अकबर के कथन से ठीक विपरीत इन दंगों की जांच के लिए बने सक्सेना आयोग ने धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए मुस्लिम लीग के नेता शमीम अहमद खान को मुख्य आरोपी करार दिया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एम.पी. सक्सेना ने इन दंगों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की भूमिका को पूरी तरह नकारते हुए अल्पसंख्यक समाज को वोट बैंक मानने की प्रकृति को इस दंगे की मुख्य वजह बताया था। सक्सेना आयोग की रिपोर्ट को पूरी तरह दबा दिया गया और दंगे के लिए किसी की भी जिम्मेवारी तय नहीं की गई। रामचंद्र गुहा 1980 के बाद कौमी दंगों में आई तेजी को हिंदूवादी राजनीतिक दल भाजपा के गठन से सीधे जोड़ते हैं। गुहा के अनुसार- ‘भाजपा के गठन ने पश्चिम भारत और उत्तर प्रदेश में धार्मिक हिंसा की लहर पैदा करने का काम किया। उत्तर प्रदेश के शहरों मुरादाबाद (अगस्त, 1980), मेरठ (सितम्बर-अक्टूबरए 1980) और बिहार के शहर बिहार शरीफ में (अप्रैल-मई 1981), गुजरात के वडोदरा (सितम्बर, 1981), गोधरा (अक्टूबर, 1981) और अहमदाबाद (जनवरीए 1982), आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में (सितम्बर, 1983), महाराष्ट्र के शहर भिवंडी और बॉम्बे (मई-जून, 1984) में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए।’
जातिगत तनाव भी इस दौर में तेज होने लगा था। स्वर्ण जातियों के उत्पीड़न से त्रस्त होकर तमिलनाडु के तिरूनेलवेली जिले के एक गांव मीनाक्षीपुरम के 300 दलित परिवारों ने 19 फरवरी, 1981 को इस्लाम धर्म अपनाकर सनसनी पैदा करने काम किया था। मीनाक्षीपुरम का नाम भी गांववालों ने स्वतः ही बदलकर रहमतनगर कर डाला। तब भाजपा और विश्व हिंदू परिषद् ने इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाने का काम किया था। भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने मीनाक्षीपुरम का दौरा कर यह प्रयास किया था कि ‘ धर्म परिवर्तन करने वाले हिंदू परिवार वापस लौट आएं, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए थे।’
इसी कालखण्ड में गुजरात में भी जातीय हिंसा ने तेजी पकड़ी थी। यहां तनाव का कारण शिक्षण संस्थाओं मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेजों में पिछड़ी जातियों के लिए सीटों को आरक्षित किए जाने की मांग थीए जिसका पुरजोर विरोध राज्य की स्वर्ण जातियों द्वारा किया जा रहा था। आरक्षण का विरोध जल्द ही राज्य के 19 में से 18 जिलों में हिंसक हो उठाए जिसमें करीब 50 लोगों की मौत हो गई थी।
इंदिरा गांधी सरकार के समक्ष देशभर में श्रमिक असंतोष का उभार भी एक बड़ी समस्या बनकर उभरने लगा था। इस समस्या के मूल में बम्बई (अब मुम्बई) के कपड़़ा उद्योग से जुड़े कामगार थेए जो अपने नेता डॉ. दत्ता सामंत उर्फ डॉक्टर साहब के नेतृत्व में 1982 में बेमियादी हड़ताल पर चले गए। दत्ता सामंत पेशे से डॉक्टर और मूल रूप से कांग्रेसी नेता थे। 60 और 70 के दशक में बम्बई-थाने औद्योगिक क्षेत्र में श्रमिक असंतोष के दिनों से ही दत्ता सामंत ट्रेड यूनियन की गतिविधियों का हिस्सा बन गए थे। कांग्रेस के श्रमिक संगठन ‘इंटक’ (इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस) में शामिल होकर दत्ता सामंत ने जल्द ही बतौर उग्र श्रमिक नेता अपनी अलग पहचान स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। 1972 में सामंत कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए, लेकिन अपनी उग्र कार्यशैली के चलते शीघ्र ही वे कांग्रेस नेतृत्व की आंखों में खटकने लगे। 1975 में आपातकाल लगने के साथ ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। सामंत ने ‘इंटक’ से अपना नाता इस गिरफ्तारी बाद पूरी तरह तोड़ लिया।
1982 में बम्बई (अब मुम्बई) के कपड़़ा मजदूरों ने सामंत के नेतृत्व में अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू कर दी। 18 जनवरी, 1982 को शुरू हुई इस हड़ताल ने कपड़़ा मिलों को बुरी तरह प्रभावित करने का काम किया। लगभग तीन लाख कपड़़ा मजदूरों के काम पर न आने के चलते सभी कपड़ा मिल ठप्प पड़ गईं। सामंत की मुख्य मांगों में मजदूरों की वेतन-वृद्धि के साथ-साथ कांग्रेस से जुड़ी मजदूर यूनियन राष्ट्रीय मिल मजदूर संघ’ को मजदूर यूनियन के तौर पर मिली एकमात्र और एकछत्र मान्यता को समाप्त करना शामिल था। केंद्र और राज्य सरकार ने सामंत की मांगों को एक सिरे से खारिज कर हड़ताल की समाप्ति के सभी मार्ग बंद कर दिए थे। लगभग दो बरस तक चली इस हड़ताल के चलते बड़ी संख्या में कपड़़े की मिलें या तो बंद हो गईं या फिर उन्हें उनके प्रबंधकों द्वारा बम्बई से बाहर स्थापित कर दिया गया था। इस एक अकेली हड़ताल ने बम्बई अब (मुम्बई) के फलते-फूलते कपड़़ा उद्योग को पूरी तरह से चौपट करने का काम कर दिखाया। इस हड़ताल का असर महाराष्ट्र के पुलिस बल पर भी पड़ा, जिन्होंने मिल मजदूरों की तर्ज पर अपनी यूनियन बनाकर और बेहतर कामकाजी माहौल की मांग उठा हड़ताल कर दी थी। राज्य सरकार ने अपने सशस्त्र सुरक्षा बल की इस हड़ताल को घोर अनुशासनहीनता मानते हुए सख्ती से कुचला और हड़ताली पुलिसकर्मियों को सेवा से बर्खास्त कर जेल भेज दिया था। राजीव गांधी ने ऐसे विषम समय में राजनीति में प्रवेश लिया था और शीघ्र ही इनमें से कई समस्याओं को सुलझाने के लिए चल रहे प्रयासों का वे हिस्सा बन गए थे।
राजीव गांधी का राजनीति में प्रवेश 1981 के मध्य में हुआ। इस समय में पंजाब में हालात बेहद विस्फोटक हो चले थे। जनरैल सिंह भिंडरावाला की तूती चौतरफा बोल रही थी। जल्द ही दिल्ली में आयोजित होने जा रहे एशियाई खेलों (एशियाड-1982) को लेकर राजीव और भिंडरावाला की सीधी मुठभेड़ होने से राजीव का दखल पंजाब समस्या पर पड़ना नियति ने तय कर रखा थाए लेकिन उसकी चर्चा बाद में। पहले बात कांग्रेस के दो दिग्गज सिख नेताओं के चलते पंजाब में भिंडरावाला की हिंसक और अलगाववादी सोच का विस्तार होना और अकाली दल का अंततः भिंडरावाला के साथ हाथ मिलाने के चलते खालिस्तानी समर्थक ताकतों के प्रभुत्व बढ़ने की। अप्रैलए 1980 में निरंकारी संत बाबा गुरचरण सिंह की हत्या के बाद भिंडरावाला की ताकत में भारी इजाफा देखने को मिलता है। इस हत्याकाण्ड के पीछे भिंडरावाला का हाथ होने की बात उठी थी, लेकिन तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह के दबाव में राज्य सरकार ने भिंडरावाला के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।
9 सितम्बर, 1981 को एक प्रतिष्ठित अखबार समूह ‘पंजाब केसरी’ के सम्पादक लाला जगतनारायण की हत्या कर दी गई। लाला जगतनारायण पंजाबी हिंदू समाज के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे भिंडरावाला की गतिविधियों, विशेषकर निरंकारी सिखों की बाबत उसके अभियान का लगातार विरोध अपने अखबार ‘पंजाब केसरी’ के जरिए कर रहे थे। उनकी हत्या ने न केवल पंजाबए बल्कि पूरे देश को स्तब्ध करने का काम कर दिया। पंजाब पुलिस ने इस हत्या के लिए जनरैल सिंह भिंडरावाला को मुख्य अभियुक्त करार देते हुए उसकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर दियाए लेकिन भिंडरावाला इतनी आसानी से गिरफ्तार होने के लिए तैयार नहीं था। वह पहले पंजाब से निकल पड़ोसी राज्य हरियाणा में जा छिपा। कहा जाता है कि जब पंजाब पुलिस उसे गिरफ्तार करने हरियाणा के चंदोकलां गांव पहुंची तो ज्ञानी जैल सिंह की मदद से वह पुलिस को चकमा देकर अपने गांव चौक मेहता पहुंच गया। यहां उसने एक स्थानीय गुरुद्वारे में शरण ली। 20 सितम्बर को भारी मान-मनौवल के बाद भिंडरावाला आत्मसमर्पण के लिए राजी हुआ। उसकी गिरफ्तारी के साथ ही पूरे पंजाब में भारी हिंसा फैल गई। भिंडरावाला के समर्थकों ने निर्दोष हिंदुओं की हत्या करनी शुरू कर दी। जालंधर में चार हिंदुओं को गोली मार दी गई। 21 सितम्बर के दिन तरण तारण शहर में तीन हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया गया। 26 सितम्बर के दिन पटियाला में बम धमाका हुआ, जिसमें कई घायल हो गए। यही नहीं रेल पटरियों को उखाडकर रेल यातायात को बाधित किया जाने लगा।