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Editorial

ठिठुरता, भीगता और पसीने बहाता लोकतंत्र

मेरी बात

‘स्वतंत्रता दिवस भीगता है और गणतंत्र दिवस ठिठुरता है। मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है, ‘घोर करतब-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं होता। हाथ अकड़ जाएंगे। लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रही हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलती है जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है।

पर कुछ लोग कहते हैं, ‘गरीबी मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते है, ‘ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।’

-हरिशंकर परसाई (सत्तर के शुरुआती दौर में लिखा गया व्यंग)
 

परसाई जी प्रखर और प्रख्यात व्यंगकार थे। उनके व्यंग रोचक होने के साथ-साथ सत्ता व्यवस्था पर तीखे प्रहार करने वाले होते थे। आज न तो परसाई सरीखे व्यंगकार बचे हैं, न ही व्यंग समझने और पढ़ने वाले। बचा है, ज्यादा विकृत हुआ है, तो केवल वह सच जिसकी तस्वीर ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ शीर्षक से लिखे गए अपने व्यंग में परसाई जी ने उकेरी थी। वर्तमान में गणतंत्र न केवल ठिठुर रहा है बल्कि भीगता हुआ, पसीने-पसीने होते हुए भीड़तंत्र में तब्दील हो चुका है। 1975 में अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा डाला था। अपने जीवनीकार डॉम मोरेस से उन्होंने आपातकाल लगाए जाने के कारणों की बाबत कहा था-‘1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पश्चात् मेरे पास सत्ता में बने रहने के सिवाय क्या विकल्प था? आपको पता ही  है कि देश की तब क्या स्थिति थी। ऐसे हालातों में यदि कोई नेतृत्व करने वाला नहीं होता तो देश का क्या होता? मैं ही अकेली ऐसी थी जो नेतृत्व कर सकती थी। देश के लिए सत्ता में बने रहना मेरा फर्ज था, हालांकि मैं ऐसा नहीं चाहती थी।’ यह इंदिरा जी का तर्क था, आपातकाल लगाए जाने को लेकर। आपातकाल के दौरान संविधान प्रदत्त सभी अधिकार नागरिकों से छीन लिए गए थे। एक के बाद एक ऐसे संशोधन संविधान में किए गए जिनके चलते उसका मूल स्वरूप पूरी तरह नष्ट कर दिया गया था। विपक्षी दलों के नेताओं, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं समेत हरेक उस आवाज को क्रूरतापूर्वक दबा दिया गया था जो इंदिरा सरकार के खिलाफ मुखर थी। न्यायपालिका और प्रेस तक ने तब इंदिरा जी के समक्ष हथियार डाल दिए थे। संसद में प्रश्नकाल की व्यवस्था समाप्त कर दी गई थी ताकि विपक्ष सरकार से अप्रिय प्रश्न न पूछ सके। ‘मीसा’ (मेन्टेनेन्स ऑफ इन्टरनल सिक्योरिटी एक्ट) कानून के जरिए लाखों को जेल में ठूस दिया गया था और अदालतों के अधिकारों को सीमित करते हुए इस कानून के तहत गिरफ्तार लोगों के मामलों की सुनवाई तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। गणतंत्र तब ठिठुरने नहीं लगा था बल्कि ‘कोमा’ में चले गया था। आपातकाल से ठीक पहले गुजरात और उसके बाद शुरू हुए बिहार में छात्र आंदोलन के दौर में नवंबर, 1975 जब पुलिस की लाठी से चोटिल हुए थे तब धर्मवीर भारती ने एक कविता लिखी थी, ‘मुनादी’ शीर्षक से। उन्होंने लिखा-

शहर का हर बशर वाकिफ है/कि पच्चीस साल से मुजिर है यह/कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए/कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए/कि मार खाते भले आदमी को/और असमत लूटती औरत को/और भूख से पेट दबाए ढांचे को/और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को/बचाने की बेअदबी की जाए!
जीप अगर बादशाह की है तो/उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं?/आखिर सड़क भी तो बादशाह ने बनवाई है।/बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले/अहसान फरमोशो/क्या भूल गए कि बादशाह ने/एक खूबसूरत माहौल दिया है जहां/भूख से ही सही, दिन में तुम्हे तारे नजर आते हैं/और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात-भर/तुम पर छांह किए रहते हैं/ और हूरें हर लैंपपोस्ट के नीचे खड़ी/मोटर वालों की ओर लपकती हैं/कि जन्नत तारी हो गई है जमीं पर/तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर/भला और क्या हासिल होने वाला है? …
जयप्रकाश नारायण की ‘संपूर्ण क्रांति’ का हश्र हम सभी जानते हैं। कुछ हासिल नहीं हुआ। ठीक वैसे ही जैसे 2011 में फिर एक बुड्ढे के पीछे भागने वाली जनता के हाथों कुछ नहीं आया। ‘संपूर्ण क्रांति’ की अलख से लाभान्वित हुए थे वे नेता जो इंदिरा गांधी द्वारा दुत्कारे गए थे। उन्हें 1977 में सत्ता में आने का अवसर जयप्रकाश जी ने दिया। अन्ना ने ठीक वैसा ही मौका केजरीवाल एंड टीम को दिल्ली की सत्ता तो देश की सत्ता में काबिज होने का अवसर भाजपा को उपलब्ध करा दिया। हालात आमजन के लिए जस के तस 1977 में भी रहे थे, आज भी बने हुए हैं। गणतंत्र जरूर एक बार फिर से ठिठुरता, भीगता और पसीना बहाता नजर आने लगा है। 1975 में चौतरफा कांग्रेस थी। प्रधानमंत्री कांग्रेस का था, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री का था। मुख्यमंत्री कांग्रेस के थे। जो नहीं थे उनको पैदल प्रधानमंत्री ने कर दिया था। संसद पूरी तरह कांग्रेस की थी। संविधान तक कांग्रेस (प्रधानमंत्री) की इच्छा और जरूरत अनुसार बदल दिया गया था। 48 बरस बाद अब एक बार फिर से ऐसा ही मंजर नजर आने लगा है। तब इंदिरा गांधी समूचे विपक्ष को भ्रष्ट, यहां तक कि जयप्रकाश नारायण तक को अमेरिकी खुफिया एजेंसी के हाथों बिका हुआ बताती थीं। वर्तमान प्रधानमंत्री भी समूचे विपक्ष को इसी श्रेणी में रख चुके हैं। तब हर तरफ कांग्रेस थी। आज हर तरफ भाजपा है। बांग्लादेश गठन के बाद इंदिरा जी को ‘दुर्गा’ कह पुकारा जाने लगा था। वर्तमान ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ का है। तब इंदिरा जी ने ‘गरीबी हटाओ’ का स्वप्न दिखाया था, वर्तमान में गरीबी और गरीब भले ही मरणासन्न हो, देश को ‘विश्व गुरु’ बनाए जाने का दिवास्वप्न परोसा जा रहा है। तब ‘मीसा’ था आज ‘ईडी’ और ‘सीबीआई’ हं, ‘यूएपीए’ है। तब न्यायपालिका को मनमुताबिक बनाने के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में सत्ता ने सीधे हस्तक्षेप किया था, यहां तक की न्यायपालिका की हदें तय करने के लिए संविधान तक संशोधित कर डाला था। वर्तमान में भी न्यायपालिका संग सत्ता का टकराव खुले तौर पर देखने को मिल रहा है। आज समूचा विपक्ष लोकतंत्र के खतरे में होने की बात एक सुर में बोल रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त होने का मुद्दा विपक्षी दलों को एकजुट कर चुका है। 1975 से 1977 तक भी हालात कुछ ऐसे ही थे। विपक्षी दलों के मध्य देश के लिए कोई नया विजन नहीं था। होता तो जनता सरकार का हश्र वह नहीं हुआ होता जो मात्र ढाई वर्षों (1977-80) के मध्य हुआ। मुद्दा तब इंदिरा गांधी थीं। आज नरेंद्र मोदी मुद्दा हैं। कांग्रेस को ममता बनर्जी फूटी आंख नहीं सुहाती, ममता को कांग्रेस। सपा का रिश्ता बसपा और कांग्रेस संग जगजाहिर है। जद(यू) ‘आयाराम-गयाराम’ के आदर्श पर चलता है, वामपंथी पूरी तरह हाशिए पर हैं और शरद पवार सरीखे बहुत सारे नेता और दल अविश्वसनीय। भाजपा, विशेषकर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इंदिरा गांधी की तरह खुद को अकेला ऐसा नेता मानने का भ्रम पाले हुए है जिसके बगैर देश चल नहीं सकता। ये सब कुछ, जो कुछ भी बीते कुछ वर्षों से होता हम देख रहे हैं, भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं दे रहा है। आपातकाल हटाए जाने के बाद जेल से रिहा किए गए जनसंघ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने प्रेस की भूमिका को लेकर कहा था- ‘आपसे घुटने टेकने को कहा गया था, आप तो रेंगने लगे।’ वर्तमान में प्रेस की जगह ले चुका मीडिया पूरी तरह चरणागत् है, सत्ता के। ऐसे में जब प्रतिरोध के स्वर कमजोर होते जा रहे हैं, अंग्रेजी दैनिक  ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के सलाहकार संपादक प्रताप भानू मेहता का एक आलेख ठिठुरते, कांपते, भीगते, पसीना बहाते गणतंत्र के भविष्य की बाबत ऐसा संकेत देता है जिसकी आशंका मुझे लंबे अर्से से हो रही है। भानू मेहता 28, मार्च के संपादकीय पृष्ठ में लिखते हैं-‘…These actions are alarming, not because this or that leader has been targeted. They are alarming because the current BJP government is signalling not just that it will not tolerate the Opposition. It will not, under any circumstances, even contemplate or allow a smooth transition of power. For, what these actions reveal is a ruthless lust for power, combined with a determination to use any means to secure it. Neither the form of power. the BJP seeks, nor the ends they deploy to achieve it, knows any constraints or bounds. This is the quintessential hallmark of tyranny’ (ये कार्रवाइयां खतरनाक हैं, इसलिए नहीं कि इस या उस विपक्षी नेता को निशाना बनाया गया है। यह इसलिए खतरनाक है क्योंकि वर्तमान भाजपा सरकार केवल यही संकेत नहीं दे रही कि वह विपक्ष को बर्दाश्त नहीं करेगी बल्कि यह भी संकेत दे रही है कि किसी भी परिस्थिति में वह सत्ता का शांतिपूर्वक हस्तातरण नहीं करने जा रही है। उनके द्वारा की जा रही कार्रवाई सत्ता में हर कीमत पर बने रहने की निर्मम लालसा को स्पष्ट प्रदर्शित कर रही है जिसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। सत्ता पाने और उसमें बने रहने के लिए भाजपा कुछ भी कर सकती है। यह अत्याचारी सत्ता की पहचान है)
आपातकाल के काले दौर को याद करते हुए वर्तमान को भानु प्रताप शुक्ल की नजरों से देखें तो लोकतंत्र के भविष्य को लेकर चिंताओं में इजाफा होना स्वाभाविक है। इतिहास खुद को दोहराएगा नहीं, ऐसी उम्मीद के साथ प्रतिरोध को जिंदा रखना बेहद आवश्यक है।

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