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गत्‌ माह छब्बीस मई को मोदी सरकार के चार बरस केंद्र की सत्ता में पूरे हो गए। इस अवसर को अपेक्षानुसार भाजपा ने सरकार की उपलब्धियों को गिनाने तो विपक्ष ने उन्हें कोसने के बतौर इस्तेमाल किया। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब भाजपा ने मई २०१४ में केंद्र की सत्ता संभाली थी तो जनअपेक्षाएं अपने चरम पर थी। कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि ये जनअपेक्षाएं भाजपा से नहीं, बल्कि नरेंद्र भाई मोदी के चमत्कारी व्यक्तित्व के चलते जनता के भीतर जगी थी। निश्चित ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संद्घ और भाजपा की मोदी को पीएम उम्मीदवार द्घोषित करने की रणनीति सही रही। शायद लालकूष्ण आडवाणी या अन्य किसी चेहरे को आगे किया जाता तो इतनी बड़ी सफलता भाजपा को न मिलती। बतौर प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी पार्टी की शुरुआत शपथग्रहण समारोह को भव्य स्तर पर आयोजित कर की। ऐसा पहली बार हुआ कि कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष किसी भारतीय प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने पहुंचे। मोदी ने सत्ता संभालने के साथ ही एक काम करने वाले प्रधानमंत्री की छवि बनाने में सफलता पाई। गुजरात का मुख्यमंत्री रहते उनकी छवि उद्योगपतियों से लगाव रखने वाले की बन गई थी। देश की कमान संभालने के साथ ही मोदी ने इस छवि को बरकरार रखने के साथ-साथ आम आदमी संग भी अपनी पहुंच को मजबूती देने का प्रयास शुरू किया। गांवों में बिजली पहुंचाने की महत्वाकांक्षी सौभाग्य योजना, निःशुल्क गैस कनेक्शन देने के लिए उज्ज्वला योजना, सस्ते द्घर उपलब्ध कराने के लिए इंदिरा आवास योजना को गति देना, ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े स्तर पर शौचालय निर्माण करवाना, बैंकिंग सेवाओं को गांव-देहात तक पहुंचाने के लिए महत्वाकांक्षी जन-धन योजना, सरकारी अनुदानों को दलालों से बचाने के उद्देश्य से डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांस्फर को लागू करना आदि उनके ऐसे अनेक कार्यक्रमों की शुरुआत हुई जिनसे आमजन का मोदी पर जताया भरोसा ठीक निर्णय साबित होता प्रतीत होने लगा। नरेंद्र मोदी ने नौकरशाही पर भी नकेल डालने का प्रयास अपने शासन के पहले साल ही शुरू कर दिया। उन्होंने विकास योजनाओं की जानकारी सचिव स्तर के अधिकारियों से सीधे संपर्क कर लेनी शुरू कर दी। इस व्यवस्था से भले ही विभागीय मंत्री असंतुष्ट दिखे, मोदी ने अपनी कार्यशैली में बदलाव नहीं किया। उन्होंने देश की विदेश नीति पर भी अपना नियंत्रण मजबूती से बनाया। सुषमा स्वराज जैसी कर्मठ मंत्री भी मोदी के समक्ष टिक न सकीं। अपने पड़ोसियों संग संबंध सुधारने की उनकी पहल को सर्वत्र सराहा गया। उनकी एक सार्थक पहल तेल उत्पादक मुस्लिम देशों के साथ संबंध प्रगाढ़ करने की रही जिससे एक फायदा इन मुल्कों के पाकिस्तान संग संबंधों पर भी पड़ा। प्रधानमंत्री ने नवंबर २०१६ में यकायक ही हजार और पांच सौ रुपयों की बंदी कर कालेधन पर अंकुश लगाने की बड़ी पहल की। पूरे देश में एक ही कर लागू करने की महत्वाकांक्षा जीएसटी योजना को भी उन्होंने लागू कर दिया। आमजन मानस में इन सबका भारी सकारात्मक प्रभाव पड़ा। जिन अनअपेक्षाओं के सहारे वे भाजपा को पूर्ण बहुमत दिला केंद्र की सत्ता में ला पाने में सफल हुए थे, उनके पूरी होने आस पूरी होती इस दौर में नजर आने लगी थी। इसे प्रधानमंत्री मोदी संग जनमानस का हनीमूनकाल कहा जा सकता है। मोदी संग यह हनीमूनकाल अन्य सरकारों की अपेक्षा लंबा चला है। यही कारण है इस दौरान लगातार भाजपा का विस्तार होता गया और देश के बाईस राज्यों में भाजपा अथवा उसकी सहयोगी दलों की सरकार बन गई। यह मोदी की करिश्माई छवि और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति का ही कमाल है कि पूर्वोत्तर तक के राज्यों में कमल खिल उठा है। अब लेकिन चौथे वर्ष में, यानी आम चुनाव के वर्ष में मोदी मैजिक ढलान की ओर है। यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होगा कि हनीमूनकाल लगभग समाप्त हो चला है और आमजन से लेकर खास जन तक मोदी सरकार, यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी से मोहभंग होने लगा है। इसका एक बड़ा कारण केंद्र सरकार की उन महत्वपूर्ण योजनाओं का धरातल पर कुछ कारगर ना होना है जिन्हें बहुत धूम- धड़ाके से, बैंड-बाजे के साथ लागू किया गया था। नोटबंदी का नतीजा यह रहा कि सारा कथित कालाधन सफेद की शक्ल में बैंको में जमा हो गया है। भारत का केंद्रीय बैंक यानी रिवर्ज बैंक ऑफ इंडिया नोटबंदी के बाद जमा हुए धन और ना जमा हुए धन की अंतिम रिपोर्ट दो बरस बीत जाने के बाद भी नहीं दे पाया है। व्यापार हर स्तर पर इस नोटबंदी के चलते प्रभावित हुआ, इतना प्रभावित कि बड़ी संख्या में लद्घु और मझोले उद्योग बंद हो गए। इस बंदी के चलते लाखों बेरोजगार हो गए, वादा हालांकि प्रति वर्ष करोड़ों रोजगार उपलब्ध कराने का था। अनियोजित तरीके से लागू जीएसटी के चलते नोटबंदी से अस्त-व्यस्त व्यापार जगत त्राहि-त्राहि करने लगा है। भारत को खुला शौच मुक्त कराने की महत्वाकांक्षी योजना भी सरकारी शौशेबाजी और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है। उत्तराखण्ड सरकार इसका ज्वलंत उदाहरण है जिसने प्रधानमंत्री की केदारनाथ धाम यात्रा के दौरान राज्य के शहरी क्षेत्र को पूरी तरह खुला शौचमुक्त होने की द्घोषणा स्वयं मोदी जी से करवा दी। सच यह कि हरिद्वार जैसा धार्मिक महत्व का शहर तक खुले शौच से मुक्त नहीं हो सका है। भाजपा ने जनता से प्रतिवर्ष दो करोड़ नए रोजगार उपलब्ध कराने का वादा किया था। सच्चाई यह कि इन चार वर्षों में बेरोजगारी का तेजी से विस्तार हुआ है। उद्योग धंधों की कमर टूटने के चलते भारी मात्रा में लोगों की नौकरियां समाप्त हो चुकी हैं। केंद्र सरकार के पैरोकारों का कहना है कि सरकार ने आसान शर्तों पर स्वरोजगार के लिए ऋण उपलब्ध कराने के अनूठी पहल की है जिसके चलते बेरोजगार अपने पैरों पर खड़े हो सके हैं। लेकिन उनका यह तर्क आमजन के गले नहीं उतर रहा। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का सुझाव कि पकौड़े बनाकर आजीविका कमार्ई जाए, से जनआक्रोश बढ़ा है। किसानों की दशा यूपीए शासन काल में बदत्तर थी, लगातार सूखे के चलते वह अपने कर्ज की अदायगी नहीं कर पा रहा था। बड़े पैमाने पर देशभर में किसान आत्महत्याओं के मामले सामने आ रहे थे। आज मोदी सरकार के चार बरस बाद भी किसान की दशा में रत्ती भर सुधार नजर नहीं आ रहा है। लंबे समय तक तो कृषि को लेकर केंद्र की वर्तमान सरकार स्पष्ट नीति ही नहीं बनाती नजर आई। हालांकि बाद में प्रधानमंत्री की पहल से फसल बीमा योजना को लागू किया गया जिससे किसान को कुछ राहत अवश्य पहुंची। इसी प्रकार फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाया गया। लेकिन कूषि आधारित मुल्क में कूषि और किसान, दोनों का ही संकट ज्यों का त्यों है। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘सबका साथ-सबका विकास’ की बात कही थी। २०१४ में अल्पसंख्यकों के एक बड़े वर्ग ने भाजपा को इसी विश्वास के साथ अपना वोट दिया था। इन चार वर्षों में अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलमान मुख्य धारा से कटा है। धर्म को लेकर असहिष्णुता का बड़े पैमाने पर विस्तार हुआ है। यदि जुलियो रिबेरो जैसे कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी को यह कहना पड़े कि वे खुद को मानसिक तौर पर दोयम दर्जे का नागरिक मानने को तैयार हैं, तब स्थिति की गंभीरता से समझना कठिन नहीं। पीएम मोदी की सरकार की एक बड़ी उपलब्धि है केंद्र सरकार के स्तर पर किसी भी प्रकार के बड़े घोटाले  का ना होना। यूपीए के दूसरे शासनकाल में प्रतिदिन एक बड़े द्घोटाले का सामने आना समान्य बात बन चुकी थी। मोदी सरकार में इसका ना होना निसंदेह एक सकारात्मक बात है जिसका पूरा श्रेय पीएम मोदी को जाता है। हालांकि विपक्षी दल वायुसेना के लिए हुए खरबों के राफेल विमान खरीद पर सवाल खड़े कर रहे हैं, लेकिन प्रमाणिक तौर पर फिलहाल कुछ सामने नहीं आया है। दूसरी तरफ मोदी सरकार के इन चार वर्षों में न्यायपालिका और सरकार के मध्य टकराव खतरे के निशान से ऊपर पहुंच चुका है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं। कुल मिलाकर मोदी और उनकी सरकार जनअपेक्षाओं पर खरे उतर नहीं पाए हैं। सीएसडीएस लोकनीति का पिछले दिनों जारी हुआ सर्वेक्षण भी इसी तरफ इशारा करता है। भाजपा के लिए चिंता का बड़ा विषय विपक्षी कुनबे का एकजुट होना तो है ही, जनविश्वास का तेजी से दरकना भी है। सीएसडीएस एक सर्वे के अनुसार भाजपा का मुख्य आधार कहे जाने वाला व्यापारी वर्ग भी उससे दूर चला गया है। दलितों और पिछड़ों ने भी २०१४ में अपने परंपरागत नेतृत्व से किनारा कर भाजपा पर विश्वास जताया था, इस सर्वे के मुताबिक अब इस वर्ग का मतदाता भी भाजपा से दूर हो चुका है। यहां एक और बात गौरतलब है। ज्यादातर सरकारों के लिए सत्ता का चौथा बरस यानी चुनावी बरस खास कठिन होता आया है। १९८४ में अभूतपूर्व जनसमर्थन पा केंद्र की सत्ता में काबिज हुए राजीव गांधी चुनावी बरस तक पहुंचते-पहुंचते पूरी तरह लड़खड़ा गए थे। बोफोर्स द्घोटाला, श्रीलंका में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स का मुद्दा आदि बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसने राजीव की मि क्लीन छवि को धूमिल कर डाला। पीवी नरसिम्हा राव संग भी ऐसा ही हुआ। आर्थिक सुधारों के जनक माने गए नरसिम्हा राव की सरकार भी चौथे बरस लड़खड़ाने लगी थी। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार जरूर अपवाद रही। २००४ में अटल जी अपनी यश और कीर्ति के चरम पर थे। इंडिया मुदित और मुदित नजर आ रहा था। लेकिन चुनावी नतीजे बिल्कुल उलट गए। मोदी सरकार के लिए यह चौतरफा संकट का समय है। जनअपेक्षाओं के अनुकूल नतीजे ना आने से जनमानस में निराशा बढ़ रही है, मोदी के करिशमाई छवि के चलते भाजपा को लगभग पूरे देश में अपनी पकड़ मजबूत करने का सुनहरा अवसर अवश्य मिला लेकिन विपक्षी गोलबंदी के चलते अब पेंच फंसता नजर आ रहा है। यह कहना जल्दबाजी होगी कि २०१९ का जनादेश भाजपा और एनडीए के लिए २००४ समान होगा, इतना अवश्य प्रतीत होगा कि २०१४ वाली स्थिति नहीं होगी। हां, यदि बचे हुए इन चंद महीनों में कोई चमत्कार ऐसा ना हो जाए कि मोदी से टूटती आस फिर से जग उठे तो।

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