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Editorial

गांधी की नजरों में बोस

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-23

 

स्वतंत्रता संग्राम में 1930 से 1940 का दशक बेहद उथल-पुथल का दशक रहा है। इन दस बरसों के दौरान कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य भारी मतभेद तो उभरे ही, दोनों ही संगठनों में आंतरिक कलह भी अपने चरम पर जा पहुंचा। कांग्रेस ऊपरी तौर पर महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूर्ण स्वराज की राह पर तो चल रही थी लेकिन गांधी की नीतियों को लेकर उसके भीतर भारी असंतोष के स्वर भी उभरने लगे थे। वामपंथी और समाजवादी विचारधारा से जुड़े कांग्रेसियों ने इस कालखंड में पार्टी भीतर अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी थी। मोती लाल नेहरू की मृत्यु (फरवरी, 1931) बाद उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू को गांधी ने कांग्रेस में आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था। विलायत से उच्च शिक्षा प्राप्त जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के मध्य वैचारिक टकराव कांग्रेस भीतर बड़े बदलाव की बुनियाद तैयार करने लगा था। 1934 में यकायक ही महात्मा गांधी ने कांग्रेस छोड़ने का ऐलान कर दिया। गांधी दरअसल कांग्रेस की युवा पीढ़ी के नेताओं के आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से खुद को जोड़ नहीं पा रहे थे। 17, सितंबर, 1934 को ‘यंग इंडिया’ में लिखा उनका एक आलेख इसकी पृष्टि करता है। उन्होंने लिखा ‘Nevertheless my conviction is growing that if India is to win complete independence in terms of toiling millions and through unadulterated non-violence, the spinning wheel and khadi have to be as natural to the educated few as to the  partially unemployed and semi-starved millions, who for not using their hands for the purpose for which nature has endowed man with them, have become almost like beasts of burden. The spinning wheel is thus an emblem of human dignity and equality in the truest sense of the term. It is the handmaid of agriculture. It is the nation’s second lung. We are perishing because we are using only one lung. Yet only a few congress man have a living faith is the India wide potency of the wheel’ (फिर भी मेरा विश्वास मजबूत हो रहा है कि यदि भारत को पूर्ण स्वराज प्राप्त करना है तो उसे पूरी तरह अहिंसा के मार्ग पर चलकर और चरखे और खादी को आगे रखकर इसे प्राप्त करना होगा। चरखा मानवीय गरिमा का प्रतीक है। यह देश का दूसरा फेफड़ा है। हम समाप्त हो रहे हैं क्योंकि हम एक ही फेफड़े से जीने का प्रयास कर रहे हैं। इसके बावजूद केवल मुट्ठी भर कांग्रेसियों को चरखे के महत्व पर विश्वास है) शोषित समाज को लेकर भी गांधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं में मतांतर बढ़ने लगा था। गांधी के अहिंसा का सिद्धांत भी बहुत से बड़े कांग्रेस नेताओं को उनके खिलाफ करने का कारण बनते जा रहा था। अक्टूबर 28, 1934 को महात्मा ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से त्याग पत्र दे दिया। इस कालखंड में सुभाष चंद्र बोस का कद लगातार बढ़ता गया। 1937 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुन लिए गए थे। कांग्रेस से इस्तीफा देने के बावजूद महात्मा इस पूरे दौर में भी पार्टी की धुरी बने रहे। बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने को लेकर गांधी की राय उनके उस पत्र से स्पष्ट होती है जो उन्होंने सरदार वल्लभ भाई पटेल को 1, नवंबर 1937 को लिखा। इस पत्र में गांधी कहते हैं-

‘I have observed that Subhas is not at all dependable. However, there is nobody, but he who can be the President’ (मैंने देखा है कि सुभाष किसी भी तौर से भरोसेमंद नहीं हैं लेकिन उनके सिवा कोई अन्य कांग्रेस अध्यक्ष बन नहीं सकता)। सुभाष बोस का मानना था कि कांग्रेस को तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को समझते हुए ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ रहने वाली हर ताकत से संपर्क कर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसी ताकतों से मदद लेनी चाहिए। सुभाष चंद्र और उनके भाई शरत चंद्र की जीवनी ‘ब्रदर्स अगेंस्ट दि राज’(Brother’s against the Raj) के लेखक लियोनार्ड गोर्डन ने अपनी इस पुस्तक में सुभाष बोस के एक पत्र का उल्लेख किया है जो बोस ने मार्च, 1938 में नेहरू को लिखा था। इस पत्र में उन्होंने लिखा ‘….  आपके और आपके साथी  गांधीवादियों द्वारा अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का लाभ उठाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है।…मेरा मानना है कि या तो हमें अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य को ठीक से समझते हुए उनका लाभ उठाना चाहिए अथवा इस विषय को पूरी तरह छोड़ देना चाहिए।’ गांधी और उनके समर्थक कांग्रेस नेताओं की सलाह दरकिनार कर बोस ने बतौर कांग्रेस अध्यक्ष उन विदेशी ताकतों से संपर्क करना शुरू कर दिया जो ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ थीं। इनमें प्रमुख रूप से जर्मनी, इटली और जापान शामिल थे। विशेष रूप से हिटलर शासित जर्मनी से बोस ने संपर्क तेज करने का काम किया जिसके लिए गांधी कतई तैयार नहीं थे। महात्मा नहीं चाहते थे कि अपना एक बरस का कार्यकाल पूरा करने के बाद बोस दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उन्होंने सरदार बल्लभ भाई पटेल को इस बाबत बोस से बातचीत करने के लिए अधिकृत किया। सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल के मध्य इस बाबत हुआ कई दौर का विमर्श विफल रहा। गांधी ने नए कांग्रेस अध्यक्ष के लिए अपने करीबी कांग्रेसी नेता पट्टाभि सीतारमैय्या को खड़ा किया जिन्हें हरा बोस 1939 में फिर से कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए। यह महात्मा के लिए बड़ा आघात था। गांधी समर्थकों ने बोस की जीत के तुरंत बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने वालों में नेहरू भी शामिल थे। बोस के समक्ष इन इस्तीफों के चलते बड़ी असमंजस की स्थिति पैदा हो गई। सार्वजनिक तौर पर गांधी ने बोस को दोबारा अध्यक्ष चुने जाने पर बधाई तो दी लेकिन उनकी भाषा से स्पष्ट झलकता है कि वे इस विजय से आहत थे। 4, फरवरी, 1939 को ‘हरिजन’ में प्रकाशित एक आलेख में गांधी ने लिखा- ‘Shri Subhas Boss has achieved a decisive victory…I must confess that from the begining i was decidedly agaist his re-election…I do not subscribe to his fact or the argument in his menifesto…Never the less, I am glad of his victory…after all Subhas Bose is not an enemy of his country’ (श्री सुभाष बोस ने शानदार जीत हासिल की है….मैं स्वीकारता हूं कि शुरुआत से ही मैं उनके दोबारा चुनाव लड़ने के खिलाफ था…..मैं उनके कथनों से इत्तेफाक नहीं रखता हूं, फिर भी मुझे उनकी जीत पर प्रसन्नता है…आखिरकार सुभाष बोस अपने देश के दुश्मन तो हैं नहीं)।

गांधी के इस लिखे से स्पष्ट हो जाता है कि वे सुभाष बोस की नीतियों से कतई भी सहमत न होने के कारण उनको दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष बतौर नहीं चाहते थे। भले ही गांधी ने सार्वजनिक तौर पर आधे-अधूरे मन से ही सही, बोस को बधाई दी हो, उन्होंने बोस पर भारी मानसिक दबाव बनाना शुरू कर दिया था। बोस भी यह समझ रहे थे कि महात्मा के सहयोग बगैर वे कांग्रेस का नेतृत्व कर नहीं पाएंगे। इसी चलते उन्होंने महात्मा के प्रति नरम रुख का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। 4 फरवरी, 1939 के अंग्रेजी अखबार ‘स्टेट्समैन’ में उनके हवाले से कहा गया ‘ I donot know what opinion Mahatmaji has of me, But what ever his view may be, it will always be my aim and object to try and win his confidence for the simple reason that it will be a tragic thing for me if I succeed in winning the corfidence of other people but fail to win the confidence of India’s greatest man’  (मैं नहीं जानता महात्मा जी मेरे बारे में क्या राय रखते हैं लेकिन मेरा हमेशा प्रयास रहेगा कि मैं उनका भरोसा जीत सकूं। यदि मैं ऐसा नहीं कर पाया तो यह मेरे लिए एक बड़ी त्रासदी होगी कि मैंने जनता का भरोसा तो जीता लेकिन भारत के सबसे महान आदमी का भरोसा न जीत सका)। बोस के तमाम प्रयास लेकिन व्यर्थ गए। गांधी के अनुयायियों ने ऐसी व्यूह रचना कर डाली कि बोस के समक्ष कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के सिवा कोई चारा बचा नहीं। मार्च, 1939 में बोस ने इस पद से ‘गांधी जी की इच्छाओं’ का सम्मान करते हुए त्याग पत्र दे डाला। इसके बाद बोस और गांधीवादियों के मध्य दूरी लगातार बढ़ती चली गई। कांग्रेस में रहते हुए बोस ने ‘फाॅरवर्ड ब्लाॅक’ नाम से एक नए समूह की नींव रखी जिसके जरिए उनका उद्देश्य उन सभी ताकतों को एक मंच प्रदान करना था जो कांग्रेस, विशेषकर गांधी की विचारधारा से सैद्धांतिक मतभेद रखते हुए स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान दे रहे थे।

यही वह समय था जब मोहम्मद अली जिन्ना अपनी राष्ट्रवादी राजनीति को पूरी तरह त्याग एक कट्टरपंथी मुस्लिम नेता बतौर खुद को स्थापित करने में जुटे हुए थे। जिन्ना का अब कांग्रेस से पूरी तरह मोहभंग हो चला था और उनकी पूरी राजनीति अब मुस्लिम परस्त हो चली थी। 26 दिसंबर, 1938 को पटना में आयोजित मुस्लिम लीग के तीन दिवसीय सम्मेलन में जिन्ना का भाषण स्थापित करता है कि प्रांतीय सभाओं के चुनावों में मिली करारी शिकस्त और कांग्रेस द्वारा लीग के साथ मिलकर सरकार न बनाने के निर्णय ने जिन्ना को पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ कर डाला था। ‘परिपूर रिपोर्ट’ के जरिए जिन्ना यह स्थापित करना चाह रहे थे कि कांग्रेस शासित प्रांतों में बहुसंख्यक हिंदुओं द्वारा अल्पसंख्यक मुसलमानों संग अत्याचार किया जा रहा है जिसे इन प्रांतों की सरकारों का संरक्षण प्राप्त है। पटना में आयोजित सभा में जिन्ना ने अपनी भविष्य की रणनीति और राजनीति की तरफ इशारा करते हुए महात्मा गांधी को एक हिंदू परस्त नेता करार दे दिया।

क्रमशः

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