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मेरी उम्र तब पंद्रह साल की थी। मेरे शांत से शहर रानीखेत की खुशनुमा फिजाओं में कुछ दिनों से अजीब किस्म की बोझिलता हावी महसूस हो रही थी। वे जो मेरे पड़ोसी बरसों से थे, यकायक ही हमसे नजरें चुराने से लगे थे। वे, जिन्हें हम चाचा, ताऊ-ताई आदि संबोधनों से पुकारते थे, पूरे हक से उनके घर को अपना समझते आए थे, उन दिनों कुछ कटे-कटे, सहमे-सहमे से रहने लगे थे। समझिए ये हाल उस शहरनुमा कस्बे का था जहां धर्म और जाति के जहर का नामोनिशान तक ना रहा हो, तो फिर देश की राजधानी दिल्ली और अन्य बड़े शहरों में कैसा माहौल रहा होगा जब इंदिरा गांधी की इक्तीस अक्टूबर, 1984 के दिन उनके ही दो सुरक्षाकर्मियों ने दिन दहाड़े उनके ही निवास पर हत्या कर दी थी। हत्यारे सिख समुदाय से थे। सतवंत सिंह और केहर सिंह। इंदिरा गांधी तब मुल्क की आला वजीर थीं। उनके निर्देश पर भारतीय फौज ने आठ दिनों तक, एक से आठ जून, 1984, में सिखों के सबसे पवित्र धर्मस्थल अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में धावा बोल वहां अपना अड्डा बना चुके कुख्यात आतंकी जरनैल सिंह  भिंडरवाला और उसके साथियों को मार गिराया था। उन आठ दिनों में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के चलते स्वर्ण मंदिर को भारी नुकसान पहुंचा। फौज इसके लिए अकेली जिम्मेदार नहीं थी। स्वर्ण मंदिर में छिपे आतंकियों के पास हथियारों का भारी जखीरा था। उन्होंने फौज पर जमकर गोली बारी की। जवाब में फौज ने भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। नतीजा रहा स्वर्ण मंदिर का क्षतिग्रस्त होना और सिख समुदाय की भावनाओं का आहत होना। 31, अक्टूबर, 1984 को इंदिरा जी की हत्या इन्हीं आहत भावनाओं से उपजे प्रतिशोध की पराकाष्ठा थी। लेकिन यह चरम पराकाष्ठा नहीं थी। चरम पराकाष्ठा तो वह है जो धर्म के नाम पर उन्माद पैदा करती है, सभी नाते-रिश्ते, मानवीय सरोकार और हमारे मनुष्य होने, तमाम जीव-जंतुओं में सबसे ज्यादा विवेकवान होने के भ्रम को निगल लेती है।
आजादी के तुरंत बाद हुए मजहबी दंगों के दौरान क्रूरता की इस पराकाष्ठा को इस मुल्क ने देखा-भोगा। देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हुआ था। जो मुस्लिम राष्ट्र के पैरोकार थे वे पाकिस्तान चले गए। जिन्हें धर्म के नाम पर बंटवारा नहीं मंजूर था और जो रेडकिल्फ कमिशन द्वारा तय की गई सीमाओं के घेरे में नहीं बंधे थे, ऐसे मुसलमान भारत में रह गए। इन लोगां ने स्वेच्छा से भारत को अपना मुल्क माना था। फिर भी आजादी के बाद से ही धर्म के नाम पर समाज के विभाजन का खेल चलता रहा है। एक तरफ हिंदूवादी ताकतें थी जो भारत हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए इस खेल का हिस्सा बनीं तो दूसरी ओर पर कथित रूप से धर्म निरपेक्ष राजनीतिक दल थे जिन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय को वोट बैंक मान उनका दोहन किया। देश में, विशेषकर भारत में लगातार मजहब के नाम पर जाति के नाम पर, दंगे होते आए हैं। मंदिर-मस्जिद के नाम पर राजनीतिक ताकतें जनता को बरगलाने का काम देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को नष्ट करने की कीमत पर करती आई हैं। मैंने धर्म के नाम पर चल रहे इस घिनौने खेल को पहली बार तब महसूसा था जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे सिख कौम को दोषी मान लिया गया। इंदिरा जी की मृत्यु के बाद सिख समुदाय के खिलाफ हिंसा का जो नंगा नाच देश की राजधानी दिल्ली और अन्य प्रमुख शहरों, गांव और कस्बों में दिखा, रानीखेत की भारी होती फिजा के पीछे का कारण था, जो बहुत बाद में, मैं समझा। समझ में आया कि क्यों वे जिन्हें बचपन से अपना समझते थे, नजरें चुराने लगे थे। आज सोचता हूं तो सिहर उठता हूं, कितना भयभीत, कितना असहाय वे अपने को तब महसूसते होंगे। बहरहाल, यह लंबी बहस का मुद्दा हो सकता है कि पंजाब में आतंकवाद को किसने पनपाया, कैसे देश की सबसे वफादार कौम खुद के लिए अलग राष्ट्र की मांग करने लगी। किन शक्तियों ने इस अलगावाद की चिंगारी को आग बनने का अवसर मुहैया कराया, आदि-आदि। जो मैं दावे के साथ कह सकता हूं, बगैर किसी किंतु-परंतु के, कि स्वर्ण मंदिर को आतंकियों से खाली कराए जाने का फैसला सही था। मैं इस प्रश्न पर भी नहीं विचार अभी कर रहा कि आखिरकार आतंकी स्वर्ण मंदिर में घुसे कैसे थे या फिर क्या कोई वैकल्पिक रास्ता तब की केंद्र सरकार के पास था जिससे बगैर गोलीबारी कराए बिना स्वर्ण मंदिर से आतंकियों का सफाया किया जा सकता था। मैं आज उन दंगां की बात करना चाहता हूं जो इंदिरा जी की हत्या के बाद पूरे देश भर में सिख समुदाय  के खिलाफ हुए। वे दंगे जिनमें सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2,800 निर्दोष सिख मौत के घाट उतार दिए गए, अकेले 2100 केवल देश की राजधानी दिल्ली में। गैरसरकारी आंकड़े इन दंगों में मारे गए लोगों की संख्या 8000 बताते हैं। देश की राजधानी में खुलेआम सिखों का उनके घरों में घुसकर बलात्कार हुआ और उनकी संपत्ति को लूटा गया। याद कीजिए वे दृश्य जिनमें कथित तौर पर इंदिरा जी की हत्या से दुखी लोग सिखों की दुकानों से समान लूटते, हंसते-मुस्कुराते नजर आ रहे थे। 84 के ये दंगे कांग्रेस की धर्म निरपेक्ष छवि पर ऐसा दाग हैं जो चाहे कुछ हो जाए ना तो धुल सकते हैं, ना ही धुंधले हो सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे 2002 के गुजरात दंगों का गहरा दाग भाजपा के दामन में सदैव लगा रहेगा। 84 के दंगों के बाद दस जांच आयोग बने। पहला जांच आयोग दिल्ली के पुलिस आयुक्त रहे वेद मारवाह की अध्यक्षता में बना। कांग्रेस सरकार ने उन्हें अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। उनके बाद न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा, कपूर-मित्तल कमेटी, जैन-बनर्जी कमेटी, पौडी-रौसा कमेटी, जैन-अग्रवाल कमेटी, आहूजा कमेटी, ढिल्लन कमेटी, नरुला कमेटी और अंत में नानावटी आयोग इन दंगों की जांच के लिए बना। इससे बड़ा मजाक, इससे बड़ी त्रासदी कोई नहीं हो सकती कि जांचें चलती रही लेकिन दंगों के चौंतीस बरस बीत जाने के बाद कांग्रेस के उन बड़े नेताओं, जिन पर दंगा भड़काने का आरोप था, सबूत थे, के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। 31 जुलाई, 1985 को खालिस्तान कमांडो फोर्स नाम के आतंकी संगठन ने कांग्रेस नेता ललित माकन की दिल्ली में हत्या कर दी थी। माकन उन नेताओं में शामिल थे जिन पर दंगे भड़काने का आरोप था। दिल्ली कांग्रेस के ही एक अन्य नेता अर्जुन दास की भी हत्या इन्हीं दंगों में लिप्त रहने के चलते सिख आतंकवादियों ने कर डाली थी। अप्रैल, 2014 में ‘कोबरा पोस्ट’ न्यूज पोर्टल ने अपने एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए यह साबित करने का प्रयास किया कि दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस को उच्च स्तर से आदेश थे कि वे कार्यवाही ना करें। ठीक ऐसे ही 2002 के दंगों के दौरान गुजरात पुलिस अपने राजनीतिक आकाओं के दबाव के चलते मूकदर्शक बनी रही। कांग्रेस नेतृत्व ने लंबे अर्से तक इन दंगों में अपने नेताओं की भूमिका पर चुप्पी साधे रखी। जगदीश टाइटलर, हर किशन लाल भगत जैसे बड़े कांग्रेसी नेता इस दौरान पार्टी में बने रहे। इन दोनों पर दंगे भड़काने, यहां तक कि स्वयं दंगों में शामिल रहने के गंभीर आरोप हैं। पहली बार 1998 में आम चुनाव के दौरान सोनिया गांधी ने सिख समाज से स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्यवाही और इंदिरा जी की हत्या के बाद हुए दंगों के लिए माफी मांगी। यह एक हिम्मती और सकारात्मक पहल थी जिससे एक देश भक्त कौम के जख्मों पर कुछ मलहम अवश्य लगी। 12, अगस्त, 2005 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी लोकसभा में अपने भाषण के दौरान सिख समुदाय से क्षमा याचना की अपील की थी। बहरहाल, चौतीस बरस बाद, देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर दिल्ली की एक अदालत ने इन दंगों में दो सिखों की हत्या के आरोपी यशपाल सिंह को मृत्यु दंड तो दूसरे आरोपी नरेश सहरावत को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जिससे उन दंगा पीड़ितों को जरूर थोड़ा सुकून और हमारी न्याय व्यवस्था के प्रति थोड़ा ढाढ़स अवश्य बंधा होगा जो पिछले चौतीस बरसों से न्याय को पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। 2015 में केंद्र सरकार ने इन दंगों की जांच के लिए एक विशेष जांच दल गठित किया था। यह मामला इसी जांच दल की मेहनत का नतीजा है। अन्यथा दिल्ली पुलिस  ने 1994 में इस मामले को सबूत ना मिलने की बात कह रफा-दफा कर दिया था।
जैसा हमारे मुल्क की रवायत है, इस निर्णय के आते ही राजनीति शुरू हो गई। देश के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसका श्रेय लेते हुए कह डाला कि यदि हमारी सरकार पहल ना करती तो दोषियों को सजा ना होती। कांग्रेस को इन दंगों का जिम्मेदार ठहराते समय हमारे कानून मंत्री भूल गए कि दूसरों के पाप गिनाने से अपने पाप नहीं कम होते। 2002 में जो कुछ गुजरात ने भोगा और पूरे विश्व ने देखा, उसका सच भी कभी ना कभी सामने आएगा। तब कांग्रेस उसका श्रेय लेगी। इस सबके बीच धर्म के नाम पर राजनेता अपना घिनौना खेल जारी रखेंगे। यही शायद हमारे मुल्क का, हमारा प्रारब्ध है। कवि हरिओम पवार की पंक्तियां बिल्कुल सटीक बैठती हैं जब वे कहते हैं :
सहसवारों को खा जाती है गलत सवारी मजहब की।
ऐसा ना हो देश जला दे यह चिंगारी महजब की।।

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