देश की शीर्ष अदालत ने भीड़ द्वारा हिंसा पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। सत्रह जुलाई को जब सुप्रीम कोर्ट मॉब लिंचिंग पर अपनी व्यवस्था दे रहा था, दिल्ली से सैकड़ों मील दूर झारखंड में अस्सी वर्षीय स्वामी अग्निवेश इसी हिंसा का शिकार हो रहे थे। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, ए एम खानविलकर और डी वाई चंद्रचूड़ की पीठ ने भीड़ हिंसा पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए टिप्पणी की कि किसी भी व्यक्ति को कानून अपने हाथों में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा से निपटने के लिए कठोर व्यवस्था बनाने के निर्देश भी दिए। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हर जिले में पुलिस अधीक्षक स्तर का एक अफसर इस प्रकार की हिंसा को रोकने के लिए बतौर नोडल अफसर नियुक्त किया जाए। केंद्र एवं राज्य सरकारें विभिन्न प्रसार माध्यमों के जरिए यह संदेश जनता तक पहुंचाएं कि इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जाएगी। कोर्ट ने सोशल मीडिया के माध्यम से फर्जी एवं उन्माद फैलाने वाले संदेशों को भेजने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने, भीड़ की हिंसा के शिकार लोगों को एक माह के भीतर उचित मुआवजा दिए जाने और ऐसे मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट से कराए जाने के भी निर्देश दिए हैं।
वर्ष 1901 में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में जातीय हिंसा अपने चरम पर थी। प्रसिद्ध लेखक मार्क ट्वेन ने तब अपने देश के ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ लिन्चरडम’ में बदलने की आशंका व्यक्त की थी। लिंचिंग शब्द का अर्थ है भीड़ द्वारा हत्या। इसी से मॉब लिंचिंग शब्द प्रचलन में आया जो आज हमारे देश में एक बड़ी समस्या का रूप ले चुका है। एक बड़े वर्ग का मानना है कि केंद्र और राज्यों में भाजपा सरकारों के आने के बाद से इस प्रवृत्ति का विस्तार हुआ है। यह अर्ध सत्य है। मॉब वायलेंस हमारे यहां दशकों से मौजूद रही है। आधी रात को मिली आजादी के समय धर्म आधारित विभाजन ने इस प्रवृत्ति को जन्म दिया जो आने वाले दशकों में विभिन्न कारणों के चलते तेजी से पनपी। धर्म और जाति इसके मुख्य कारण रहे हैं। हिंदू- मुस्लिम दंगे, हिंदू-सिख दंगे, सवर्ण और दलित जातियों के मध्य दंगे आदि 2014 के बाद की उपज नहीं हैं। हां, इतना अवश्य है कि वर्तमान दौर में एक नई प्रकार की संस्कृति का विकास हुआ है जिसमें सत्ता व्यवस्था एक खास प्रकार की भीड़ हिंसा के प्रति सहानुभूति रखती स्पष्ट दिखाई पड़ रही है। यदि देश की धर्मनिरपेक्ष ताकतें आज सहमी हुई हैं तो उसके मूल में उनकी इसी आशंका का होना है। इस प्रकार की भीड़ हिंसा को घृणा अपराध का नाम दिया जा सकता है। एक धर्म विशेष के प्रति आमजन को इतना आक्रोशित कर दो कि सच और झूठ में फर्क को समझनने के बजाय सीधे हिंसा का सहारा लिए जाने लगे। कथित गौ रक्षक संगठनों का पिछले कुछ सालों में तेजी से विस्तार इसी प्रवृत्ति के चलते हुआ जिसने आज विकराल रूप ले लिया है। इतना विकराल कि कुछ अर्सा पहले स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ऐेसे गौ रक्षकों के खिलाफ कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी। पीएम ने 2016 में गुजरात में चार दलित युवकों की भीड़ द्वारा पिटाई किए जाने पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इसे गौ रक्षक व्यापार का नाम दे डाला था। प्रधानमंत्री ने ऐसे कथित गौ रक्षकों को रात में अपराध करने और दिन में गौ रक्षक का लबादा ओढ़ लेने वाला बताया था।
यदि देश की सबसे ताकतवर राजनीतिक शख्सियत इस प्रकार की भीड़ हिंसा पर चिंतित हो, आक्रोशित हो और सार्वजनिक रूप से अपनी चिंता को व्यक्त भी कर रही हो, तब ऐसा क्यों है कि इस प्रकार की प्रवृत्ति का लगातार विस्तार हो रहा है। हालात इतने खतरनाक स्तर तक जा पहुंचे कि देश की शीर्ष अदालत को इसमें न केवल हस्तक्षेप करना पड़े, बल्कि अदालत को इस बाबत कठोर टिप्पणी और सख्त दिशा-निर्देश भी केंद्र और राज्य सरकारों को देने पड़े। जाहिर है कहीं न कहीं बड़ा लोचा अवश्य है। यह लोचा है हमारी राजनीतिक ताकतें जिनके प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संरक्षण के चलते इस प्रकार की प्रवृतियों को विस्तार मिलता है। 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा निर्मम हत्या के बाद जिस प्रकार से कांग्रेस पार्टी और केंद्र सरकार ने सिख विरोधी दंगों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से संरक्षण दिया उसे कैसे भुलाया जा सकता है।
वर्ष 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में भड़के मुस्लिम विरोधी दंगों के दौरान भी सत्तारूढ़ भाजपा ने भीड़ हिंसा को अपना प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन दिया। यही सबसे बड़ा कारण है जो भीड़ को हिंसक होने का साहस देता है। यदि पिछले कुछ अर्सों का ट्रेंड देखा जाए तो सत्ता इस प्रवृत्ति को संरक्षण देने का काम करती स्पष्ट दिखाई पड़ रही है। अप्रैल 2017 में राजस्थान के पहलु खान की निर्मम हत्या इसका ज्वलंत उदाहरण है। पशु मेले से गाय लेकर वापस लौट रहे खान की हत्या कथित गौ रक्षकों द्वारा कर दी गई थी। मीडिया के भारी दबाव के बाद राजस्थान पुलिस ने छह लोगों की गिरफ्तारी अवश्य की लेकिन कुछ अर्से बाद मामले को यह कहकर बंद कर दिया गया कि सभी गिरफ्तार लोग घटना स्थल पर मौजूद ही नहीं थे। जून 2017 में दिल्ली से फरीदाबाद लौट रहे जुनैद खां की भी भीड़ द्वारा रेल यात्रा के दौरान हत्या कर दी गई। गौ रक्षा के नाम पर की गई इस हत्या के बाद ही प्रधानमंत्री मोदी ने इन कथित गौ रक्षकों के खिलाफ अपनी प्रतिक्रिया दी थी। अगस्त 2017 में पश्चिम बंगाल के कूच बिहार जिले में तीन मुसलमानों को पीट-पीटकर भीड़ द्वारा मार डाला गया था। इस हत्या के पीछे भी गौ रक्षा का बहाना था। इससे पहले 2015 में उत्तर प्रदेश के जनपद गौतम बुद्ध नगर में अखलाक की हत्या भी गौमांस खाने की आशंका के चलते हुई थी। तब स्थानीय सांसद और केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने इस हत्या को दुर्घटना का नाम दिया था। इतना ही नहीं अक्टूबर 2016 में इस हत्या के एक आरोपी रवि सिसोदिया की जेल में मृत्यु के पश्चात महेश शर्मा उसके अंतिम संस्कार में भी शामिल हुए। हैरतनाक यह कि मृतक के शव को तिरंगे में लिपटा कर रखा गया था।
अभी कुछ अर्सा पहले केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा जो बिहार के हजारीबाग से लोकसभा सदस्य हैं, ने भीड़ हत्या के आठ आरोपियों को फूल-माला पहना सम्मानित कर डाला। इन आरोपियों को एक फास्ट ट्रैक कोर्ट आजीवन कारावास की सजा सुना चुका है। झारखंड उच्च न्यायालय से बेल पर छूटे इन अपराधियों को जयंत सिन्हा ने माल्यार्पण के योग्य समझा। जाहिर है यही वो संकेत हैं जो ऐसी प्रवृत्ति को विस्तार देने का काम कर रहे हैं। आर्यसमाजी स्वामी अग्निवेश पर हमले के पीछे भी भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा का हाथ होने का आरोप लग रहा है। इसके कुछ दिन पूर्व कांग्रेसी नेता शशि थरूर के तिरूअनंतपुरम स्थित कार्यालय में भाजपा युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने तोड़-फोड़ की। गौ रक्षा के नाम पर, राष्ट्रवाद के नाम पर यकायक भीड़ हिंसा की घटनाओं के बढ़ने पर ही यह आरोप भाजपा और केंद्र सरकार पर लग रहा है कि इस सबके पीछे कहीं न कहीं उनका हाथ है। हालांकि यह अर्ध सत्य है। पहले भी ऐसा होता आया है। दलितों के खिलाफ आजादी के बाद लगातार ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जाता रहा है। अल्पसंख्यक समाज के खिलाफ भीड़ हत्या की सैकड़ों घटनाएं उस दौर में जमकर घटी जब सत्ता में कांग्रेस अथवा अन्य दलों का शासन रहा। सच यह कि हर दौर में, हर समाज में विभिन्न वर्गों के बीच, विभिन्न मुद्दों पर तनाव रहता आया है। समाज के विकास के साथ-साथ आपसी बातचीत के जरिए ऐसे मुद्दों का हल निकाले जाने की प्रक्रिया विकसित हुई। जो समाज जितना परिपक्व होता गया वहां हिंसा का स्थान आपसी समझ और सौहार्द ने ले लिया। हम अपनी संस्कृति और गौरवशाही अतीत की दुहाई देते नहीं अघाते। यदि सही में ऐसा होता तो आज इक्कीसवीं शताब्दी में हम एक सहिष्षुण और परिपक्व समाज के रूप में विकसित हो चले होते जहां हिंसा का कोई स्थान न होता। हालात लेकिन दिनों-दिन विकट होते जा रहे हैं। लोकतंत्र तेजी से भीड़तंत्र में बदल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी प्रवृत्ति पर प्रहार करने की नीयत से केंद्र और राज्य सरकारों को कड़े दिशा-निर्देश जारी किए हैं। संकट लेकिन यह कि कड़े कानून भले ही इस प्रकार की समाज विरोधी प्रवृतियों पर कुछ हद तक अंकुश लगा लें, इनका निदान नहीं कर सकते। उसके लिए बड़े स्तर पर चेतना जागृत करने का महायज्ञ जरूरी है जो वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य में दूर-दूर तक संभव नजर नहीं आता।