवसीय 20 से 25 अप्रैल 1960 की यात्रा में क्या हुआ और कैसे चीन ने अपने आंतरिक कलह से अपनी जनता का ध्यान हटाने के लिए भारत पर हमला बोला, इसकी कहानी कल।