तेईस सितंबर, 1965 को हुए युद्ध विराम के बाद असल मसला दोनों देशों की सेनाओं का एक-दूसरे के कब्जाए इलाकों से पीछे हटने का था। रूसी प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन लगातार शास्त्री और जनरल अयूब के मध्य वार्ता कराने का प्रयास कर रहे थे। अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बेन्स जॉनसन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री हेरोल्ड विल्सन कोसिगिन की इस मुहिम के समर्थन में थे। 11 नवंबर, 1965 को पाकिस्तान ने इस वार्ता के लिए अपने सहमति दे दी। भारत ने सोवियत संघ के प्रस्ताव पर अपनी सहमति देते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि जम्मू-कश्मीर के मसले में वह पाकिस्तान के साथ कोई वार्ता नहीं करेगा। यह वार्ता सोवियत संघ के राज्य उजबेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में 4 से 10 जनवरी, 1966 को आयोजित की गई थी। ताशकंद यात्रा से ठीक पहले लाल बहादुर शास्त्री के समक्ष एक अन्य संकट आ खड़ा हुआ। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और संविधान सभा के सदस्य टीटी कृष्णमाचारी शास्त्री सरकार में वित्त मंत्री थे। वे 1952 में नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य बनाए गए थे। 1958 में उन्हें हरिदास मुद्रा घोटाले के सामने आने बाद इस्तीफा देना पड़ा था। आजाद भारत में वे पहले ऐसे केंद्रीय मंत्री थे जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोप चलते सरकार से हटाया गया था। 1962 में नेहरू ने उन्हें पुनः अपनी सरकार में शामिल कर दिया था। भारत-पाक युद्ध समाप्त होने के बाद नवंबर, 1965 में लोकसभा के ग्यारह सांसदों ने तत्कालीन वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी के खिलाफ भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए एक विस्तृत ज्ञापन लाल बहादुर शास्त्री को सौंपते हुए उनसे वित्त मंत्री के घोटाले की जांच कराए जाने के लिए एक स्वतंत्र आयोग बनाने की मांग की। संसद का शीतकालीन सत्र चालू था जहां इस ज्ञापन को लेकर गर्मागर्म बहस होने लगी थी। कृष्णामाचारी ने प्रधानमंत्री शास्त्री पर दबाव बनाया कि वे सभी आरोपों की स्वयं पड़ताल करें और यदि आरोप गलत पाए गए तो शास्त्री संसद में इसकी घोषणा कर उन्हें आरोप मुक्त घोषित कर दें। शास्त्री ने स्वयं आरोपों की पड़ताल करने के बजाए सांसदों द्वारा भेजे गए ज्ञापन की जांच सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से कराए जाने का फैसला लिया। कृष्णमाचारी ने प्रधानमंत्री के फैसले से नाराज हो अपना इस्तीफा उन्हें भेज दिया। वे शास्त्री को दबाव में लेने का प्रयास कर रहे थे। शास्त्री लेकिन उनके दबाव समक्ष झुके नहीं और अपनी ताशकंद यात्रा से ठीक पहले 31 दिसंबर, 1965 को उन्होंने वित्त मंत्री का इस्तीफा स्वीकारते हुए उन्हें कार्यमुक्त कर डाला। 3 जनवरी, 1966 को भारतीय प्रतिनिधिमंडल ताशकंद पहुंचा था। शास्त्री के अतिरिक्त इस दल में तत्कालीन रक्षा मंत्री वाईबी चव्हाण, विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह और तत्कालीन विदेश एवं गृह सचिव शामिल थे। यह वार्ता 4 जनवरी, 1965 को शुरू हुई और 10 जनवरी 1965 को दोनों देश समझौते की स्थिति तक पहुंच पाए। पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व राष्ट्रपति जनरल मोहम्मद अयूब ने किया था। भारत के प्रति गहरा विद्वेष भाव रखने वाले पाकिस्तानी विदेश मंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो इस वार्ता में शामिल हुए थे। भुट्टो की हठधर्मिता चलते पूरी शांति वार्ता में 8 जनवरी तक भारी गतिरोध आ गया। सोवियत प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन के तमाम प्रयासों बावजूद पाकिस्तानी राष्ट्रपति कश्मीर के मुद्दे को इस शांति वार्ता का हिस्सा बनाए जाने और कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की अपनी मांग पर अड़ गए थे। शास्त्री किसी भी सूरत में कश्मीर को लेकर वार्ता के लिए राजी नहीं थे। अयूब और शास्त्री के मध्य 7 जनवरी, 1966 को हुई बैठक का जिक्र करते हुए सीपी श्रीवास्तव ने जो बतौर सहायक शास्त्री के साथ ताशकंद में मौजूद थे, अपनी पुस्तक में लिखा है कि राष्ट्रपति अयूब का रुख हालांकि सकारात्मक था। लेकिन वे घरेलू राजनीतिक कारणों के चलते कश्मीर को वार्ता और शांति समझौते का हिस्सा बनाना चाहते थे। दोनों नेताओं के मध्य इस बाबत हुई बातचीत का ब्यौरा श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक में कुछ यूं दिया है-
भारत के लाल का ताशकंद में निधन
पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-65
राष्ट्रपति अयूब : ‘कश्मीर के मामले में कुछ ऐसा कर दीजिए कि मैं भी अपने मुल्क में मुंह दिखाने के काबिल रहूं।’
प्रधानमंत्री शास्त्रीः ‘सरदार साहिब, मैं बहुत माफी चाहता हूं कि मैं इस मामले में आपकी कोई खिदमत नहीं कर सकता।’ 10 जनवरी वार्ता का अंतिम दिन था। 9 जनवरी की शाम अंतरराष्ट्रीय प्रेस ने अपने समाचारों में वार्ता के निष्फल रहने की घोषणा कर डाली। 9 जनवरी की रात लेकिन सोवियत प्रधानमंत्री पाकिस्तानी राष्ट्रपति को दबाव में लेने में सफल हो गए। यह तय हो गया कि दोनों देशों की सेनाएं 5 अगस्त, 1965 की स्थिति को बहाल करने के लिए एक-दूसरे के कब्जाए इलाके से पीछे हट जाएंगी। साथ ही भारतीय पक्ष के सुझाव को भी स्वीकारते हुए दोनों देशों के मध्य एक-दूसरे पर सैन्य कार्यवाही न करने (नो वार पैक्ट) को लेकर भी सहमति बन गई। 10 जनवरी, 1966 को दोनों देशों के मध्य इस बाबत समझौते के दस्तावेज पर हस्ताक्षर सोवियत प्रधानमंत्री की उपस्थिति में करे गए। इसे ताशकंद समझौता कहा जाता है। समझौते के अनुसार भारतीय सेना पाक अधिकृत कश्मीर में हाजी पीर दर्रे पर अपना कब्जा खाली कर वापस लौट गई। बाकी जगहों पर भी ऐसा ही किया गया। पाकिस्तानी सेना भी समझौते अनुसार भारतीय इलाकों से पीछे हट गई थी। इस समझौते का भारत में विपक्षी दलों ने शास्त्री की कायरता कह विरोध किया। हाजी पीर दर्रे को लेकर सबसे ज्यादा आलोचना का शिकार शास्त्री को होना पड़ा। हालांकि यह तात्कालिक प्रतिक्रियाएं थीं। असल विरोध तो उन्हें भारत वापसी बाद संसद में झेलना पड़ता लेकिन इसकी नौबत ही नहीं आई। 10 जनवरी, 1966 की देर रात हृदयगति रूक जाने चलते उनकी ताशकंद में मौत हो गई। लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु को लेकर आज तक नाना प्रकार के सवाल उठाए जाते हैं। शास्त्री जी के साथ ताशकंद में मौजूद उनके निजी डॉक्टर आरएन चुग, उनके सचिव सीपी श्रीवास्तव और उनके निजी सहायकों का कथन इस बात की पुष्टि करता है कि दो बार हृदयघात का शिकार हो चुके शास्त्री को ताशकंद में घातक दिल का दौरा पड़ा था जिसके चलते उनकी मृत्यु हुई थी। लेकिन शास्त्री जी का परिवार, विशेषकर उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ताउम्र यहीं मानती रहीं कि उनके पति की मौत स्वभाविक नहीं थी, बल्कि उनकी ताशकंद में हत्या की गई थी। भारत सरकार का इस मुद्दे पर रुख भी कई प्रकार के संदेह पैदा करता है। ललिता शास्त्री ने सबसे पहले इस मुद्दे को तभी उठाया था जब उन्होंने ताशकंद से दिल्ली लाए गए शास्त्री जी के शव को नीला पड़ा देखा। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने इस बाबत अपनी जीवनी ‘बियोंड द लाइंस’ में जिक्र किया है। नैयर ताशकंद वार्ता के दौरान बतौर प्रेस सलाहकार शास्त्री के साथ मौजूद थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ललिता शास्त्री ने शास्त्री जी के शव का नीला पड़ने और पोस्टमार्टम न कराए जाने की बात कही थी।’
1978 में प्रकाशित एक किताब ‘ललिता के आंसू’ में भी ललिता शास्त्री के जरिए इस पुस्तक के लेखक क्रांत एमएस वर्मा ने शास्त्री जी की ताशकंद में हुई मृत्यु पर सवाल खड़े किए थे। 1977 में जनता सरकार के गठन बाद एक जांच समिति का गठन वरिष्ठ राजनेता राजनारायण की अध्यक्षता में किया था। इस समिति ने शास्त्री जी के साथ उस रात मौजूद उनके निजी सहायकों को गवाही के लिए तलब किया था। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण गवाह थे शास्त्री जी के निजी चिकित्सक डॉ आरएन चुग। इस समिति के समक्ष पेश होने के लिए डॉ चुग सड़क मार्ग से दिल्ली आ रहे थे जब एक भीषण सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। दूसरे गवाह थे शास्त्री जी के निजी सहायक रामनाथ। इस जांच समिति के समक्ष पेश होने से पहले रामनाथ ललिता शास्त्री से मिले थे। शास्त्री जी के परिजनों अनुसार रामनाथ ने तब ललिता शास्त्री से कहा था ‘बहुत दिन का बोझ था, अम्मा आज सब बता देंगे।’ लेकिन वे भी इस मुलाकात के एकदम बाद सड़क दुर्घटना का शिकार हो गए जिसमें उनकी याददाश्त पूरी तरह से चली गई। क्या ये दोनों सड़क हादसे सामान्य हादसे ही थे या फिर इन दोनों को राजनारायण समिति के सामने पेश होने से रोका गया था? इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह कि राजनारायण जांच समिति की रिपोर्ट न तो किसी भी सरकार ने सार्वजनिक की और न ही इस रिपोर्ट की कोई प्रति संसद में अथवा केंद्र सरकार के पास मौजूद है। 1993 में जब एक बार फिर से शास्त्री जी की मौत पर सवाल खड़े हुए तब अमेरिकी पत्रकार ग्रीगोरी डगलस ने कुख्यात अमेरिकी जासूसी एजेंसी सीआईए के एक एजेंट रॉर्बट क्राउले (Rober Crowley) संग अपनी बातचीत को सार्वजनिक किया। भारत की बाबत पूछे गए प्रश्नों के जवाब में क्राउले ने जोर देकर कहा कि ‘And we nailed Shastri as well. Another Cow-loving rag head.’ (हमने शास्त्री को भी ठिकाने लगा डाला। गाय से प्यार करने वाला एक और बद्दिमाग)। सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत इस विषय पर जब कभी भी जानकारी मांगी गई, केंद्र सरकार द्वारा उसका उत्तर नहीं दिया गया। ‘सीआईएएस आई ऑन साउथ एशिया’ (CIA’S Eye on South Asia) पुस्तक के लेखक और आरटीआई कार्यकर्ता अनुज धर ने 2009 में शास्त्री जी की मृत्यु से जुड़ी जानकारी पाने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय में आरटीआई डाली। उनकी आरटीआई के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह तो स्वीकार किया कि उसके पास इस विषयक एक दस्तावेज मौजूद है लेकिन उसे सार्वजनिक करने से स्पष्ट इंकार यह कहते हुए कर दिया कि यह दस्तावेज ‘Prejudicially affect the soverignty and integrity of the country, the security, strategic, scientific or economic interests of the state, relation with foreign state or lead to incitement of an offence.’ (देश की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, राजनीतिक, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों, विदेशी राज्य के साथ संबंध को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है या किसी अपराध के लिए उकसाता है)।
लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु को लेकर सवाल आज भी यदा-कदा उठते रहते हैं। बहुत सी शंकाओं, बहुत सारे सवालों का यदि संतोषजनक और स्पष्ट उत्तर केंद्र की सरकारों द्वारा ईमानदारी से समय रहते उपलब्ध करा दिया जाता तो शायद ऐसे सवाल उठने बंद हो जाते। केंद्र की सत्ता में चाहे कोई भी सरकार क्यों न रही हो, शास्त्री जी की मृत्यु से संबंधित प्रश्नों का वाजिब उत्तर देने में किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। 10 जनवरी, 1966 की देर रात तक शास्त्री जी के साथ मौजूद रहे उनके सचिव सीपी श्रीवास्तव ने जरूर उनकी मृत्यु से जुड़े हर सवाल का तार्किक उत्तर अपनी पुस्तक ‘लाल बहादुर शास्त्री-ए लाइफ ऑफ ट्रूथ इन पॉलिटिक्स’ में विस्तार से दिया है जिसके आधार पर यही सत्य प्रतीत होता है कि आजाद भारत के दूसरे प्रधानमंत्री की मृत्यु स्वभाविक थी। शास्त्री जी के प्रेस सलाहकार रहे कुलदीप नैयर जो ताशंकद वार्ता के दौरान शास्त्री के साथ सोवितय संघ में मौजूद थे, लंबे अर्से तक इस मौत को स्वभाविक मानते रहे।
क्रमशः