ज्ञानी जैल सिंह तो बगैर कोई विवादित कदम उठाए 25 जुलाई, 1987 को पदमुक्त हो गए, लेकिन राजीव गांधी की समस्याएं कम नहीं हुईं। वी.पी. सिंह की लोकप्रियता उनको कांग्रेस से निष्कासित किए जाने के बाद तेजी से बढ़ने लगी थी। 2 अक्टूबर, 1987 में गांधी जयंती के दिन विश्वनाथ प्रताप सिंह, अरुण नेहरू, आरिफ मोहम्मद खान, मुफ्ती मोहम्मद सईद, विद्याचरण शुक्ला, सत्यपाल मलिक और रामधन इत्यादि नेताओं ने एक राजनीतिक मंच बनाए जाने की घोषणा की। इस मंच का नाम रखा गया- ‘जनमोर्चा’। इस मंच के जरिए वी.पी. सिंह ने पूरी तरह से कांग्रेस से नाता तोड़ने और विपक्षी दलों के साथ मिलकर अपनी राजनीतिक जमीन की तलाश शुरू कर दी। जनमोर्चा के गठन से पहले वी.पी. सिंह ने देश के कई हिस्सों का दौरा करना शुरू कर दिया था। उन्होंने ऐसा ही एक दौरा जुलाई, 1987 में महाराष्ट्र की राजधानी बम्बई (अब मुम्बई) का किया। यहां शिवाजी मैदान में एक बड़ी जनसभा का आयोजन किया गया था। वी.पी. सिंह जब इस जनसभा में भाग लेने मुम्बई पहुंचे, तो हवाई अड्डे पर उनका स्वागत करने के लिए भारी जनसमूह मौजूद था। वी.पी. सिंह के करीबी सहयोगी पत्रकार और पूर्व लोकसभा सांसद सन्तोष भारतीय इस दौरे की बाबत रोचक जानकारी देते हैं- ‘जब वी.पी. सिंह बम्बई पहुंचे तो एक बड़ी घटना और हुई। हवाई अड्डे से बाहर आते ही वी.पी. सिंह जिंदाबाद के नारे लगने लगे। उसी भीड़ में एक टैक्सी ड्राइवर ज्ञान सिंह यादव भी थे। उन्होंने जोर से नारा लगाया- ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’
आगे चलकर यह नारा पूरे देश में गूंजा था और अंततः 1989 के आम चुनाव में राजीव सरकार को अपदस्थ करने और वी.पी. सिंह को प्रधानमंत्री पद पर पहुंचाने में सफल रहा था। 1988 में पंजाब एक बार फिर से बडे़ स्तर पर आतंकी घटनाओं से थर्राने लगा था। राजीव-लोंगोवाल समझौता पूरी तरह विफल होने के चलते शांति बहाली की सम्भावनाओं पर पूरी तरह विराम लग चुका था। स्वर्ण मंदिर एक बार फिर से आतंकियों के कब्जे में जा चुका था। राजीव सरकार ने महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी जे.एफ. रिबेरो को पंजाब का पुलिस महानिदेशक नियुक्त कर आतंकियों का बड़े स्तर पर सफाया करने का अभियान छेड़ दिया था। 10 मई, 1988 को केंद्र सरकार ने एक बार फिर स्वर्ण मंदिर के परिसर में केंद्रीय सुरक्षा बलों को भेजने का निर्णय लिया। 1984 में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के चलते आहत हुई सिख भावनाओं के दृष्टिगत इस प्रकार की कार्यवाही का निर्णय लेना खासा जोखिमभरा था, लेकिन राजीव गांधी यह जोखिम उठाने का मन बना चुके थे। 10 मई के दिन नेशनल सिक्योरिटी गार्ड्स (एनएसजी) की ब्लैक कैट कमांडो यूनिट ने अपनी कार्यवाही शुरू कर दी। 18 मई तक चले इस अभियान के दौरान एक भी सैन्यकर्मी हताहत नहीं हुआ और स्वर्ण मंदिर के परिसर में पनाह लिए सभी आतंकियों को पकड़ लिया गया था, लेकिन पंजाब सुरक्षाबलों की भारी तैनाती और रिबेरो सरीखे काबिल अफसर के हाथों राज्य पुलिस की कमान बावजूद अशांन्त बना रहा था। अब आतंकियों के निशाने पर पंजाब में काम कर रहे बिहारी मजदूर आ गए, जिनकी बड़े पैमाने पर हत्या कर खालिस्तान समर्थक आतंकियों ने पंजाब की अर्थव्यवस्था को डगमगाने का काम कर डाला था। बिहारी मजदूर बुआई के समय पंजाब के किसानों की जरूरत हुआ करते हैं। आतंकियों के डर से इन मजदूरों ने बिहार वापसी कर किसानों के समक्ष बड़ी मुसीबत पैदा कर डाली। नतीजा आगे चलकर आम सिख का आतंकियों के साथ मोहभंग के रूप में सामने आता है।
28 जुलाई, 1988 की सुबह पूरे देश, विशेषकर खेल-प्रेमियों के लिए एक बेहद बुरी खबर लेकर आई। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बैडमिंटन खिलाडी सैय्यद मेहंदी हसन जैदी उर्फ सैय्यद मोदी की लखनऊ स्थित के.डी. सिंह बाबू स्टेडियम के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई। 26 वर्षीय सैय्यद मोदी 1980 से 1987 तक लगातार आठ बार बैडमिंटन के राष्ट्रीय चैम्पियन का खिताब जीत चुके थे। अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित मोदी ने अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी भारत का नाम रोशन किया था। 1982 के एशियन गेम्स में कांस्य पदक, 1982 में ही राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक और 1983 तथा 1984 में ऑस्टेªलियन चैम्पियनशिप जीतने वाले मोदी की हत्या से देश स्तब्ध रह गया।
सैय्यद मोदी की पत्नी अमिता कुलकर्णी मोदी भी बैडमिंटन की खिलाडी थीं। इस हत्या की जांच का जिम्मा केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई को सौंपा गया था। इस हत्याकांड में उत्तर प्रदेश के एक ताकतवर राजनेता संजय सिंह का नाम सामने प्रमुखता से उभरा था। संजय सिंह कांग्रेस के बड़े नेता और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के एक समय में बेहद करीबी हुआ करते थे। वी.पी. सिंह द्वारा ‘जनमोर्चा’ गठित किए जाने के समय संजय सिंह कांग्रेस से बगावत कर ‘जनमोर्चा’ में शामिल हो गए थे। सीबीआई इस हत्याकांड का सच खोल पाने में विफल रही। उसके द्वारा सात लोगों, जिनमें सैय्यद मोदी की पत्नी अमिता मोदी और संजय सिंह शामिल थे, इस हत्याकांड के लिए आरोपी बनाए गए थे। सीबीआई ने इस हत्या के पीछे संजय सिंह और अमिता मोदी के मध्य प्रेम को जिम्मेदार माना था। बकौल सीबीआई, अमिता और संजय के सम्बंधों में बाधा बन रहे मोदी को अपने रास्ते से हटाने के लिए संजय सिंह ने इस साजिश को अंजाम दिया था। निचली अदालत ने इन दोनों ही आरोपियों को दोषमुक्त करार दिया था, जिसे उच्चतम न्यायालय ने भी बरकरार रखा। अन्य अभियुक्तों में से दो की मुकद्दमे की सुनवाई के दौरान रहस्यपूर्ण तरीके से हत्या कर दी गई थी। इस घटना को अंजाम देने वाले भाड़े के अपराधी भगवती सिंह उर्फ पप्पू को ही निचली अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई, जिसे 34 बरस बाद 23 फरवरी, 2023 के दिन उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में सही मानते हुए भगवती सिंह उर्फ पप्पू की सजा को बरकरार रखा।
इस हत्याकांड की साजिश क्यों और किसके द्वारा रची गई? सीबीआई जांच को क्यों और किस राजनेता के पर्याप्त इशारे पर दबाव में लिया गया? और क्योंकर पर्याप्त पारिस्थितिक जनक सबूत होने के बावजूद संजय और अमिता को निचली अदालत ने सीबीआई द्वारा चार्जशीट दायर करने के तुरंत बाद ही दोषमुक्त करने की जल्दबाजी दिखाई? ऐसे अनेक प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं, जो भारतीय पुलिस व्यवस्था, न्यायपालिका और विधायकी की निष्पक्षता, निष्ठा और कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्धता को संदेह के घेरे में रखने का काम करते हैं। दोषमुक्त करार दिए जाने के तुरंत बाद संजय सिंह और अमिता मोदी ने शादी कर ली थी। संजय सिंह मात्र दो वर्ष बाद ही प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में मंत्री बन गए। उनके राजनीतिक जीवन पर इस हत्याकांड के चलते कुछ असर नहीं पड़ा। भाजपा के राष्ट्रीय फलक पर उभरने के बाद वे 1998 में भाजपा में शामिल होकर अमेठी से लोकसभा सदस्य का चुनाव लड़ संसद सदस्य बन गए। 2003 में एक बार फिर से वे कांग्रेस में शामिल होकर सुल्तानपुर संसदीय सीट से चुनाव लड़ संसद सदस्य बनने में सफल रहे। कई बरस कांग्रेस की ‘सेवा’ करने के बाद एक बार फिर पाला बदलकर 2019 में सिंह ने भाजपा की सदस्यता ले ली। अमिता मोदी (अब अमिता सिंह) भी संजय सिंह की पत्नी बनने के बाद राजनीति में तेजी से उभरीं। पति संजय सिंह की भांति वे भी लगातार अपनी राजनीतिक निष्ठा बदलकर तेजी से सत्ता के पायदान चढ़ती गईं। तीन बार उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्य चुनी गई अमिता उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार के कार्यकाल में मंत्री तक बनने में सफल रहीं। सैय्यद मोदी हत्याकांड में सीबीआई द्वारा आरोपी करार दिए गए संजय और अमिता की राजनीतिक सफलता भारतीय लोकतंत्र में ‘जर-जोरू और जमीन’ के प्रभाव को रेखांकित करने का ‘आदर्श’ उदाहरण बन सामने आती है।
नाना प्रकार के घोटालों, विशेषकर रक्षा सौदों में भारतीयों को दलाली दिए जाने, वित्त मंत्रालय और उसके बाद रक्षा मंत्रालय से वी.पी. सिंह को हटाए जाने, फिर वी.पी. सिंह का खुलकर राजीव गांधी की ‘मिस्टर क्लीन’ छवि पर प्रहार करना 1988 में तेजी से परवान चढ़ने लगा था। निश्चित तौर पर खुद पर हो रहे चौतरफा हमलों ने राजीव गांधी को खासा विचलित करने का काम शुरू कर दिया था। इसका एक प्रमाण अप्रैल, 1988 में राजीव गांधी का संसद में आपा खोने और विपक्षी नेताओं के खिलाफ असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करने के रूप में आता है। 27 अप्रैल को संसद में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने विपक्षी नेताओं को ‘झूठों का समूह’ करार दे डाला था। उनके इस कथन को लोकसभा अध्यक्ष द्वारा संसद की कार्यवाही से बाहर करने का फैसला लिया। राजीव आजाद भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बन गए, जिनके कथन को असंसदीय मानते हुए सदन की कार्यवाही से हटा दिया गया था।’
बोफोर्स तोप सौदे में सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन और उनके भाई अजिताभ बच्चन पर दलाली के आरोप चस्पा होने के बाद अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद संसदीय सीट से इस्तीफा देकर राजनीति से दूरी बनाने का निर्णय लिया था। अमिताभ के इस्तीफे बाद जुलाई, 1988 में इस सीट पर हुए उपचुनाव में विपक्षी दलों ने साझा उम्मीदवार के तौर पर वी.पी. सिंह को मैदान में उतारा। कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री को अपना प्रत्याशी बनाकर वी.पी. सिंह को भारी धर्म संकट में डाल दिया। शास्त्री परिवार के साथ वी.पी. सिंह के सम्बंध बेहद प्रगाढ़ थे। उन्हें शास्त्री का पांचवां पुत्र कहा जाता था। कांग्रेस ने इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना डाला था तो दूसरी तरफ विपक्षी दलों ने भी वी.पी. सिंह को जिताने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। स्वच्छ राजनीति के नए मसीहा बनकर उभर रहे वी.पी. सिंह ने भी इस चुनाव को जीतने के लिए हर दांव-पेच का इस्तेमाल कर अपनी तेज होती राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को स्थापित करने का काम कर दिखाया, लेकिन इस पर चर्चा बाद में। इस उपचुनाव में वी.पी. सिंह भारी मतों से विजयी होकर राजीव गांधी के बरअक्स विपक्षी दलों का चेहरा बनकर उभरने में कामयाब रहे थे।
नवम्बर, 1988 में एक बार फिर से राजीव सरकार ने भारत की सैन्य क्षमता और पड़ोसी देशों के प्रति अपनी नीति को ज्यादा धार देने का कार्य किया। इस बार मालद्वीप में आंतरिक संकट आ खड़ा हुआ था। वहां के राष्ट्रपति अब्दुल ग्यूम की सरकार का तख्ता पलटने का प्रयास तमिल अलगाववादियों के एक संगठन ‘पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन’ (पीएलओ) के सशस्त्र उग्रवादियों की मदद से मालद्वीप के एक बड़े उद्योगपति अब्दुल लतीफ द्वारा 3 नवम्बर, 1988 की सुबह किया गया। इन हथियारबंद पीएलओ उग्रवादियों ने राजधानी माले के सभी प्रमुख सरकारी प्रतिष्ठानों को अपने कब्जे में ले लिया और राष्ट्रपति के आवास को चारों तरफ से घेर लिया था। राष्ट्रपति ग्यूम ने श्रीलंका और पाकिस्तान से मदद की गुहार लगाई, लेकिन दोनों ही देशों ने ऐसा करने से इनकार कर डाला। राष्ट्रपति ग्यूम ने इसके पश्चात् सिंगापुर से मदद मांगी और उसके भी इनकार करने के बाद अमेरिका से मदद मांगी थी। वहां से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। अंत में ग्यूम ने भारत सरकार से सम्पर्क साधा। राजीव गांधी ने त्वरित गति से निर्णय लेते हुए भारतीय वायुसेना और थलसेना को कमांडो कार्यवाही के निर्देश दे दिए। इस अभियान का नाम ‘ऑपरेशन कैक्टस’ रखा गया था। 3 नवम्बर की रात ही भारतीय सेना माले पहुंचा दी गई। मात्र कुछ घंटों की कार्यवाही के बाद सभी भाड़े के सैनिकों को गिरफ्तार कर मालद्वीप में शांति बहाल करने का काम इस सैन्य टुकड़ी ने कर दिखाया था। भारत के इस प्रयास को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खासा सराहा गया। भारत और मालद्वीप के रिश्तों में इस ‘ऑपरेशन कैक्टस’ के बाद बड़ी मजबूती देखने को मिलती है।