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Editorial

सुशासन बाबू की कुशासन नीति

मेरी बात

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को एक समय में  ‘सुशासन बाबू’ कह पुकारा जाता था। नीतीश का राजनीति में प्रवेश बिहार छात्र आंदोलन की देन रहा। 1994 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर की सरकार को महाभ्रष्ट करार देते हुए उन्हें सत्ता से अपदस्थ करने के लिए शुरू हुए इस आंदोलन की कमान जयप्रकाश नारायण के हाथों में आने बाद इसने राष्ट्रीय स्वरूप ले लिया जो आगे चलकर जेपी द्वारा ‘संपूर्ण क्रांति’ के आह्नान तक जा पहुंचा था। लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, सुशील मोदी और नीतीश इस आंदोलन का हिस्सा रहे और इन सभी ने राजनीति में अपना भविष्य तलाशा और बड़ा मुकाम हासिल किया। जयप्रकाश के आदर्श और राममनोहर लोहिया के समाजवाद से प्रेरित नीतीश कुमार केंद्र की राजनीति में लालू प्रसाद यादव की बनिस्पत ज्यादा सक्रिय रहे। लालू ने बिहार की राजनीति में अपनी जड़ें नीतीश कुमार के मुकाबले कहीं ज्यादा गहरी कर पंद्रह बरस तक निर्बाध सत्ता का सुख भोगा। बतौर केंद्रीय मंत्री नीतीश की छवि एक ईमानदार राजनेता, एक काम करने वाले राजनेता की थी। उन्हें ‘सुशासन बाबू’ इसी छवि के चलते पुकारा जाने लगा था। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में वे सड़क परिवहन, कृषि एवं रेलवे जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों के कैबिनेट मंत्री रहे। इस दौरान उनकी ईमानदार कार्यशैली के चर्चे सत्ता गलियारों में गूंजा करते थे। नीतीश भले ही केंद्र की राजनीति में सक्रिय थे, उनका मन चित्त बिहार में ही रमा रहता था। वे हर हालात और हर कीमत में राज्य के मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। उनकी इसी महत्वाकांक्षा चलते ‘सुशासन बाबू’ की छवि में पहली दरार मार्च 2000 में पड़ी थी। लालू प्रसाद यादव का अवसानकाल तब शुरू ही हुआ था और चारा घोटाले चलते उनकी पकड़ बिहार की राजनीति में कमजोर होने लगी थी। वर्ष 2000 में हुए राज्य विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत तब नहीं मिला था। एनडीए गठबंधन को इस चुनाव में 151 सीटों पर विजय मिली थी। लालू प्रसाद यादव के खाते में 159 विधायक थे। बहुमत के लिए 163 विधायकों का समर्थन किसी के पास नहीं था। तब तत्कालीन राज्यपाल विनोद कुमार पाण्डेय ने नीतीश कुमार को सरकार बनाने का न्योता दिया था। 3 मार्च, 2000 को ‘सुशासन बाबू’ ने मुख्यमंत्री पद की शपथ तो ले ली लेकिन बहुमत जुटा पाने में असमर्थ रहे। मात्र सात दिन बाद उन्होंने 10 मार्च, 2000 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। इन सात दिनों के भीतर बहुमत तलाशते नीतीश कुमार ने हरेक बाहुबली, भ्रष्ट, और माफिया कहे जाने वाले विधायकों से संपर्क साध उन्हें साधने का प्रयास किया था। उनके इस आचरण ने न केवल ‘सुशासन बाबू’ की छवि को प्रभावित किया, बल्कि बिहार की राजनीति के ‘मिस्टर क्लीन’ की भावी योजनाओं का भी खाका खींच डाला था। बिहार के मुख्यमंत्री और अब विपक्षी दलों की राजनीति के केंद्र बिंदु बनने का प्रयास कर रहे नीतीश कुमार का यह परिचय इसलिए क्योंकि उन्होंने, उनकी सरकार ने बाहुबली नेता और कुख्यात अपराधी आनंद मोहन सिंह को आजीवन कैद से ‘मुक्ति’ दिलाने का जो निर्णय लिया है उससे मुझ सरीखे उनके शुभेच्छुओं को न केवल भारी पीड़ा हुई है, बल्कि भारतीय राजनीति के आगे और रसातल में जाने की आशंका भी प्रबल हो चली है। जिन आंनद मोहन सिंह को नीतीश सरकार ने रिहा किया है, वे भी जेपी आंदोलन की पैदाइश हैं। उन्हें जातिवादी राजनीति का एक बड़ा चेहरा माना जाता है। 1990 में जनता दल के प्रत्याशी बतौर अपना पहला विधानसभा चुनाव जीतने वाले आनंद मोहन सिंह का अपराध की दुनिया से करीबी रिश्ता रहा है। मंडल कमीशन को लागू किए जाने बाद आए तूफान में आनंद मोहन सिंह आरक्षण विरोधियों के साथ थे। उनके एक करीबी नेता छोटन शुक्ला की 1994 में मुजफ्फरपुर में हत्या कर दी गई थी। इस हत्याकांड के अगले दिन 5 दिसंबर, 1994 में आनंद मोहन समर्थकों ने गोपालगंज जिले के डीएम जी ़कृष्णैया को पीट-पीट कर मार डाला। छोटन शुक्ला प्रकरण से डीएम कृष्णैया का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं थी। उन्हें केवल एक सरकारी अफसर होने चलते मार दिया गया। इस मामले में निचली अदालत ने आनंद मोहन सिंह को मुख्य आरोपी करार देते हुए फांसी की सजा 2007 में सुनाई थी जिसे 2008 में पटना हाईकोर्ट ने उम्र कैद में बदल दिया था। 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने इस सजा को बरकरार रखने का फैसला दिया। आनंद मोहन का कद इस सजा के बाद भी कमतर नहीं हुआ। 1996 में शिवहर से सांसद चुने गए इस बाहुबली को सजा मिलने बाद भी राजनीति दलों ने लगातार संरक्षण देने का काम किया। 2010 में आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद कांग्रेस के टिकट पर बिहार विधानसभा की सदस्य चुनी गईं। 2014 में समाजवादी पार्टी ने इस बाहुबली की पत्नी को अपना प्रत्याशी बनाया था। अपराध और राजनीति के इस घातक और घृणास्पद गठजोड़ की नई इबारत लिखते हुए पहले तो बिहार के जेल मैन्युअल में संशोधन करते हुए 10 अप्रैल को एक अधिसूचना जारी की गई जिसके जरिए आनंद मोहन सिंह की रिहाई का रास्ता साफ कर दिया गया। बिहार जेल मैन्युअल में कठोर व्यवस्था थी कि बलात्कार, कत्ल और काम पर तैनात सरकारी सेवक की हत्या के मुजरिमों को मिली सजा में कोई ढ़ील नहीं दी जाएगी। 10 अप्रैल को इस मैन्युअल में संशोधन करते हुए सरकारी सेवक की हत्या के मुजरिमों को इस कठोर व्यवस्था के दायरे से बाहर कर दिया गया। सरल शब्दों में हत्या और बलात्कार के आरोपियों को तो किसी भी सूरत में सजा पूरी होने तक जेल में ही रहने का प्रावधान बनाए रखा गया है लेकिन सरकारी सेवक की हत्या के आरोपियों को उनके ‘अच्छे आचरण’ के आधार पर रिहा करने का मार्ग इस संशोधन के जरिए खोल दिया गया। स्पष्ट है ऐसा केवल और केवल आनंद मोहन सिंह को बचाने की नीयत से किया गया। नीतीश सरकार ने इसके तुरंत बाद ही आनंद मोहन की रिहाई का आदेश दे डाला। गत वर्ष गुजरात सरकार ने भी गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके सात परिजनों की हत्या के आरोपियों को रिहा करने के लिए ‘अच्छे आचरण’ को ही आधार बनाया था। गुजरात सरकार का फैसला हर दृष्टि से निदंनीय और कलंकपूर्ण था। ठीक उसी प्रकार बिहार सरकार का आनंद मोहन सिंह को लेकर लिया गया फैसला उतना ही निदंनीय और कलंकपूर्ण है। बिलकिस बानो के अपराधियों को रिहा करने के फैसले की हर भाजपा विरोधी ताकत ने खुले शब्दों में निंदा की। आनंद मोहन के मसले पर लेकिन ऐसी सभी ताकतें या तो खामोश हैं या फिर टिप्पणी करने से बचती नजर आ रही हैं। नीतीश कुमार लेकिन शुरुआती समय से ही आनंद मोहन सिंह की पैरोकारी करते रहे थे। जिलाधिकारी जी ़कृष्णैया की हत्या के बाद जब आनंद मोहन सिंह गिरफ्तार किए गए थे तब नीतीश कुमार ने उन्हें निर्दोष करार देते हुए उनकी गिरफ्तारी को राजनीतिक साजिश करार दिया था। आनंद मोहन को 2007 में जब मृत्यु दण्ड मिला तब नीतीश भले ही खामोश रहे, उनकी पार्टी के कद्दावर नेता जॉर्ज फर्नांडीज ने खुलकर आनंद मोहन की तरफदारी कर अपराध और राजनीति की रिश्तेदारी को सार्वजनिक करने का काम किया था। आनंद मोहन अकेले नीतीश के ही प्रिय नहीं किरदार इस हत्याकांड के नहीं बने रहे। स्वर्ण जातियों के वोट बैंक को साधने की नीयत चलते उसे भाजपा का दुलार भी लगातार मिलता रहा है।

नीतीश भली प्रकार से जानते हैं कि उनके इस कदम की खासी आलोचना होगी। उनके इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने और कोर्ट द्वारा इस पर प्रतिकूल निर्णय लिए जाने की संभावना पर भी उन्होंने विचार- विमर्श किया होगा। इस सबके बावजूद उनके द्वारा आनंद मोहन सिंह की रिहाई का फैसला दरअसल भारतीय लोकतंत्र के लोक की उस प्रकृति का परिचायक है जो पूरी तरह से जातिवादी सोच से जकड़ा हुआ है। इस संकुचित और घातक सोच चलते ही उसका भरोसा अपनी जाति के बाहुबलियों पर बना रहता है। कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के निदेशक मिलन वैष्णव की पुस्तक ‘व्हेन क्राइम पेजः मनी एंड मसल इन इंडियन पॉलिटिक्स’ भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के इस भयावह सच पर खासा प्रकाश डालती है। बकौल वैष्णव- ‘Money helps grease the wheels, but voters too often have a rational incentive to back politicians with criminal reputation. In places where the rule of law is weak and social divisions are rife, politicians can use their criminality as an signal of their ability to do whatever it takes to protect the interests of their community…what the Indian state has been unable to provide, strongmen have promised to deliver in spades’। आनंद मोहन सिंह की रिहाई इसी मानसिकता के चलते की गई है। भले ही इससे नीतीश कुमार की छवि लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था रखने वालों की नजरों में कमतर हुई होगी, अपनी सत्ता को बनाए रखने और अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए नीतीश कुमार ने यह कदम उठाया है। हमारे समय, हमारे लोकतंत्र और हमारे समाज का यही नंगा सच है।

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