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Editorial

माफीनामा दर माफीनामा

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-13
 
 

पचास बरस की सजा काटने अंडमान जेल भेजे गए  सावरकर  का मनोबल मात्र कुछ महीनों के भीतर ही टूट गया।  सावरकर विलक्षण प्रतिभाशाली थे। उनके भीतर अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ गहरा आक्रोश बाल्यकाल से ही पैदा हो गया था। वे सशस्त्र क्रांति के जरिए गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकना चाहते थे। उन्होंने विलायत जाकर भी अपने इरादों को बदला नहीं और अपने इरादों को फलीभूत करने का हर संभव प्रयास किया। इस दृष्टि से आजादी के आंदोलन में उनके योगदान को कमतर आंकना न्यायोचित नहीं कहा जा सकता है। काला पानी से पहले से सावरकर निश्चित ही ‘वीर’ सावरकर थे। लेकिन काला पानी पहुंचने के बाद अंडमान जेल भीतर के 13 बरस के दौरान वे कैद अन्य क्रांतिकारियों की बनिस्बत बेहद कमजोर साबित हुए, यह भी ऐतिहासिक सत्य है, जिसे वर्तमान में झुठलाने का प्रयास जितना भी हो रहा हो, सत्य ही रहेगा। आजाद भारत के पिचहत्तर बरस की यात्रा का निष्पक्ष आकलन आजादी की लड़ाई के समयकाल और उस दौर की महत्त्वपूर्ण घटनाओं, महत्त्वपूर्ण पड़ावों को जाने बगैर नहीं किया जा सकता है। 1947 में धर्म के आधार पर हुए विभाजन के कारणों को समझना, आने वाली पीढ़ी को समझाया जाना तभी संभव है, जब किसी भी विचारधारा विशेष से पूरी तरह निरपेक्ष रहकर  इतिहास के पृष्ठों को खंगाला जाए और उनके सहारे पिचहत्तर बरस के भारत की वर्तमान दशा और दिशा को समझने का प्रयास किया जाए। इस दृष्टि के मोहम्मद अली जिन्ना और विनायक दामोदर सावरकर के संपूर्ण व्यक्तित्व की परख करना जरूरी है।

 
सावरकर उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके मूल में मुस्लिम विरोध है। तो जिन्ना उस विचारधारा का, जो बहुसंख्यक हिंदू से आतंकित हो, किसी भी परिस्थिति में उसके अधीन रह अपना अस्तित्व, अपना भविष्य सुरक्षित नहीं रह पाने के डर से ग्रसित है। वर्तमान भारत में जिन्ना को ऐसे कट्टरपंथी के तौर पर देखा जाता है, जिसने अपनी निजी महात्वकांक्षा के चलते विभाजन में खलनायक की भूमिका अदा की। सावरकर को ऐसा नायक बताया जाता है जो शूरवीर था, जिसके संग कांग्रेस नेताओं के षड्यंत्र ने न्यायोचित व्यवहार नहीं होने दिया। सच इन दो के बीच कहीं दब-सा गया है। जिन्ना को यदि एक विचारधारा माने और सावरकर को दूसरी, तो इतिहास की ईमानदार परख से एक बात स्पष्ट हो उभरती है कि दोनों ही विचारधारा भारत विभाजन के लिए बराबर की गुनहगार हैं। जिन्ना 1920 के बाद तेजी से बदले और 1937 आते-आते एक कट्टर राष्ट्रवादी से एक कट्टर पृथकतावादी में तब्दील हो गए तो सावरकर भी इसी कालखंड में अपनी वीरता, त्याग किसी भी कीमत पर जेल से बाहर आने को आतुर ऐसे व्यक्ति में तब्दील हो गए जो पूरी तरह ब्रिटिश हुकूमत के अधीन रहने तक के लिए तैयार हो गया था।
सावरकर 1911 के जून महीने में अंडमान जेल में दाखिल हुए थे और वहां की अमानवीय स्थितियों, अत्याचारों के चलते मात्र दो माह के भीतर ही वे टूट गए। 30, अगस्त, 1911 को उन्होंने अपना पहला माफीनामा अंग्रेज सरकार को भेजा जिसे अस्वीकार कर दिया गया। इस अस्वीकृति ने उन्हें कहीं भीतर तक हिलाने का काम किया। इतना कि वे आत्महत्या की कगार तक जा पहुंचे थे। वे किस कदर जेल में रह टूट चुके थे और किस हद तक ब्रिटिश हुकूमत के आगे समर्पण करने के लिए तैयार हो चुके थे, इसे उनके दूसरे माफीनामे से समझा जा सकता है। 14 नवंबर, 1913 के इस माफीनामे में सावरकर ने लिखा है-(अतः यदि सरकार परोपकार और दया भाव अपना कर मुझे रिहा करती है तो मैं संविधान की प्रगति के प्रति और अंग्रेज सरकार के प्रति कट्टर वफादार रहूंगा। जेल के भीतर रहते हुए हम कैदी सही अर्थों में खुशी और आनंद नहीं पा सकते हैं लेकिन यदि हमें रिहा कर दिया जाता है तो हम उस सरकार के प्रति कृतज्ञता भाव रखेंगे जो क्षमा करना और ­­­हमें सुधारना जानती है। इतना ही नहीं मेरा ब्रिटिश सत्ता के साथ होने का बड़ा असर उन नवयुवकों पर भी होगा जो पथभ्रष्ट हैं और मुझे अपना नायक मानते हैं। मैं अपनी क्षमता अनुसार सरकार की सेवा करने के लिए तैयार हूं। क्योंकि मेरा हृदय परिवर्तन धर्मनिष्ठ है इसलिए मुझे विश्वास है कि रिहा होने के बाद भी मेरा आचरण सही रहेगा)
सावरकर की यह याचिका भी खारिज कर दी गई। इसके बाद 1914, 1915, 1919, 1920 में लगातार सावरकर जेल से रिहाई के लिए क्षमायाचना करते रहे। इस दौरान सावरकर के मन में मुसलमानों के प्रति द्वेष की भावना प्रगाढ़ होती चली गई थी। अपनी आत्मकथा ‘मेरा आजीवन कारावास’ में वे लिखते हैं कि पोर्ट ब्लेयर (अंडमान) के जेल में प्रवेश करने के साथ ही उन्होंने देखा कि वहां कैद मुसलमान और हिंदू कैदियों के मध्य जेलर डेविड बैरी भारी भेदभावपूर्ण आचरण करता था। मुसलमान कैदियों को ज्यादा सुविधाएं मिलती थी और उन्हें उनके धर्म अनुसार आचरण करने दिया जाता था लेकिन हिंदू कैदियों को ऐसी कोई सुविधा नहीं दी जाती थी। इस भेदभावपूर्ण नीतियों का सावरकर ने अपनी आत्मकथा में विस्तार से वर्णन किया है जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सावरकर के मन में इस जेल यात्रा के दौरान मुसलमानों के प्रति घृणा अथवा द्वेष का भाव ज्यादा गहरा हुआ, भले ही इन भेदभावपूर्ण नीतियों के मूल में जेलर डेविड बैरी की ‘फूट डालो’ नीति ही क्यों न रही हो।
 
अंग्रेज हुकूमत किसी भी कीमत पर सावरकर की रिहाई के लिए तैयार नहीं थी। ऐसे में नारायण राव सावरकर महात्मा गांधी की शरण में पहुंचे। उन्होंने अपने दोनों बड़े भाइयों, गोविंद राव और विनायक दामोदर सावरकर की रिहाई के लिए गांधी से मदद की गुहार लगाई। 26 मई, 1920 को महात्मा ने अपने समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ में ‘सावरकर बंधु’ शीर्षक से एक लंबा लेख लिख दोनों भाइयों की रिहाई के लिए अंग्रेज सरकार को कहा। इस लेख में गांधी ने दोनों सावकर भाइयों को राजनीतिक कैदी बताते हुए कड़े शब्दों में अंग्रेज हुकूमत को लिखा कि (सावरकर भाई राजनीतिक अपराधी हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे पंजाब के राजनीतिक बंदी जिन्हें सरकार ने माफ कर दिया है लेकिन इन भाइयों को अभी तक आजादी नहीं दी गई है जबकि उनके अपराध भी राजनीतिक प्रवृति के ही हैं। बड़े सावरकर (गोविंद राव) ने कभी हिंसक गतिविधियों में भाग नहीं लिया है। वे शादीशुदा थे। उनकी दो बेटियां थी जिनकी मृत्यु हो गई है और बेटियां की मौत के बाद उनकी पत्नी की भी मौत हो चुकी है। दूसरे भाई (विनायक दामोदर) का लंदन में शानदार काम रहा है। उन्हें 1911 में एक हत्या में हाथ होने के संदेह में गिरफ्तार किया गया जिसमें उनके खिलाफ कोई अभियोग प्रमाणित नहीं हो सका है।)
गांधी की इस मार्मिक और तर्कसंगत सार्वजनिक अपील ने अपना असर दिखाया और मई 1921 में दोनों सावरकर भाईयों को काला पानी की कैद से मुक्ति मिल गई। उन्हें कलकत्ता की अलीपुर जेल भेज दिया गया। 5 जनवरी, 1924 की रात बतौर कैदी सावकर की जेल में अंतिम रात थी।
 
कलकत्ता से रत्नागिरि और रत्नागिरि जेल से पुणे की यरावदा जेल भेजे गए सावरकर का 30 मार्च, 1920 को लिखा गया छठा माफीनामा अंततः कई शर्तों के साथ ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार कर लिया और 14 बरस की जेल काटने के बाद सावरकर 6 जनवरी, 1924 को रिहा कर दिए गए। रिहाई की शर्तों में सबसे अहम शर्त थी ब्रिटिश सत्ता के साथ सहयोग करना जिसका अक्षरशः पालन विनायक दामोदर ने आजादी मिलने तक किया। इसमें कोई शक इतिहास को नहीं है कि बाल्यकाल से ही सावरकर के भीतर देश को स्वाधीन कराने का जज्बा जोर पकड़ चुका था। इससे भी इंकार इतिहास नहीं करता कि 1910 में अपनी गिरफ्तारी से पहले तक सावकर इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए काम करते रहे लेकिन 1910 से 1924 तक का कालखंड सावकर को एक बेहद कमजोर, यहां तक की कायरता की कगार में ला खड़ा करता है।
 
सावरकर को जब काला पानी की सजा 1911 में सुनाई गई थी तब उन सरीखे कई लाख ब्रिटिश हुकूमत की खिलाफत करने वाले भारतीय जेलों में बंद थे। अकेले अंडमान जेल में ही 173 को मौत की सजा दी गई थी। कई ऐसे भी क्रांतिकारी वहां कैद थे जिन्हें सजा पूरी होने के बाद रिहाई मिली लेकिन वे दोबारा अपने क्रांतिकारी मिशन में जुट गए थे और फिर से गिरफ्तार हो वापस काला पानी भेज दिए गए थे। इनमें से किसी ने भी  सावरकर  के समान अंग्रेज सत्ता के समक्ष समर्पण नहीं किया, बार-बार क्षमा याचना नहीं की। यह भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि जेल से रिहाई के बाद 1926 में प्रकाशित पुस्तक ‘वीर सावरकर की जीवनी’  (The life of Veer Sawarkar) जिसमें लेखक का नाम चित्रगुप्त था, दरअसल स्वयं सावरकर ने ‘छद्म’ नाम से लिखी थी। इससे सीधा अर्थ निकलता है कि उन्होंने स्वयं ही स्वयं को ‘वीर’ कह पुकारा था। सावरकर से उम्र में 24 बरस छोटे भगत सिंह का चरित्र उनसे ठीक उलट इतिहास में दर्ज है। 1931 में फांसी पर चढ़ाए गए भगत सिंह ने एक बार भी रहम की अपील ब्रिटिश हुकूमत से नहीं की थी। 1931 में लाहौर जेल से लिखे पत्र में भगत सिंह का जो चरित्र उभरता है उसके बरअक्स 1911 से 1920 तक लगातार ब्रिटिश सत्ता से माफी मांगने वाले सावरकर कहीं नहीं ठहरते। बहरहाल, पिचहत्तर बरस के आजाद भारत की यात्रा को समझने के लिए भारत विभाजन के असल कारणों की परख जरूरी है। इस विभाजन के गुनहगारों में एक महत्वपूर्ण किरदार जिन्ना तो दूसरा सावरकर का है इसलिए इन दो शख्सियतों की जीवन यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ावों से गुजरना आवश्यक हो जाता है।

क्रमशः

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