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Editorial

जाग रही हैं मुस्लिम महिलाएं

मुस्लिम समाज की जागरूक महिलाएं एक बार फिर से अपने शोषण को लेकर, अपने अधिकारों को लेकर देश की सर्वोच्च न्यायालय में जा पहुंची हैं तो बिलबिलाए मुस्लिम धर्म प्रवर्तक इसे आरएसएस और भाजपा की साजिश करार देने में जुटे हैं। हो सकता है संघ इस सबके पीछे हो, यह भी संभव है कि संघ अथवा भाजपा का इससे कुछ लेना-देना न हो। महत्वपूर्ण लेकिन यह है ही नहीं। महत्वपूर्ण वे प्रश्न हैं जिनका समाधान पाने की नीयत से मुस्लिम समाज की जागरूक महिलाएं देश की सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा रही हैं। दरअसल, पूरा मामला कहीं न कहीं समान अचार संहिता संग जा जुड़ता है। धर्मनिरपेक्ष देश होने के बावजूद राष्ट्र के मूल में विविध धर्मों, जातियों, उपजातियों के चलते समान नागरिक आचार संहिता को प्रभावी करने की बात तो उठती रही है लेकिन उसे कानूनी और अमलीजामा राजनीतिक-सामाजिक कारणों के चलते पहनाया नहीं जा सका है
अपने मुल्क में जो कुछ भी होता है उसके पीछे किसी न किसी प्रकार की साजिश का अनुमान लगा लिया जाता है। अनुमान केवल लगाया मात्र नहीं जाता, बल्कि एक बड़ा वर्ग उसे सच भी मान लेता है। अंग्रेजी में इसके लिए एक शब्द है ‘परशेप्शन’ यानी धारणा। उदाहरण के लिए यदि हम किसी भी विषय पर कोई तीखा समाचार प्रकाशित करते हैं तो यह मानने वालों की संख्या कम नहीं जो इसे प्रायोजित करार देते हैं। मान लीजिए, उत्तराखण्ड की वर्तमान सरकार कुछ अच्छा काम, कोई जनसरोकारी योजना को सामने लाती है और हम उस पर एक सकारात्मक समाचार देते हैं तो तुरंत सुनने को मिलने लगता है कि ‘लगता है सरकार से सेटिंग हो गई है।’ इसी प्रकार यदि किसी नेता या अधिकारी के गलत कृत्यों पर लिखा जाता है तो तुरंत धारणा बना ली जाती है कि जरूर ऐसा किसी के कहने पर किया गया होगा। इन दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ राजनेता और पूर्व मुख्यमंत्री श्री हरीश रावत इस अखबार में विभिन्न विषयों पर नियमित लिख रहे हैं तो कांग्रेस के ही कई दिग्गजों ने कहना शुरू कर दिया है कि जरूर ‘दि संडे पोस्ट’ में पूर्व सीएम ने अपना पैसा लगा दिया है। कोहरा बेहद घना है, इतना घना कि कुछ भी स्पष्ट देख पाना संभव नहीं रह गया है।
कयासबाजी को ही सच मान लिया जाता है। आज यह प्रसंग इसलिए क्योंकि मुस्लिम समाज की जागरूक महिलाएं एक बार फिर से अपने शोषण को लेकर, अपने अधिकारों को लेकर देश की सर्वोच्च न्यायालय में जा पहुंची हैं तो बिलबिलाए मुस्लिम धर्म प्रवर्तक इसे आरएसएस और भाजपा की साजिश करार देने में जुटे हैं। हो सकता है संघ इस सबके पीछे हो, यह भी संभव है कि संघ अथवा भाजपा का इससे कुछ लेना-देना न हो। महत्वपूर्ण लेकिन यह है ही नहीं। महत्वपूर्ण वे प्रश्न हैं जिनका समाधान पाने की नीयत से मुस्लिम समाज की जागरूक महिलाएं देश की सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा रही हैं। दरअसल, पूरा मामला कहीं न कहीं समान अचार संहिता संग जा जुड़ता है। धर्मनिरपेक्ष देश होने के बावजूद राष्ट्र के मूल में विविध धर्मों, जातियों, उपजातियों के चलते समान नागरिक आचार संहिता को प्रभावी करने की बात तो उठती रही है लेकिन उसे कानूनी और अमली जामा राजनीतिक-सामाजिक कारणों के चलते पहनाया नहीं जा सका है। मुस्लिम धर्म में बहुविवाह प्रथा और तीन बार तलाक बोल देने भर से शादी समाप्त किए जाने की प्रथा पर स्त्री अधिकारों का घोर हनन् और शोषण के बावजूद अंकुश नहीं लगाया जा सका है। शिक्षा के स्तर में सुधार और अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता के चलते मुस्लिम महिलाओं ने ट्रिपल तलाक के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू की। एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लंबी जिरह के बाद 22 अगस्त 2017 को अपने ऐतिहासिक निर्णय में इस तलाक पद्धति को अवैध करार दिया। इसके तत्काल बाद केंद्र सरकार ने ‘दि मुस्लिम वूमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन मैरिज बिल 2017’ को संसद से पारित करा इस निर्णय को कानून में बदल दिया। उस दौरान ही यह बात उठी थी कि यह निर्णय केवल तीन तलाक तक ही सीमित है, जबकि मुस्लिम समाज में विवाह और तलाक से जुड़ी कई अन्य कुरीतियां भी मौजूद हैं। जिनके चलते मुस्लिम महिलाओं का जमकर शोषण होता है। अब इन कुरीतियों के खिलाफ उत्तर प्रदेश के संभल शहर की डॉ समीना बेगम ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। ये कुरीतियां हैं बहुविवाह प्रथा, हलाला, मुता और मिस्यार (कॉन्ट्रैक्ट मैरिज)। यहां यह गौरतलब है कि तीन तलाक मामले पर सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट ने पांच जजों की एक पीठ बनाई थी जिसमें सिख, ईसाई, पारसी, हिंदू और मुस्लिम धर्म के न्यायाधीश शामिल थे। सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को गैरइस्लामिक करार देते समय मुस्लिम धर्म ग्रंथ कुरान का हवाला दिया था। यही कारण रहा कि कट्टरपंथी मुस्लिम धर्मगुरु इस निर्णय पर खास हो-हल्ला नहीं मचा सके। इस बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने समीना बेगम की याचिका को सुनवाई के स्वीकार करने के साथ-साथ संविधान पीठ के पास भेज दी है। यानी अब इस याचिका का फैसला भी कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ करेगी। हलाला निश्चित ही एक बड़ी कुरीति है जिसमें तीन तलाक कहने के बाद यदि पति वापस अपनी पत्नी के पास लौटना चाहे तो पहले पत्नी को किसी दूसरे संग निकाह कर संबंध बनाने पड़ते हैं। इसके बाद ही वह दूसरे पति से तलाक लेकर पहले के पास लौट सकती है। मुस्लिम विद्वानों का मत है कि ऐसी कोई भी व्यवस्था उनके पवित्र धर्मग्रंथ कुरान में नहीं है। कुरान में आयत 232 के अनुसार यदि पहले पति से तलाक के बाद औरत दूसरा निकाह करती है तो दूसरे शौहर की मृत्यु या फिर तलाक होने के कारण वह पहले पति से दोबारा निकाह कर सकती है। ऐसा कोई प्रावधान कुरान में नहीं है जो जबरन किसी दूसरे व्यक्ति से निकाह की बात कहता है। यहां यह समझा जाना महत्वपूर्ण है कि घोर इस्लामिक देशों तक में हलाला को मान्यता नहीं है। इसी प्रकार मुता और मिस्यार प्रथाएं हमारे देश के मुस्लिम समाज में प्रचलित हैं जिमसें कुछ समय के लिए निकाह होता है। इसके लिए मेहर की रकम लड़की के दी जाती है। समय समाप्ति के साथ ही निकाह समाप्त मान लिया जाता है। यह एक प्रकार का कॉन्ट्रैक्ट है। संभवतः पूर्व में दूसरे मुल्कों से आने वाले व्यापारी कुछ समय के लिए ऐसा विवाह करते थे जो उनकी अपने वतन वापसी के साथ ही समाप्त हो जाता था। जाहिर है ऐसी शादियों के फेर में गरीब परिवार की लड़कियां ही फंसती हैं। उनका शोषण होता है और जब चाहे उन्हें इस बंधन से पति की मर्जी अनुसार अलग होना पड़ता है। इसका लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जिसे मुझे एक वरिष्ठ शिया धर्मगुरु ने समझाया। बकौल सैयद कल्बे रूशेद रिजवी पैगम्बर ए खुदा के जमाने में यानी जब पैगम्बर मोहम्मद थे तब दो प्रकार के निकाह को मान्यता दी गई थी। पहला अकदे दायम यानी ऐसी शादी जो स्थायी होती है। दूसरा अकदे मोअक्कत जिसे मुता कहा गया है। इसमें एक तय समय सीमा के लिए निकाह होता है। यदि इस तय सीमा के बाद पति-पत्नी रिश्ते में बंधे रहना चाहते हैं तो वह रह सकते हैं। अन्यथा दोनों बंधन से अलग हो जाते हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सबसे युवा सदस्य कल्बे रूशेद ने कॉन्ट्रैक्ट मैरिज के आधुनिक संदर्भ से जोड़ते हुए इसे लिव इन रिलेशनशिप को सामाजिक मान्यता देना कह डाला। बकौल रिजवी साहब पाश्चात्य मुल्कों में शिया मुसलमान मुता की व्यवस्था को सहर्ष अपनाते हैं। यदि तय सीमा के अंदर उनका रिश्ता ठीक नहीं रहता तो वह आपसी सहमति से अलग भी हो जाते हैं और धार्मिक व्यवस्था का सम्मान भी करते हैं। रिजवी साहब ने समीना बेगम की सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका को राजनीति से प्रेरित बताया। उनका मानना है कि इसके मूल में भाजपा और संध की सोची-समझी रणनीति काम कर रही है। हालांकि उन्होंने ज्यादा खुलासा नहीं किया लेकिन बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे प्रकरण से इन मुद्दों को जोड़ा अवश्य। उनका मानना है कि विवादित जमीन पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जमीन के मालिकाना हक तक सीमित रहेगा। यह विवादित जमीन मीर बाकी के नाम राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज है। मीर बाकी अवध प्रांत के गवर्नर थे जिन्होंने संभवतः 1528 में बाबरी मस्जिद बनाई। मीर बाकी शिया थे। यदि सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिमों के पक्ष में आता है तो बहुत संभव है कि आपसी रजामंदी के जरिए वहां राममंदिर निर्माण संभव हो जाए। शिया मुस्लिम वतनपरस्त और अमन पसंद माने जाते हैं। वहीं दूसरी ओर सुन्नी मुस्लिमों में कट्टरता का बोलबाला है।
बहरहाल हलाला व्यवस्था मेरी समझ से हर हालात में प्रतिबंधित की जानी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसा तीन तलाक मामले में किया गया। मुता और मिस्यार वर्तमान संदर्भ में शोषण का प्रतीक प्रतीत होती हैं। शीर्ष अदालत निश्चित ही इस पर प्रगतिशील फैसला देगी। अशिक्षा और गरीबी के चलते धर्म के नाम पर शोषण से मुक्त होने का समय आ गया है। जरूर है ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जहां स्त्री और पुरुष के मौलिक अधिकारों का हनन् और उनका शोषण धार्मिक प्रथाओं के आधार पर कतई न हो।

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