[gtranslate]
Editorial

सुंदर सपना टूट गया-2

मेरी बात

अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के प्रति मेरा नजरिया 2015-16 से ही बदलने लगा था। इसे टीम अन्ना संग मेरे मोहभंग का शुरुआती काल भी कहा जा सकता है। अन्ना हजारे द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू किया आंदोलन आम आदमी पार्टी के नेतृत्व संग मेरी मुलाकात का जरिया बना था जो आगे चलकर मित्रता में परिवर्तित हो गया। अन्ना आंदोलन से जुड़ने वाले, उसका हिस्सा बनने वाले समाज के हर वर्ग के लोग थे। इस आंदोलन की एक बड़ी विशेषता किसी विचारधारा विशेष से इसका मुक्त रहना था। जो कोई भी देश में गहरे पसर चुके भ्रष्टाचार से व्यथित-विचलित था, स्वतः ही अन्ना का बगलगीर हो चला था। बड़ा भरोसा, ढेर सारी उम्मीदें अन्ना आंदोलन से तो थी ही, ‘आप’ गठन बाद इन उम्मीदों का विस्तार भी तेजी से हुआ। बहुतों को टीम अन्ना का चेहरा रहे इन नवयुवकों से आस जगी थी कि स्थापित राजनीतिक ताकतों की बरअक्स ये लोग ईमानदार राजनीति को लेकर आगे बढ़ेंगे और महात्मा गांधी के पवित्र ‘साधन और साध्य’ की अवधारणा को साकार कर मुल्क को एक मजबूत और जनसरोकारी विकल्प देने में सफल रहेंगे। दस बरस की इनकी राजनीतिक यात्रा लेकिन ऐसा कुछ भी कर पाने में दूर-दूर तक सफल नहीं रही है। महात्मा गांधी के ‘स्वराज’ का सपना धरातल में उतारने का संकल्प लेकर राजनीति के अखाड़े में उतरा अन्ना आंदोलन का नायक अरविंद इन दस बरसों के दौरान सत्ता लोलुप एक ऐसे राजनेता में तब्दील हो चला है जो हर अनैतिक समझौता करने, हर घोषित सिद्धांत का अवमूल्यन करने के लिए तैयार है। इससे मैं इनकार नहीं करता हूं इन बीते दस बरसों के दौरान दिल्ली में आम आदमी सरकार ने बहुत कुछ सराहनीय भी किया है। शिक्षा और स्वास्थ सरीखे बुनियादी मुद्दों पर बेहतरीन काम केजरीवाल सरकार ने किए हैं। लेकिन जब इनके विचलनों पर नजर जाती है तो ठगे जाने का एहसास कहीं ज्यादा महसूस होता है। आज जब एक कथित घोटाले के चक्रव्यूह में फंस मनीष सिसोदिया हवालात के भीतर बंद हैं तब बहुत खेद, बहुत दुख के साथ कहना चाहता हूं कि ईमान से समझौता करने वालों का हश्र बेहद कष्टकारी होता है। स्वयं उनके लिए भी और उन पर विश्वास करने वालों के लिए भी। मन है कि मानता नहीं, केंद्र सरकार की एजेंसियों के दावे झूठे प्रतीत होते हैं, संदेह पैदा होता है कि कहीं मनीष राजनीतिक विद्वेष का शिकार तो नहीं बन गए हैं। बहुत संभव है ऐसा ही हुआ हो और मनीष का इस कथित घोटाले से दूर-दूर तक का कोई वास्ता न हो। बतौर शिक्षा मंत्री दिल्ली के बच्चों का भविष्य संवारने के उनके प्रयास साधूवाद की पात्रता रखते हैं। बचपन से सुनते और मानते आए हैं कि सत्य हमेशा विजयी होता है। मनीष इस अग्निपरीक्षा से बेदाग हो बाहर निकलें, ऐसी मेरी दिली इच्छा है। लेकिन इस सच से भी तो इनकार नहीं किया जा सकता कि आम आदमी पार्टी और उसका शीर्ष नेतृत्व भारी भटकाव का शिकार हो चला है। डॉ ़ राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि ‘सत्य की अवधारणा एक ऐसी रेखा है जिसके एक सिरे पर ‘हां’ है तो दूसरे सिरे पर ‘न’ और दोनों के मध्य हां-न के अलग-अलग रंग हैं।’ केजरीवाल एवं उनके संगठन को लोहिया के इस कथन की कसौटी पर यदि ईमानदारी से परखा जाए तो नतीजा गहरी निराशा को जन्म देता है। ऐसा नहीं की जनविश्वास, जनआकांक्षाओं को तोड़ने के अपराधी अतीत में न हुए हों। देश को आजादी दिलाने वाली कांग्रेस 1947 के बाद किस तेजी से भ्रष्टाचार-अनाचार का केंद्र बनी और कैसे एक विचार से एक परिवार की पार्टी में बदली, इसे हम सभी ने देखा है। वर्तमान समय में जब देश की हर व्याधि के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने का एक अजीबो-गरीब चलन अपने चरम् पर है, हरेक वह जो
आजादी के संग्राम के इतिहास से वाकिफ है और जिसने इतिहास को सही अर्थों में, बगैर सोशल मीडिया में कुकुरमुत्ते की तरह उभर आए ज्ञान से इतर पढ़ा है, इससे इनकार नहीं कर सकता कि हमें अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने वाली कांग्रेस ही थी। यही कारण है कि कांग्रेस के पतन में दशकों का समय लगा हालांकि उसकी शुरुआत नेहरू मंत्रिमंडल के समय से शुरू हो गई थी। चूंकि कांग्रेस की बुनियाद में उसकी मजबूत वैचारिकता थी इसलिए उसके पूरी तरह से उखड़ने में लंबा वक्त लगना लाजमी था। आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण के अथक प्रयासों चलते एकजुट हुईं मूलतः इंदिरा गांधी विरोधी ताकतें लेकिन मात्र ढाई बरस के भीतर-भीतर छिन्न-भिन्न हो गईं। मंडल और भ्रष्टाचार के विरोध सहारे शुरू हुआ विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रयोग भी मात्र कुछ महीने ही टिका था। इस दौरान हिंदुत्ववादी ताकतें धीरे-धीरे ही सही अपनी ताकत को बढ़ाने में जुटी रही थीं। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद इनकी ताकत में खासा विस्तार हुआ जिसका नतीजा 1998 से 2004 तक केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के काबिज होने बतौर सामने आया था। 2004 में एक बार फिर से गठबंधन की राजनीति सहारे कांग्रेस को केंद्र की सत्ता तो वापस मिली लेकिन मात्र सत्ता पाने और सत्ता में बने रहने के प्रयोग ने जनआकांक्षाओं को बुरी तरह कुचलने और भ्रष्टाचार को शिष्टाचार में बदलने के नए कीर्तिमान गढ़ डाले। नतीजा 2011 में शुरू हुआ अन्ना आंदोलन था जिसकी सफलता के पीछे दूरसंचार क्रांति के साथ-साथ आंदोलनों की धरती रहे देश में लंबे समय से जन मुद्दों को लेकर कोई बड़ा आंदोलन न हो पाना भी था। युवा पीढ़ी की जो महत्वाकांक्षाएं भ्रष्टाचार के दलदल में दम तोड़ रही थीं, उन्हें अन्ना के रूप में गांधी नजर आने लगे। भाजपा और संघ के अप्रत्यक्ष सहयोग ने अन्ना को घर-घर पहुंचाने का काम किया। यह आंदोलन अपने लक्ष्य पाने में तो पूरी तरह से नाकामयाब रहा, इसकी लोकप्रियता ने भाजपा को 2014 में केंद्र की सत्ता तो अन्ना के चेलों को राजनीति में स्थापित करने का काम जरूर कर दिखाया। त्रासदी देखिए अन्ना का जनलोकपाल अब न तो केजरीवाल एंड टीम के लिए कोई मुद्दा है और न ही जनता जनार्दन के लिए। केजरीवाल अब दिल्ली और पंजाब की सत्ता पर काबिज हैं और अब उनकी निगाहें देश की सत्ता को पाने की राह तलाशती नजर आ रही है। एक जनआंदोलन के गर्भ से निकले राजनीतिक दल का पतन, उसकी अधोगति इतनी कि आम आदमी के नाम पर बनी पार्टी पूरी तरह व्यक्ति केन्द्रित हो चली है। 1972 में, जब इंदिरा गांधी के नाम का डंका पूरे देश में गूंज रहा था और कभी ‘गूंगी गुड़िया’ के नाम से पुकारी जाने वाली नेता को बांग्लादेश गठन के बाद ‘दुर्गा’ कह पुकारे जाने लगा था, तब लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने कहा था कि ‘एक ही व्यक्ति के हाथ में सत्ता का केंद्रीयकरण चिंता की बात है। सारे तंत्र को इस प्रकार कसा जा रहा है कि कोई किसी तरह की चूं-चपड़ न कर सके।’ आम आदमी पार्टी केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तानाशाह होने का आरोप, केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का जमकर आरोप लगाती है। सच यह कि स्वयं ‘आप’ भीतर आंतरिक लोकतंत्र गायब है। प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव और कुमार विश्वास को जिस तरीके से केजरीवाल ने निकाल बाहर किया, वह हम सभी ने देखा-समझा है। सच तो यह है कि अन्ना के शिष्यों ने वादा किया था ‘स्वराज’ का, भरोसा दिलाया था व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन का। इनमें से एक पर भी खरा न उतरना जन विश्वास संग धोखा नहीं बड़ा विश्वासघात है जिसके चलते भले ही केजरीवाल और उनके संगी-साथी सत्ता का आनंद लूटने में सफल हो गए हों, उनके इस छल ने वर्तमान के साथ-साथ भविष्य संग भी बड़ा कुठाराघात किया है। इतिहास निर्मम होता है, उन्हें इतिहास सजा अवश्य देगा। लोहिया जी का एक कथन ‘आप’ के संदर्भ में बड़ा प्रासंगिक है- ‘राष्ट्र की राजनीति के दलदल में कोई चीज टिकती नहीं, कोई अच्छी चीज कायम और मजबूत नहीं रहती। संकुचित स्वार्थ ही सबसे बड़ा हो जाता है। व्यक्ति केवल अपने या अपने छोटे समूह के हितों को देखता है। नैतिक उपदेशों या संकीर्ण हितों के लिए जनता के साथ कोई धोखा छिपा रहता है। जब राष्ट्र की हालत ऐसी है तो झूठ के इस सर्वग्राही दलदल में पक्की जमीन बनाना किसी नरम या व्यापक सदिच्छा वाले कार्यक्रम से संभव नहीं। दलदल में सिद्धांत और नीति के मजबूत खंभे गाड़ने होंगे।’ काश अरविंद केजरीवाल ने बजाए अपने और अपनों के हितों को न देख राजनीति के दलदल में सिद्धांत और नीति के मजबूत खंभे गाड़े होते तो देश की राजनीति एक बड़े परिवर्तन के मुहाने पर खड़ी होती।

कुल मिलाकर मनीष सिसोदिया का जेल जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। पुनः कहता हूं कि मुझे उन पर लगे आरोपों पर भरोसा नहीं हो पा रहा है लेकिन बीते दस बरसों के दौरान आम आदमी पार्टी के चाल-चलन को देख कुछ भी संभव-सा होता प्रतीत होता है। अन्ना के शिष्यों की वर्तमान स्थिति निःसंदेह मेरे लिए एक सुंदर स्वप्न के भंग होने सरीखी है।

You may also like

MERA DDDD DDD DD